महर्षि दयानन्द सरस्वती का विचार दर्शन

किसी भी महापुरुष के विचारों का अध्ययन उसके जीवनयापन की प्रणाली, शिक्षा, संस्कार तथा उसके मानस पर पड़े प्रभावों की पृष्ठभूमि में किया जाना ही समीचीन होता है। इस दृष्टि से महर्षि दयानन्द जैसे युगपुरुष एवं विश्व मानव की विचार सम्पत्ति की विवेचना आरम्भ करने से पूर्व यह ध्यान रखना होगा कि उन्होंने अपने जीवन का बहुलांश एक संन्यासी के रूप में व्यतीत किया था। ऐसे संन्यासी के रूप में, जो सांसारिक मोह जालों से सर्वथा मुक्त होकर निर्द्वन्द्व भाव से विचरने में ही अपने जीवन की सार्थकता नहीं समझ बैठा है, किन्तु जो समष्टि हित तथा समस्त प्राणीवर्ग के मंगल विधान के लिये ही पदे पदे चिन्तित रहता है, व्याकुलता प्रकट करता है तथा अशेष समाज की पीड़ा, दुःख एवं कष्टों के निवारण के लिये सतत् प्रयत्नशील भी रहता है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म भारत के एक ऐसे ब्राह्मण परिवार में हुआ था जो अपनी धार्मिक आस्थाओं एवं सामाजिक विधि विधानों की परम्परानुमोदित व्यवस्थाओं की कठोरतापूर्वक पालना में ही अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री समझता था। उनका शैशवकालीन पालन-पोषण तथा प्रारम्भिक शिक्षा भी परम्परागत ढंग से हुई, जिसमें साम्प्रदायिक विश्वासों को यथावत् ग्रहण करने तथा पूजा, उपासना के रूढ़िबद्ध इतिकर्त्तव्यों के कड़ाई से पालन पर ही निरन्तर जोर दिया जाता था। तथापि इसे चमत्कार ही कहा जायेगा कि मध्यकालीन धर्म एवं आस्थाओं के जटिल संकुल वातावरण में जन्म लेकर व पल कर भी महर्षि दयानन्द सरस्वती इन्हीं क्षेत्रों में सर्वाधिक क्रान्तिकारी तथा प्रबुद्ध चिन्तन को उत्पन्न करने में सफल हो सके।

महर्षि दयानन्द का जन्म उस युग में हुआ था, जब भारत का जनमानस पश्चिम की विद्या, बुद्धि, विज्ञान एवं तर्क युक्त चिन्तन के सम्पर्क में आकर यह समझ पाने में असमर्थ हो रहा था कि इस नवचेतना को वह किस रूप में व किस प्रकार ग्रहण करे? क्या पश्चिमी जीवन-पद्धति को समग्रतः अंगीकार कर लेना उसकी निजी अस्मिता एवं पहचान की समाप्ति की घोषणा तो नहीं होगी? कुछ इसी प्रकार के संकल्प विकल्प भारतीय मानस को झकझोर रहे थे, उद्वेलित कर रहे थे। भारतीय नवजागरण का आरम्भ तो महर्षि दयानन्द के जन्म की तिथि के आस-पास से ही माना जा सकता है जबकि तत्कालीन भारत में राममोहन राय धर्म, समाज तथा देश के व्यापक सन्दर्भों में विभिन्न सुधारवादी चेष्टाओं में संलग्न थे। इतिहासकारों ने महर्षि दयानन्द के विचारों, कार्यों तथा उनकी उपलब्धियों को भी भारतीय नवजागरण के इतिहास से जोड़ा है। आपाततः इसमें कोई आपत्ति जैसी बात नहीं है, किन्तु यह ध्यान रखना होगा कि पुनरुत्थान के अन्य ज्योतिर्धरों एवं उन्नायकों ने जहाँ पश्चिमी शिक्षा, यूरोपीय चिन्तन तथा विचारधाराओं से प्रेरणा ग्रहण की वहाँ महर्षि दयानन्द को पश्चिम का किसी भी प्रकार से संस्पर्श तक प्राप्त नहीं था। वे जिस पारिवारिक वातावरण में पले, सामाजिक वातावरण में बढ़े तथा परम्परागत संस्कृत शास्त्रों के अध्ययन करने का उन्हें जैसा अवसर मिला, उससे पश्चिमीकरण का लेशमात्र भी सम्पर्क नहीं था। अतः महर्षि दयानन्द के उदाहरण से ही हमें पश्चिमी संस्कृति के रंग में रंगे उन लोगों द्वारा प्रचारित इस मिथ को तोड़ देना होगा कि भारत के जनजागरण का एक मात्र श्रेय अंग्रेजी शिक्षा एवं पश्चिमी विचारधारा के प्रचलन को ही है। यह भी एक संयोग ही था कि महर्षि दयानन्द को छोड़कर राममोहन राय से लेकर गांधी पर्यन्त नवोत्थान के नेता अंग्रेजी शिक्षा एवं रीति-नीति से सुपरिचित थे। अकेले महर्षि दयानन्द ही एक ऐसे अपवाद हैं जो सर्वप्रकारेण पुरातन संस्कृत शास्त्रों में निष्णात होकर भी सर्वथा प्रगतिशील, सामयिक तथा समाज को उन्नति के मार्ग पर ले चलने में समर्थ कार्यक्रम प्रस्तुत कर सके।

महर्षि दयानन्द मूलतः धार्मिक पुरुष हैं, धार्मिक ग्रन्थों का उन्होंने अध्ययन किया है, वे धर्मोपदेष्टा हैं, धर्मप्रचारक हैं तथा धर्माचार्य भी हैं। किन्तु महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित धर्म हिन्दू, मुसलमान, ईसाई जैसी किसी संकुचित परिधि में परिवेष्टित हो जाने वाला संकीर्ण तत्त्व नहीं है। उन्होंने धर्म को उसके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थों के आधार पर अत्यन्त व्यापक धरातल प्रदान किया है। उनकी दृष्टि में जो पक्षपातरहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा, वेदों से अविरुद्ध है, वही धर्म है। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि वेदों से अविरुद्ध तथा वेदों के अनुकूल आचरण को ही वे धर्म क्यों ठहराते है? क्या ग्रन्थ विशेष द्वारा उपदिष्ट कर्त्तव्याचरण ही विश्वमानव का सार्वभौम एवं सार्वजनिक धर्म हो सकता है? और क्या वेद किसी काल विशेष में रचित, व्यक्ति विशेष की कृति नहीं हैं ?

