महर्षि दयानन्द अपने समय के महान् लेखक थे। एतदर्थ मुद्रित, प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रन्थों के रूप में उनकी निजी सम्पत्ति थी। अपने ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए वे अपना प्रिंटिंग प्रेस भी स्थापित कर चुके थे, जिससे पुस्तक-प्रकाशन का कार्य भी होता था। इनके अतिरिक्त उनकी अन्य भौतिक सम्पत्ति, हस्तलिखित व मुद्रित पुस्तकों तथा वस्त्रों इत्यादि के रूप में भी थी। यद्यपि उनके कार्यों को जारी रखने के लिए आर्यसमाजों की स्थापना हो रही थी, किन्तु कोई एक आर्यसमाज इस सब सम्पत्ति का उत्तराधिकारी नहीं हो सकता था, क्योंकि तब तक किसी केन्द्रीय या सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा का संगठन नहीं हुआ था। इस दशा में ऋषि दयानन्द ने अपनी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक स्वीकारपत्र लिखकर उसकी रजिस्ट्री भी करवा दी थी। परोपकारिणी सभा नाम से एक सभा को संगठित कर उसे ऋषि दयानन्द ने अपनी भौतिक सम्पत्ति का उत्तराधिकारी नियत किया और सब सम्पत्ति उसके नाम वसीयत कर दी। यह वसीयत- नामा 27 फरवरी 1883 को उदयपुर में रजिस्टर्ड कराया गया था।
॥ श्रीरामजी ॥
परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृत
स्वीकारपत्र की प्रति
(राजकीय मुद्रा)
आज्ञा ( राज्ये श्रीमहद्राजसभा ) संख्या 290
आज यह स्वीकारपत्र श्रीमान् श्री 108 श्रीजी धीरवीर चिरप्रतापी विराजमानराज्ये श्रीमहद्राजसभा के सम्मुख स्वामीजी श्री दयानन्दसरस्वतीजी ने सर्वरीत्या अङ्गीकार किया, अत एव-
आज्ञा हुई-
कि प्रथम प्रति तो इस स्वीकारपत्र की स्वामीजी श्री दयानन्दसरस्वतीजी को राज्ये श्री महद्राजसभा हस्ताक्षरी और मुद्राङ्कित दी जावे और दूसरी प्रति उक्त सभा के पत्रालय में रहे और एक-एक प्रति इसकी राजयन्त्रालय में मुद्रित होकर इस स्वीकारपत्र में लिखे सब सभासदों के पास उनके ज्ञानार्थ और इसके नियमानुसार वर्तने के लिये भेजी जावे। संवत् 1939 फाल्गुन शुक्ला 5 मङ्गलवार तदनुसार ता० 27 फेब्रुएरी सन् 1883 ई०।
हस्ताक्षर महाराणा सज्जनसिंहस्य
(श्रीमेदपाटेश्वर और राज्ये श्रीमहद्राजसभापति)
राज्ये श्रीमहद्राजसभा के सभासदों के हस्ताक्षर
स्वीकारपत्र
मैं स्वामी दयानन्दसरस्वती निम्नलिखित नियमानुसार त्रयोविंशति सज्जन आर्यपुरुषों की सभा को वस्त्र, पुस्तक, धन और यन्त्रालय आदि अपने सर्वस्व का अधिकार देता हूँ और उसको परोकार सुकार्य में लगाने के लिए अधिष्ठाता करके यह पत्र लिखे देता हूँ कि समय पर कार्यकारी हो। जो यह एक सभा कि जिसका नाम परोपकारिणी सभा है, उसके निम्नलिखित त्रयोविंशति, सज्जन पुरुष सभासद् हैं, उनमें से इस सभा के सभापति-
- श्रीमन्महाराजाधिराज महीमहेन्द्र यावदार्य्यकुलदिवाकर महाराणाजी श्री 108 श्री सज्जनसिंहजी वर्म्मा धीरवीर जी०सी०एस०आई० उदयपुराधीश हैं, उदयपुर राज मेवाड़।
- उपसभापति लाला मूलराज एम०ए० एक्स्ट्रा एसिस्टेण्ट कमिश्नर, प्रधान आर्य्यसमाज लाहौर, जन्मस्थान लुधियाना।
- मन्त्री श्रीयुत कविराज श्यामलदासजी, उदयपुर राज मेवाड़।
- मन्त्री लाला रामशरणदास रईस, उपप्रधान आर्य्यसमाज मेरठ।
- उपमन्त्री पण्ड्या मोहनलाल विष्णुलालजी, निवास उदयपुर, जन्मभूमि मथुरा।
सभासद्
नाम और स्थान