इसी संदर्भ में महर्षि दयानन्द के वेद विषयक विचारों से परिचित होना सर्वथा उचित माना जायेगा। महर्षि दयानन्द वेद को ज्ञान का पर्याय मानते हैं और उनकी दृढ़ धारणा है कि सृष्टि के प्रारम्भ काल में ही मनुष्य को कोई ऐसा ज्ञान अवश्य प्राप्त हुआ था, जो देश, काल एवं व्यक्ति निरपेक्ष होने के कारण निखिल मनुष्य समाज के लिये उपयोगी, लाभप्रद तथा उन्नति का हेतु था। इसी मूल धारणा को लेकर वे भारत के बृहत्तर आर्यसमाज में प्रचलित इस विचार की सोपपत्तिक मीमांसा प्रस्तुत करते हैं कि मनुष्य मात्र के हित की दृष्टि से प्रदत्त ऐसा ज्ञान वस्तुतः ईश्वरीय ज्ञान ही हो सकता है, उसे किसी पुरुष विशेष की कृति नहीं कहा जा सकता। यह दूसरी बात है कि सहस्राब्दियों प्राचीन इस ज्ञान की गरिमा को आज हम विस्मृत कर बैठे है

महर्षि दयानन्द ने अपने वेद विषयक विचारों को स्वकीय ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर न केवल सूत्रित ही किया है, किन्तु अनेकत्र उनकी विशद व्याख्या एवं विवेचना भी की है। उन्होंने वेदों की नित्यता, अपौरुषेयता तथा उनके सर्वज्ञानमयत्व की स्थापना उसी प्रकार की है, जो भारतीय परम्पराओं में सर्वथा अनुमोदित एवं स्वीकृत रही है। तथापि महर्षि दयानन्द की वेद – विषयक व्याख्या एवं विवेचना को ही इस बात का श्रेय जाता है कि वेदों पर किये जाने वाले आक्षेपों एवं आपत्तियों का सतर्क उत्तर भी इसी प्रकार की व्याख्याप्रणाली से दिया जाना सम्भव है। यहाँ किंचित् विस्तार में जाकर महर्षि दयानन्द के वेद विषयक विचारों की आलोचना करना अनुपयुक्त नहीं होगा।

महर्षि दयानन्द ने वेद के नित्यत्व, अपौरुषेयत्व अथवा ईश्वर कर्तृत्व आदि से सम्बन्धित जो विचार प्रस्तुत किये, उनसे मोटे तौर पर भारतीय परम्परा के किसी भी वेदार्थ चिन्तक अथवा वेदाभ्यासी विद्वान् की असहमति नहीं है। तथापि प्रायः यह आक्षेप किया जाता रहा है कि महर्षि दयानन्द की वेदार्थ प्रणाली उन भाष्यकारों द्वारा मान्य पद्धति को स्वीकार कर नहीं चलती, जिसका अनुसरण करते हुए भाष्यकार सायण आदि ने वेद भाष्य लिखे हैं। परन्तु यहाँ भी महर्षि दयानन्द के विचारों में किसी प्रकार का कोई दुराव, छिपाव या विप्रतिपत्ति नहीं है। वे यह स्पष्ट घोषणा करते हैं कि सायणादि के भाष्य तो उस युग में लिखे गये थे जबकि वेदार्थ – चिन्तन की सर्वाधिक प्राचीन प्रणाली, जो स्वयं वेद के अत्यन्त निकट की रही होगी, प्रायः नष्ट हो गई थी तथा उस युग में भाष्यकार यह मान कर चलता था कि वेद मन्त्रों की रचना किसी न किसी कर्म विशेष की सिद्धि के लिये ही हुई है, यह भी कि कर्मविशेष का संकेत देने तथा उनकी कार्यवधि को बतलाने के अतिरिक्त उस मंत्र का कोई अन्य प्रयोजन नहीं है।

महर्षि दयानन्द इस प्रकार के याज्ञिक अर्थों को पूरे तौर पर चुनौती भी नहीं देते। वेद मंत्र मनुष्य के लिये हितकारक कर्मकाण्ड के प्रयोजक हैं, मन्त्रों का विनियोजन मानव कल्याण के लिये किये जाने वाले क्रियाकाण्डों में होना चाहिए, इस धारणा से सिद्धान्ततः सहमत होते हुए भी वे यह स्वीकार नहीं करते कि मन्त्रों की रचना या उनका दर्शन मात्र कर्मकाण्ड की सिद्धि के लिये ही हुआ था। उनकी धारणा है कि यदि वस्तुतः वेदों को ईश्वरीय ज्ञान के रूप में हम स्वीकार करते हैं तो उनमें प्रतिपादित विचार नितान्त उदार, व्यापक, प्राणिमात्र के लिये हितकारक तथा सन्मार्ग प्रेरक होने चाहिए। इसी आधार पर वे वेद मन्त्रों के मुख्यतः पारमार्थिक तथा व्यावहारिक, अन्य शब्दों में आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक और विभिन्न विद्या- तत्त्वों के प्रतिपादक अर्थों को करने के पक्षपोषक हैं।

महर्षि दयानन्द के वेदार्थ चिन्तन में अनेक युगान्तरकारी विचार एवं धारणायें प्रतिफलित हुई हैं। उन्होंने वेदवादियों में प्रचलित इस धारणा का प्रबल खण्डन किया कि मंत्र संहिताओं की ही भाँति ब्राह्मणग्रन्थों को भी वेद संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है। चाहे मध्यकाल के सूत्रकारों तथा वेदाभ्यासियों में यह विचार बद्धमूल ही क्यों न रहा हो कि मंत्रों के ही तुल्य ब्राह्मण भाग का भी प्रमाण स्वीकार किया जाना चाहिए, किन्तु महर्षि दयानन्द अपनी सुचिन्तित विचार – सरणि के आधार पर यह स्पष्ट कर देते हैं कि मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग को एक ही स्तर पर नहीं रखा जा सकता। निश्चय ही ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के व्याख्यान होने से वेदार्थ के मुख्य सहायक ग्रन्थों की कोटि में तो अग्रणी स्थान रखते हैं, किन्तु मनुष्यबुद्धि रचित होने से उनका महत्त्व वेदों से न्यून ही होगा। इस प्रकार वेद संज्ञा का पुनर्निर्धारण कर महर्षि दयानन्द ने वैदिक अध्ययन को एक नवीन दिशा प्रदान की।

जब हम यह मान लेते हैं कि वेदों का प्रणयन या वेद ज्ञान का प्रकाश मानव जाति के व्यापक हित की दृष्टि से किसी अद्वितीय सत्ता ने किया है, तो इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकार भी मनुष्य मात्र को स्वतः ही मिल जाता है। यह एक विडम्बना ही थी कि जिस वेद ज्ञान का दर्शन और प्रचार विभिन्न वर्गों, वर्णों, लिंगों तथा श्रेणियों के लोगों ने किया तथा मंत्रों में निहित शिक्षाओं को मनुष्य मात्र के लिये हितकारी माना गया, उसी वेद के अध्ययन, चिन्तन तथा मनन पर मध्यकाल की प्रतिगामी शक्तियों ने नाना प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये। वेदाध्ययन का क्षेत्र द्विजों तक सीमित रह गया। शूद्र तथा स्त्रियों का उसमें कोई अधिकार ही नहीं रहा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि वेदाध्ययन पर इस प्रकार के प्रतिबंध मध्यकाल के उसी तमासाच्छन्न युग में लगाये गये थे, जबकि वेदों को वर्ग विशेष की सम्पत्ति समझा गया तथा अन्य वर्ग या वर्ण के लोगों को उससे वंचित कर दिया गया। महर्षि दयानन्द जैसे उदारभावापन्न एवं मनुष्य मात्र की एकता में विश्वास रखने वाले महापुरुष के लिये तो यह स्वाभाविक ही था कि वे वेदाध्ययन पर लगे इन प्रतिबंधों का डटकर विरोध करते तथा इस दैवप्रदत्त कल्याणी वाणी के अवरुद्ध प्रवाह को लोकहित की दृष्टि से खोल देते।

महर्षि दयानन्द के वेद विषयक मौलिक चिन्तन को अनेकशः विवेचित किया जा सकता है। डा. रघुवंश के शब्दों में यदि वेद ज्ञान के भण्डार हैं, अन्य दर्शनों के लिये तथा भारत के महान् चिन्तकों के लिये प्रामाण्य हैं, ऋषियों और द्रष्टाओं के द्वारा उनके मंत्रों का साक्षात्कार किया गया है, तो उनके मंत्रों का सुसंगत अर्थ होना चाहिए, उनकी अर्थ और भाव की व्यञजनाओं में ज्ञान, अनुभव और मूल्यों की श्रेष्ठ तथा उच्चतम भूमियाँ लक्षित होनी चाहिएं।इस प्रकार महर्षि दयानन्द ने वेदों में निहित उच्चतर नैतिक, आध्यात्मिक मूल्यों, दार्शनिक तत्त्वों, सामाजिक हित की दृष्टि से विहित विधानों तथा वैज्ञानिक तत्त्वों की विवचेना से युक्त रहस्यों का स्वयं भी दर्शन किया तथा इस दिव्य ज्ञान के महनीय एवं उदात्त प्रतिपाद्य से मानव जाति को परिचित कराया।

महर्षि दयानन्द से पूर्व का वैदिक चिन्तन कितना रूढ़िबद्ध, जड़ तथा विवेक-बुद्धि रहित हो गया था, इसके विषय में तो इतना लिख देना ही पर्याप्त होगा कि यों तो मध्यकालीन सभी दार्शनिकों, मीमांसकों तथा धर्माचार्यों ने वेद के नित्यत्व, ईश्वरकर्तृत्त्व तथा उसके सर्वोपरि प्रामाण्य की स्थापना में अपनी सूक्ष्मतम बौद्धिक शक्तियों को लगा दिया था, परन्तु जिन वेदों की प्रामाणिकता का वे इतनी दृढ़ता से समर्थन कर रहे हैं, स्वयं उन वेदों में क्या कुछ लिखा है, पाठक समुदाय के लिये उनका क्या उपयोग है, इससे वे नितान्त अनभिज्ञ ही रहे। महर्षि दयानन्द के वेद विषयक मन्तव्यों की सर्वोपरि विशेषता यही है कि वे उन्हें न केवल सत्य विद्याओं का ग्रन्थ ही घोषित करते हैं, अपितु उनका अध्ययन, अध्यापन, पठन पाठन एवं मनन, चिन्तन मानव जाति के लिये नितान्त उपयोगी तथा आवश्यक घोषित करते हैं। महर्षि दयानन्द के काल में पश्चिमी विद्वानों का ध्यान वेदों की ओर आकृष्ट हो चुका था। अनेक यूरोपीय विद्वान् वेदों के अध्ययन, वेद विषयक ग्रन्थों के लेखन, वेदों के पाठसम्पादन आदि कार्यों में लगे हुए थे। यद्यपि दयाल किसी भी यूरोपीय भाषा की अभिज्ञता नहीं रखते थे, तथापि वे येन केन प्रकारेण वेदाभ्यास की इस पाश्चात्य प्रणाली से अपने को परिचित रख रहे थे। तुलनात्मक भाषा विज्ञान, समाजशास्त्र तथा देवगाथावाद के आधार पर पश्चिमी वेदज्ञों का वेदाध्ययन विषयक यह प्रयास चाहे उनके विद्याव्यासंग को कितना ही सूचित करे, यह भी स्पष्ट है कि इन नवीन प्रणालियों से वेद के हार्द को समझना उनके लिये सम्भव न था। महर्षि दयानन्द ने पाश्चात्य विद्वानों के वेदविषयक कार्यों का मूल्यांकन कर यह सुविचारित निर्णय दिया कि इन वेदज्ञों का वेदाध्ययन तो अभी प्रारम्भिक स्थिति में ही है। प्राचीन ऋषि मुनियों ने अपने सहजज्ञान तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा के बल पर वेदमहोदधि का मन्थन कर जिन रत्नों को अनायास प्राप्त कर लिया था, उन्हें प्राप्त करने में तो इन्हें बहुत समय लगेगा।