- श्रीमन्महाराजाधिराज श्री नाहरसिंहजी वर्मा, शाहपुरा राज मेवाड़
- श्रीमत् राव तख्तसिंह जी वर्म्मा, बेदला राज मेवाड़
- श्रीमत् राज्य राणा श्रीफतहसिंहजी वर्म्मा, देलवाड़ा राज मेवाड़
- श्रीमत् रावत अर्जुनसिंह जी वर्मा, आसींद राज मेवाड़
- श्रीमत् महाराज श्री गजसिंह जी वर्म्मा, उदयपुर मेवाड़
- श्रीमत् राव श्री बहादुरसिंहजी वर्म्मा, मसूदा जिले अजमेर
- रावबहादुर पं० सुन्दरलाल, सुपरिटेंडेंट वर्कशाप और प्रेस अलीगढ़ आगरा
- राजा जयकृष्णदास सी०एस०आई० डिपुटी कलक्टर, बिजनौर, मुरादाबाद
- बाबू दुर्गाप्रसाद, कोषाध्यक्ष आर्यसमाज व रईस, फर्रुखाबाद
- लाला जगन्नाथप्रसाद, रईस फर्रुखाबाद
- सेठ निर्भयराम, प्रधान आर्य्यसमाज फर्रुखाबाद बिसाऊ राजपूताना
- लाला कालीचरण रामचरण, मन्त्री आर्य्यसमाज फर्रुखाबाद
- लाला साईंदास, मन्त्री आर्य्यसमाज लाहौर
- बाबू माधवदास, मन्त्री आर्य्यसमाज दानापुर
- बाबू छेदीलाल, गुमाश्ते कमसर्यट छावनी मुरार कानपुर
- रावबहादुर रा०रा० पंडित गोपालरावहरि देशमुख, मेम्बर कौन्सिल गवर्नर बम्बई और प्रधान आर्य्यसमाज बम्बई पूना
- रावबहादुर रा०रा० महादेव गोविन्द रानडे जज्ज, पूना
- पं० श्यामजीकृष्ण वर्म्मा, प्रोफेसर संस्कृत यूनिवर्सिटी आक्सफोर्ड
नियम
- उक्त सभा जैसे कि वर्तमानकाल वा आपत्काल में नियमानुसार मेरी और मेरे समस्त पदार्थों की रक्षा करके सर्वहितकारी कार्य में लगाती है, वैसे मेरे पश्चात् अर्थात् मेरे मृत्यु के पीछे भी लगाया करे- प्रथम – वेद और वेदाङ्गादि शास्त्रों के प्रचार अर्थात् उनकी व्याख्या करने-कराने, पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने, छापने छपवाने आदि में। द्वितीय- वेदोक्त धर्म के उपदेश और शिक्षा अर्थात् उपदेशकमंडली नियत करके देश-देशान्तर और द्वीप – द्वीपान्तर में भेजकर सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग कराने आदि में।
तृतीय- आर्यावर्त्तीय अनाथ और दीन मनुष्यों के संरक्षण, पोषण और सुशिक्षा में व्यय करे और करावे। - जैसे मेरी विद्यमानता में यह सभा सब प्रबन्ध करती है, वैसे मेरे पश्चात् भी तीसरे वा छठे महीने किसी सभासद् को वैदिक यन्त्रालय का हिसाब-किताब समझने और पड़तालने के लिए भेजा करे और वह सभासद् जाकर समस्त आय-व्यय और संचय आदि की जांच पड़ताल करे और उनके तले अपने हस्ताक्षर लिखदे और उस विषय का एक-एक पत्र प्रति सभासद् के पास भेजे और उसके प्रम्बन्ध में कुछ हानि लाभ देखे, उसकी सूचना अपने भी परामर्श सहित प्रत्येक सभासद् के पास लिख भेजे, पश्चात् प्रत्येक सभासद् को उचित है कि अपनी-अपनी सम्मति सभापति के पास लिख कर भेजदे और सभापति सबकी सम्मति से यथोचित प्रबन्ध करे और कोई सभासद् इस विषय में आलस्य अथवा अन्यथा व्यवहार न करे।
- इस सभा को उचित है किन्तु अत्यावश्यक है कि जैसा यह परमधर्म और परमार्थ का कार्य है, उसको वैसा ही उत्साह, पुरुषार्थ, गम्भीरता और उदारता से करे।
- मेरे पीछे उक्त त्रयोविंशति आर्यजनों की सभा सर्वथा मेरे स्थानापन्न समझी जाय अर्थात् जो अधिकार मुझे अपने सर्वस्व का है वही अधिकार सभा को है और रहे, यदि उक्त सभासदों में से कोई इन नियमों से विरुद्ध स्वार्थ के वश होकर वा कोई अन्य जन अपना अधिकार जतावे तो वह सर्वथा मिथ्या समझा जाय।