यह तो सत्य है कि अनेक कारणों से महर्षि दयानन्द द्वारा अन्वेषित वेदार्थ पद्धति को यथोचित मान्यता तथा आदर प्राप्त नहीं हुआ। इसमें जहां पश्चिमी वेदविदों द्वारा आविष्कृत वेदार्थ की प्रणालियों का अंधानुकरण करने वाले भारतीय विद्वानों का पूर्वाग्रहयुक्त दृष्टिकोण एक बड़ा कारण रहा, वहाँ यह भी स्वीकार करना होगा कि भारत के वेदाभ्यासियों का दल भी परम्परागत याज्ञिक शैली की मूढ कारा से अपने को मुक्त नहीं कर सका है। फलतः महर्षि दयानन्दकृत वेदार्थ को अपेक्षित प्रशस्ति प्राप्त नहीं हुई। तथापि यह निश्चित है कि वेदार्थ को स्पष्ट करने में महर्षि दयानन्द ने जिस दिशा का संकेत किया है, अन्ततः उस और आये बिना हम संसार के इस प्राचीनतम वाङ्मय के अभिप्राय को भलीभांति हृदयंगम नहीं कर सकेंगे।

धार्मिक विषयों के ऊहापोह में भारतीय परम्परा शास्त्रीय प्रामाण्य को सर्वाधिक महत्त्व देती है। इसका कारण प्राचीन ग्रन्थों में मात्र विश्वासभाव ही नहीं है, किन्तु हमारी यह मान्यता है कि जिन परावरज्ञ ऋषियों ने इन ग्रन्थों का निर्माण किया था, वे महामेधा सम्पन्न, विमल ज्ञान के भण्डार तथा लोकहित को दृष्टि पथ में रखकर शास्त्र रचना करने वाले व्यक्ति थे। कालान्तर में एक ऐसा युग आया जबकि सामान्य बुद्धि के लोगों ने शास्त्र-प्रणेता कहलाने की इच्छा से अनेक ग्रन्थों की रचना कर डाली। परवर्ती युग के इस ग्रन्थ समुदाय में कहीं भी वैचारिक निर्मलता, शैली की उदात्तता तथा दृष्टिकोण की विशदता के दर्शन नहीं होते। इसके विपरीत इन ग्रन्थों में मनुष्य के चिन्तन की जड़ता, उसकी गतानुगतिकदृष्टि तथा प्रगतिशील शक्तियों को अवरुद्ध करने का मनोभाव ही प्रकट होता है। शताब्दियों के पश्चात् शास्त्र नाम से अभिहित किये जाने वाले ग्रन्थों की प्रामाणिकता तथा उनकी गुणवत्ता का निर्धारण करने का अवसर उस समय आया जबकि मथुरा की संस्कृत पाठशाला में व्याकरण का शिक्षण करने वाले एक प्रज्ञाचक्षु संन्यासी दण्डी विरजानन्द ने यह स्पष्ट किया कि अब समय आ गया है जबकि हमें आर्ष एवं अनार्ष शास्त्रों में भेद करना होगा और अनार्ष ग्रन्थ जाल से मुक्ति पानी होगी। विरजानन्द ने आर्ष और अनार्ष ग्रन्थों में विवेक करने के अनेक सूत्र प्रस्तुत किये थे, परन्तु उनकी एतद् विषयक सर्वोपरि स्थापना यही थी कि आर्ष ग्रन्थों में जहाँ सार्वभौम भाव परिलक्षित होते हैं वहाँ अनार्ष ग्रन्थ साम्प्रदायिक विद्वेष एवं मताग्रह की संकीर्णता से युक्त होते हैं।

स्वामी विरजानन्द के आर्षग्रन्थप्रमाणवाद से इसी सूत्र को लेकर महर्षि दयानन्द ने अपना स्पष्ट मत व्यक्त किया कि धर्म, अध्यात्म, दर्शन, कर्मकाण्ड – प्रत्येक क्षेत्र में आर्ष ग्रन्थों को ही मान्यता देनी होगी, क्योंकि यही वे ग्रन्थ हैं जो सब प्रकार के साम्प्रदायिक भावों से सर्वथा असंपृक्त, मानव के व्यापक हित की दृष्टि से युक्त तथा मनुष्य के विवेक तथा बुद्धिवाद को जागृत करने वाले हैं, जबकि अनार्ष ग्रन्थों की रचना तो मनुष्य की चिन्तन-शक्ति को कुण्ठित करती है तथा उसे मानसिक जड़ता, प्रतिगामिता तथा रूढ़िवादिता का शिकार बनाती है। देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के शब्दों में विगत पांच हजार वर्षों की अवधि में इस आर्यभूमि में अनेक आचार्यों का प्रादुर्भाव हुआ, परन्तु उनमें कोई भी ऋषि महर्षि प्रवर्तित ज्ञान के पुरुद्धार में अपना योगदान नहीं कर सका। शंकर, रामानुज एवं मध्व आदि ने जितना परिश्रम अपने अपने सम्प्रदायों के संगठन में किया उतना आर्ष ज्ञान के पुनरुद्धार में नहीं।” यह श्रेय महर्षि दयानन्द को ही जाता है कि संस्कृत भाषा में निबद्ध तथा शास्त्र नाम से प्रसिद्ध विशाल ग्रन्थ समुदाय की सम्यक् परीक्षा के अनन्तर उन्होंने यह स्पष्ट घोषणा की अब समय आ गया है जबकि बाबा वाक्य प्रमाणको छोड़ कर हमें आर्ष एवं अनार्ष का विवेक करना होगा तथा यह देखना होगा कि वे ग्रन्थ कौन से हैं जो हमें उन्नतिगामी बनाते हैं, जो हमारी बुद्धि एवं विचारशक्ति का विकास करते हैं, हमारी मनोवृत्तियों को निर्मल एवं पवित्र बनाते हैं तथा हमें अभ्युदय एवं निश्रेयस के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे ही ग्रन्थ हमारे लिये पठनीय एवं विचारणीय हैं। संस्कृत भाषा में लिखे होने मात्र से ही कोई ग्रन्थ प्रामाण्य कोटि में नहीं आ जाता।

वेदप्रामाण्य और आर्ष ग्रन्थों की वरीयता का सिद्धान्त स्वीकार कर लेने के पश्चात् महर्षि दयानन्द के लिये यह अत्यन्त सहज हो गया था कि धर्म के नाम पर प्रचलित उन सहस्रों मिथ्या रूढ़ियों, जटिल कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों तथा मूढ़ धारणाओं का वह प्रबल प्रतिवाद करता, जो वैदिक धर्म में स्वीकृत उच्च आध्यात्मिक विश्वासों, उदात्त उपासना पद्धतियों तथा प्राणिमात्र के हित के लिये प्रवर्तित क्रियाकाण्डों के स्थान पर प्रचलित हो गये थे। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, प्रतीकोपासना, तीर्थयात्रा, व्रत, उपवास, मृतक श्राद्ध आदि शतशः ऐसी धार्मिक रूढ़ियां थीं जो जनसमाज के धार्मिक विश्वासों का रूप धारण कर चुकी थी। महर्षि दयानन्द ने स्पष्ट अनुभव किया था कि बृहत्तर हिन्दूधर्म तथा समाज के सर्वतोमुखी पतन का प्रमुख कारण यही है कि वह वैदिक तथा औपनिषदिक उपासना पद्धति को विस्मृत कर चुका है तथा मानव को ऊर्ध्वमुखी बनाने वाली पातञ्जल योग वर्णित साधना प्रणाली के स्थान पर प्रस्तर, धातु, वृक्ष, पर्वत, नदी, जल आदि जड़ पदार्थों को ही पराशक्ति या उसके प्रतीक समझ बैठा है तथा इन स्थूल पदार्थों के आगे माथा रगड़ते रगड़ते उसका चित्त भी नितान्त जड़ तथा स्थूल हो गया है।

भारतवासियों के सार्वत्रिक अधःपतन के लिये महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा को समग्र रूप से उत्तरदायी ठहराया था। देवेन्द्रनाथ के शब्दों में हिन्दुओं के चरित्र में जो अमानवीयता, पशुत्व तथा नीच प्रवृत्तियां संचरित हुई हैं, उनका एकमात्र कारण मूर्तिपूजा ही है।” मूर्तिपूजा के मूल में अवतारवाद की अवधारणा कार्यरत थी, जिसके अनुसार सच्चिदानन्दादि लक्ष्णान्वित ब्रह्म भी मानव देहधारण करता है। महर्षि दयानन्द के प्रसिद्ध जीवनचरित लेखक देवेन्द्रनाथ मुखोपध्याय ने अवतार की मान्यता को अत्यन्त निन्दास्पद तथा गर्हित बताते हुए लिखा था – “जिस परमात्मा का वेदादिशास्त्रों में अकाय, अव्रण, अशब्द, अस्पर्श्य आदि शब्दों से कीर्तन किया गया है, उस परमात्मा में हिन्दू काम, क्रोध, भय, क्षुधा, तृष्णा, व्याधि, आलस्य, निद्रा, विपत्, पुत्रोत्पादन, विद्वेष, हिंसा, स्वजन द्रोह, परस्त्री गमन प्रभृति का आरोप करने में अणु मात्र भी संकोच और पाप बोध नहीं करते।”

अन्ततः अत्यन्त भावना प्रवण शैली में मुखोपाध्याय महाशय ने मूर्तिपूजा को ही भारतीय धर्म को विकृत करने के लिये उत्तरदायी ठहराया है। उनके अनुसार, “जो धर्म सम्पूर्ण रूप से आन्तरिक वा आध्यात्मिक था, उसे पूर्णतया स्थूल और बाह्य किसने बनाया? कामादि शत्रुओं के दमन और वैराग्य साधन के बदले तिलक और त्रिपुण्ड्र धारण को ही मोक्ष का साधन किसने बताया ? ईश्वर भक्ति और परमेश्वर प्रीति, परोपकार, और स्वार्थ त्याग के बदले अंग में गोपीचंदन का लेपन, मुख से गंगालहरी का उच्चारण, कण्ठ में अनेक प्रकार की मालाओं के धारणा को ही परा साधना किसने बताया ? संयम, शुद्धता, चित्त की एकाग्रता आदि के स्थान पर केवल दिन विशेष पर खाद्य विशेष का सेवन न करना आदि स्थूल रीतियां किसने प्रचलित की? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है मूर्तिपूजा समग्र दृष्टि से देखें तो हिन्दुओं के मनोबल, पराक्रम, उदारता, साहस, प्रेम, संवेदना, परदुःखानुभूति जैसे श्रेष्ठ गुणों के बदले उनमें घोर स्वार्थपरता का संचार कराने में भी मूर्तिपूजा ही कारण रही है।”