- जैसे इस सभा को अपने सामर्थ्य के अनुसार वर्त्तमान समय में मेरी और मेरे समस्त पदार्थों की रक्षा और उन्नति करने का अधिकार है, वैसे ही मेरे मृतक शरीर के संस्कार करने कराने का भी अधिकार है। अर्थात् जब मेरा देह छूटे तो न उसको गाड़ने, न जल में बहाने, न जङ्गल में फेंकने दे, केवल चन्दन की चिता बनावे और जो यह सम्भव न हो तो दो मन चन्दन चार मन घी, पाँच सेर कपूर, ढाई सेर अगर- तगर और दश मन काष्ठ लेकर वेदानुकूल जैसे कि संस्कारविधि में लिखा है वेदी बनाकर, तदुक्त वेदमन्त्रों से होम करके भस्म करे, इससे भिन्न कुछ भी वेदविरुद्ध क्रिया न करे। और जो सभाजन उपस्थित न हों तो जो कोई समय पर उपस्थित हो, वही पूर्वोक्त क्रिया कर दे और जितना धन उसमें लगे उतना सभा से ले ले और सभा उसको दे दे।
- अपनी विद्यमानता में और मेरे पश्चात् यह सभा चाहे जिस सभासद् को पृथक् करके उसका प्रतिनिधि किसी अन्य योग्य सामाजिक आर्यपुरुष को नियत कर सकती है परन्तु कोई सभासद् सभा से तब तक पृथक् न किया जाय, जब तक उसके कार्य में अन्यथा व्यवहार न पाया जाय।
- मेरे सदृश यह सभा सदैव स्वीकारपत्र की व्याख्या वा उसके नियम और प्रतिज्ञाओं के पालन वा किसी सभासद् के पृथक् और उसके स्थान में अन्य सभासद् के नियत करने वा मेरे विपत् और आपत्काल के निवारण करने के उपाय और यत्न में वह उद्योग करे जो समस्त सभासदों की सम्मति से निश्चय और निर्णय पाया वा पावे। और जो सम्मति में परस्पर विरोध हो तो बहुपक्षानुसार प्रबन्ध करे और सभापति की सम्मति को सदैव द्विगुण जाने।
- किसी समय भी यह सभा तीन से अधिक सभासदों की अपराध की परीक्षा कर पृथक् न कर सके, जब तक पहिले तीन के प्रतिनिधि नियत न करले।
- यदि सभा में से कोई पुरुष मर जाय या पूर्वोक्त नियमों और वेदोक्त धर्मों को त्यागकर विरुद्ध चलने लगे, तो इस सभा के सभापति को उचित है कि सब सभासदों की सम्मति से पृथक् करके उसके स्थान में किसी अन्य योग्य वेदोक्त धर्मयुक्त आर्य पुरुष को नियत करदे परन्तु जब तक नित्यकार्य के अनन्तर नवीन कार्य का आरम्भ न हो।
- इस सभा को सर्वथा प्रबन्ध करने और नवीन युक्ति निकालने का अधिकार है परन्तु जो सभा को अपने परामर्श और विचार पर पूरा- पूरा निश्चय और विश्वास न हो, पत्र द्वारा समय नियत करके सम्पूर्ण आर्यसमाजों से सम्मति ले ले और बहुपक्षानुसार उचित प्रबन्ध करे।
- प्रबन्ध न्यूनाधिक करना वा स्वीकार वा अस्वीकार करना वा किसी सभासद् को पृथक् वा नियत करना वा आय-व्यय और संचय की जांच पड़ताल करना आदि लाभ हानि सब सभासदों को वार्षिक वा षाण्मासिक पत्र द्वारा सभापति छपवा कर विदित करे।
- इस स्वीकारपत्र सम्बन्धी कोई झगड़ा, टंटा सामयिक राज्याधिकारियों की कचहरी में निवेदन न किया जाय। यह सभा अपने आप न्यायव्यवस्था करले परन्तु जो अपनी सामर्थ्य से बाहर हो तो राजगृह में निवेदन करके अपना कार्य सिद्ध करले।
- यदि मैं अपनी जीते जी किसी योग्य आर्य्यजन को पारितोषिक अर्थात् पेन्शन देना चाहूं और उसकी लिखत-पढ़त करा के रजिस्टरी करा दूं तो सभा को उचित है कि उसको माने और दे।
- किसी विशेष लाभ, उन्नति, परोपकार और सर्वहितकारी कार्य के वश मुझे और मेरे पीछे सभा को पूर्वोक्त नियमों के न्यूनाधिक करने का सर्वथा सदैव अधिकार है।
ह० दयानन्दसरस्वती