यहाँ एक बात और ध्यान देने की है। महर्षि दयानन्द ने असत्य, अधर्म और अन्याय से समझौता करना सीखा ही नहीं था। हम यह देखते हैं कि स्वामी महर्षि दयानन्द के ही समकालीन एवं समानधर्मा अनेक सुधारकों ने मूर्तिपूजा का प्रबल प्रतिवाद करते हुए भी समय आने पर उससे समझौता करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। राममोहनराय के समान प्रतिमा पूजन का सक्रिय विरोधी महर्षि दयानन्द के पूर्ववर्ती काल में नहीं हुआ। किन्तु राय महाशय भी प्रकारान्तर से यह स्वीकार कर लेते हैं कि शास्त्रों ने जड़ पदार्थों की पूजा उन व्यक्तियों के लिये बताई है, जो अत्यन्त सूक्ष्म निराकार परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकते। केशवचन्द्र सेन तो रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में आकर ब्रह्मसमाज में अनेक ऐसे विधानों को स्वीकृति दे चुके थे जो पौत्तलिक उपासना के ही प्रतीक माने जा सकते हैं। जब धार्मिक सुधारकों ने ही मूर्तिपूजा से किसी न किसी रूप में समझौता कर लिया तो रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानन्द आदि हिन्दू धर्म के उन नवीन व्याख्याकारों के बारे में तो कहना ही व्यर्थ है जो डंके की चोट प्रत्येक धार्मिक अंधविश्वास तथा प्रचलित परम्पराओं का समर्थन करते थे। परन्तु महर्षि दयानन्द ने ऐसे किसी मत-विश्वास से कभी समझौता नहीं किया और न उसकी अनावश्यक श्लाघा ही की, जो मानव विवेक को कुण्ठित करने वाला तथा उसकी विचार-शक्ति को उन्मूलित करने वाला। इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर महर्षि दयानन्द की विचारधारा के मार्मिक व्याख्याता देवेन्द्रनाथ लिखते हैं- भारत के आचार्यों की मानो यह अपरिहार्य नीति रही है कि वह मूर्तिपूजा तथा अद्वैतवाद के साथ किसी न किसी प्रकार से मित्रता स्थापित कर लें।” परन्तु महर्षि दयानन्द उसके अपवाद थे। वे स्वयं मूर्तिपूजा के घोर शत्रु रह कर आजन्म उसका प्रबल प्रतिरोध करते रहे। जो लोग अनेक आपातरमणीय युक्तियाँ देकर तथा आलंकारिक व्याख्यायें प्रस्तुत कर मूर्तिपूजा का कथांचित समर्थन करते हैं, वे उससे उत्पन्न होने वाले भयंकर परिणामों को न तो जानते ही हैं और न जानने की चेष्टा करते हैं।

महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व, चरित्र तथा उनके विचारों को यथार्थ रूप में समझा ही नहीं गया। उनके द्वारा किये गये मूर्तिपूजादि मिथ्या विश्वासों के प्रबल खण्डन को लक्ष्य में रखकर प्रायः लोग उन्हें संकुचित दृष्टि युक्त, अनुदारभावापत्र, अन्य सम्प्रदायों के प्रति द्वेष बुद्धि रखने जैसे लांछन भी लगा बैठते हैं। निश्चय ही महर्षि दयानन्द ने जिसे असत्य समझा, जिसे अन्याययुक्त माना तथा जिसे अधर्म कहा, उसका तीव्र खण्डन करने में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। परन्तु उनका यह खण्डन-कुठार उसी वस्तु या विचार पर गिरता था, जो मानव जाति के लिये अहितकारक, उसकी एकता का विनाशक तथा उसे पतन की ओर ले जाने वाला होता था। खेद है कि खण्डन-मण्डन में प्रयुक्त महर्षि दयानन्द की तथ्य पूर्ण, साथ ही बिना किसी लाग लपेट वाली भाषा के अभिप्राय को न समझ कर उन्हें कटुभाषी, खण्डनपटु आदि न जाने क्या क्या कह दिया जाता है। अतः यह आवश्यक है कि खण्डन-मण्डन की प्रयोजनीयता को उन्हीं के शब्दों में स्पष्ट किया जाय।

अपने विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की भूमिका तथा इसके उत्तरार्द्ध के प्रत्येक अध्याय के प्रारम्भ में लिखी गई अनुभूमिकाओं में महर्षि दयानन्द ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनका मुख्य प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् “जो जो सब मतों में सत्य बातें हैं, वे वे सब में अविरुद्ध होने से, उनका स्वीकार करके, जो जो मतमतान्तरों में मिथ्या बातें हैं उन उनका खण्डन किया है।वस्तुतः महर्षि दयानन्द की दृष्टि में धर्म तो एक ही है। ऐसा धर्म, जो वस्तु का स्वभाव होने के कारण सर्वथा अखण्डनीय होता है। अतः सच्चे धर्म का तो खण्डन हो ही नही सकता। महर्षि दयानन्द ने तो विभिन्न सम्प्रदायों में प्रचलित अंधविश्वासों, युक्ति, तर्क एवं विज्ञान से विरुद्ध उन मिथ्या धारणाओं का ही खण्डन किया है, जो मत-सम्प्रदायों के अनुयागियों में पारस्परिक द्वेष एवं फूट का संचार करती हैं। अतः महर्षि दयानन्द को अन्य मतों के प्रति असिहष्णु कहना अन्याय पूर्ण है। महर्षि दयानन्द ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे प्रथम दृष्टि में ही किसी सम्प्रदाय विशेष के ग्रन्थ को आलोचना की दृष्टि से नहीं देखते, अपितु उसके गुण दोषों का सम्यक् विवेचन करने के पश्चात् ही उसके सम्बन्ध में अपनी धारणा बनाते हैं। सम्प्रदायों में पाये जाने वाले दोषों को प्रकाशित करने का उनका लक्ष्य भी यही था कि लोग सत्य एवं असत्य का निर्णय करें ताकि सचाई को ग्रहण करने तथा मिथ्या को त्यागने का वे सामर्थ्य प्राप्त कर सकें। इसी अभिप्राय को उन्होंने अन्यत्र भी व्यक्त किया है।

महर्षि दयानन्द द्वारा किये गये खण्डन- मण्डन के पीछे उनके दृष्टिकोण की विवेचना के प्रसंग में डा. रघुवंश को पुनः उद्धृत करता अनुचित नहीं होगा। उनके शब्दों में, “स्वामी महर्षि दयानन्द ने सत्य धर्म एक ही माना है और उनकी दृष्टि में धर्म वही हो सकता है जो श्रेष्ठ मानव मूल्यों की रचनात्मक प्रक्रिया को गतिशील रखने में सक्षम हो सके। बाद के समन्वयवादियों और अन्तर्राष्ट्रीयतावादियों ने महर्षि दयानन्द को कट्टरपन्थी और खण्डन – मण्डन करने वाले सुधारक के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि उनके जैसा उदार मानवतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है।”

महर्षि दयानन्द से एक शिकायत ईसाई तथा मुसलमान वर्ग के उन लोगों को भी रही जो उनके खण्डन- मण्डन के पीछे निहित भाव को समझने में असमर्थ रहे थे। उन्होंने यह समझने का यत्न नहीं किया कि महर्षि दयानन्द का सबसे अधिक विरोध तो धर्म के नाम पर व्यवसाय करने वाले पण्डे-पुजारियों, महन्तों और मठाधीशों से था। महर्षि दयानन्द ने यदि इस्लाम और ईसाइयत की आलोचना की, तो इसलिये नहीं कि वे उन्हें भारत से इतर देशों में उत्पन्न सेमेटिक विचारधारा का वाहक समझते थे, अपितु उनकी आलोचना के लक्ष्य तो इन सम्प्रदायों में विद्यमान असत्य, अंधविश्वास तथ मूढ़ धारणायें ही रहीं।

एक बात और भी थी। महर्षि दयानन्द जानते थे कि इस्लाम और ईसाइयत के प्रचारकगण हिन्दू धर्म में प्रचलित रूढ़ियों, अंधविश्वासों तथा अनेक मूर्खतापूर्ण विधि विधानों की ओट में पिछड़े वर्ग के लोगों को मत परिवर्तन की प्रेरणा देते रहते हैं। उनका कहना था कि जो स्वयं कांच के घरों में निवास करते हैं, उन्हें दूसरों पर पत्थर फेंकने का क्या अधिकार है? इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर उन्होंने ईसाइयत एवं इस्लाम की तथ्यपूर्ण आलोचना की, मानो उन्हें सचेत कर दिया कि उनकी स्थिति भी हिन्दू धर्म के उन अनुयायियों से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं है, जो अपनी कमजोरियों के कारण पादरियों और मौलवियों की आलोचना के शिकार बनते हैं। उदारभावापत्र लोग, चाहे वे ईसाई थे या मुसलमान, स्वामी महर्षि दयानन्द के दृष्टिकोण की वास्तविकता को समझ कर सदा उनके प्रशंसक बने रहे। भारत में मुस्लिम नवजागरण के अग्रदूत सैयद अहमद खां, अजमेर से प्रकाशित होने वाले राजपूताना गजट के सम्पादक मुन्शी मुरादअली जैसे व्यापक दृष्टिकोण के मुसलमान तथा बरेली के पादरी डा. स्कॉट जैसे विचारशील ईसाई धर्मयाजक, महर्षि दयानन्द के मित्र, प्रशंसक तथा भक्त कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे। यह दूसरी बात है। कि कालान्तर में भारत में ही कुछ ऐसी राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियां उत्पन्न हो गईं, जिनके कारण स्वामी महर्षि दयानन्द द्वारा प्रवर्तित आर्यसमाज ईसाईयों तथा मुसलमानों से बहुत अधिक मधुर सम्बन्ध नहीं रख सका, किन्तु उनका यहाँ विचार करना अप्रासंगिक है।

महर्षि दयानन्द को समाज सुधारक, धर्माचार्य तथा राष्ट्र निर्माता युग पुरुष के रूप में तो प्रायः स्मरण किया जाता रहा है, किन्तु उनके दार्शनिक विचारों का बहुत कम ऊहापोह हुआ है। एतद्विषयक भ्रम यहाँ तक फैल गया कि अनेक अहम्मन्य प्रकृति के लोगों ने तो महर्षि दयानन्द में दार्शनिकता का नितान्त अभाव ही घोषित कर दिया तथा उनके द्वारा प्रकट किये गये दार्शनिक विचारों को अतिसामान्य, छिछला तथा अनतिगम्भीर कहने का प्रयास किया। तथ्य यह है कि महर्षि दयानन्द के सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व के पीछे एक अत्यन्त स्पष्ट, सुविचारित तथा सतर्क चिन्ताधारा कार्य कर रही थी। यदि दयानन्द दर्शन में वैसी यथार्थवादिता, गहराई तथा स्पष्टता नहीं होती, तो इसमें सन्देह ही है कि वे अपने विचारों को जनसामान्य तक पहुँचा पाते तथा बहुसंख्यक समाज उनका अनुयायी बन जाता।

महर्षि दयानन्द ने विश्व प्रपंच की व्याख्या यथार्थवादी दृष्टि से की है। उनका दर्शन जीवेश्वर के भेद तथा प्रकृति की अनादिता के सिद्धान्त पर आधारित है। इस दृष्टि से वे शांकर वेदान्त के प्रखर आलोचक भी हैं। उनकी दार्शनिक विचाराधारा जहाँ वैदिक एवं औपनिषदिक दार्शनिक चिन्तन पर पूर्णतया आधारित है, वहाँ प्रबल युक्तियों एवं प्रमाणों से उसे परिपुष्ट भी किया गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि वे उपनिषदों के उन वाक्यों की अनदेखी कर जाते हैं जो एकाधिक बार अद्वैतवाद का समर्थन करते हुए से प्रतीत होते हैं। वे ऐसे वाक्यों की संगति स्वतन्त्र रूप से लगाते हैं और उनका कहना है कि यदि प्रसंगानुसार ऐसे अभेदपरक प्रतीत होने वाले उपनिषद् वचनों का सम्यक् विचार किया जाय, तो उनसे शांकर सिद्धान्त को पुष्ट करना असम्भव ही हो जायेगा।

महर्षि दयानन्द का शंकर पर स्पष्ट आरोप है कि उसने न केवल उपनिषदों की, अपितु वेदान्त सूत्रों की भी व्याख्या स्वाभिमत के अनुकूल की है, और ऐसा करते समय वह यह विस्मृत कर जाते हैं कि सूत्रकार ऋषि का आशय निश्चय ही वह नहीं है, जो उनकी व्याख्या में लिखा जा रहा है। आचार्य शंकर पर वैयासिक सूत्रों के अर्थों में खींचतान का आरोप महर्षि दयानन्द ने ही लगाया था, ऐसी बात नहीं है। पुनर्जागरण के ही एक अन्य कर्णधार तथा अपने आपको महान् वेदान्ती कहने वाले स्वामी विवेकानन्द ने इस सम्बन्ध में लिखा था – “शंकर अद्वैतवादी थे, इसलिये उन्होंने सभी सूत्रों की केवल अद्वैतमत में व्याख्या करने की चेष्टा की है।” उन्होंने तो एक व्याख्यान में यहाँ तक कह दिया था कि शंकराचार्य जैसे बड़े बड़े भाष्यकारों ने अपने मत की पुष्टि के लिये जगह जगह पर शास्त्रों का ऐसा अर्थ किया है, जो मेरे विचार में समीचीन नहीं है।” महर्षि दयानन्द ने भी लगभग ऐसा ही कहा है।

परन्तु बात केवल अद्वैतवाद के दार्शनिक पक्ष या सैद्धान्तिक पहलू की ही नहीं थी। महर्षि दयानन्द तो व्यवहारवादी, यथार्थ दृष्टिसम्पन्न दार्शनिक थे। उन्होंने यह स्पष्ट अनुभव किया था कि शांकर अद्वैतवाद और मायावाद ने देशवासियों को कर्मशील जीवन से विरत कर उन्हें स्वप्नलोकवासी, परलोक चिन्तन करने वाले, मात्र मोक्षकामी बना दिया है। समाज और राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को सर्वथा विस्मृत कर अहं ब्रह्मास्मिऔर तत्त्वमसिके तथाकथित महावाक्यों की मीमांसा करने वालों ने दर्शन जगत् में ख्याति के चाहे जैसे झण्डे गाड़ दिये हों, किन्तु उनसे देश तथा समाज का हित तो कदापि नहीं हुआ। जन सेवा, लोकहित के लिये स्वार्थ त्याग, देश और जाति के व्यापक कल्याण की सिद्धि के लिये समर्पण भाव आदि के उदात्त तत्त्व उन वेदान्तवादियों में यदा कदा ही दिखाई पड़ते हैं। अतः यदि हमें अपने जीवन को जड़, निष्क्रिय तथा पलायनोन्मुख नहीं बनाना है तो वेदान्त की मोहमयी मदिरा का त्याग करना ही होगा, यह महर्षि दयानन्द की पक्की धारणा थी।

इस प्रकार शांकर मत का सर्वभावेन निरसन करने के पश्चात् महर्षि दयानन्द ने जीवेश्वर भेदवाद के पोषक द्वैत सिद्धान्त (अथवा जीव, ईश्वर एवं प्रकृति की त्रिविध अनादि सत्ताओं को स्वीकार करने वाले त्रैतवाद) की स्थापना की। उन्होंने जीवेश्वर सम्बन्धों की विवेचना करते हुए इनमें परस्पर उपास्य उपासक, राजा-प्रजा, गुरु-शिष्य, मित्र-मित्र तथा सेव्य-सेवक भावों को स्वीकार किया।

भारत के दार्शनिक चिन्तन को महर्षि दयानन्द की एक अन्य महत्त्वपूर्ण देन उनके आर्षग्रन्थप्रामाण्य के सिद्धान्त से ही अनुस्यूत हुई है। वे यह मानते हैं कि न्याय-वैशेषिक, सांख्य योग तथा वेदान्त एवं मीमांसा छहों वैदिक दर्शन एक दूसरे के विरोधी न होकर एक दूसरे के पूरक है। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में, दो प्रसंगों में षड्दर्शन समन्वय का उल्लेख किया है तथा एतद्विषयक चर्चा को सूत्र रूप में उठाया है। यदि उन्हें समय मिलता तो सम्भवतः वे सभी दर्शनों की समन्वयात्मक दृष्टि से व्याख्या करते तथा उनमें आपाततः दीखने वाले विरोधों का परिहार भी करते। दर्शन सूत्रों में सामंजस्य स्थापित करने का यह श्लाघनीय प्रयास उनके इसी मन्तव्य पर आधारित था कि सांख्यादि दर्शनों के प्रणेता कपिल आदि साक्षात्कृतधर्मा, जीवन एवं जगत् के रहस्यों को हस्तामलकवत् जानने वाले परावरज्ञ कोटि के ऋषि थे। अतः ऋषियों के कथन में कोई मौलिक मत भेद नहीं हो सकता, शैली भेद भले ही हो।

महर्षि दयानन्द का दर्शन जीव एवं ईश्वर के परस्पर भेद के विचार पर आधारित है। अतः मूलतः महर्षि दयानन्द ने जीव के लिये संसार के स्रष्टा एवं विधाता परमात्मा की प्रगतिपुरस्पर उपासना करने का ही विधान किया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि वैदिक साहित्य तथा विचारधारा में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति (उपासना) की त्रिपुटी को परस्पर विरोधी तत्त्वों के रूप में प्रस्तुत न कर एक दूसरे के पूरक के रूप में विवेचित किया गया है। यह एक विडम्बना ही थी कि कालान्तर में शंकराचार्य जैसे ज्ञान मार्गी दार्शनिकों ने ज्ञान और कर्म में 36 का सम्बन्ध ठहराया और इन्हें परस्पर विरोधी घोषित किया। इसी की प्रतिक्रिया वैष्णव सम्प्रदायों के आचार्यों में हुई जिन्होंने ज्ञान एवं कर्म का आत्यन्तिक बहिष्कार कर मात्र भक्ति को ही कलि काल में परमात्मा की प्राप्ति का एकमेव साधन बताया। और यह मध्यकालीन भक्ति भी कैसी थी ? जो सामाजिक दायित्वों तथा सामाजिक संदर्भों से व्यक्ति को सर्वथा विच्छिन्न कर एक ऐसी आवेशपूर्ण स्थिति में ले आती थी, जिसके वशवर्ती होकर मनुष्य अपने सभी सांसारिक इतिकर्त्तव्यों से मुँह मोड़ लेता।

महर्षि दयानन्द ने वैष्णवों की इस आवेशमयी भक्ति का डट कर विरोध किया जो केवल एक बार के नाम स्मरण मात्र से अथवा तुलसी दल समर्पित कर देने मात्र से ही जीव के लिये मोक्ष का द्वार खोल देने का दावा करती थी, चाहे भक्त का वैयक्तिक जीवन कैसा ही अपराधपूर्ण क्यों न हो तथा उसके कर्म कितने ही दोषों से भरे क्यों न हों? देवता की प्रतिमा के समक्ष एक पुष्प समर्पित कर देने, गंगादि तीर्थों में एक बार गोता लगा लेने अथवा गलत सही किसी भी तरीके से नारायण के नाम का एक बार उच्चारण कर लेने से ही मनुष्य भवपार्थो से मुक्त होकर परमात्मा के परम धाम का अधिकारी हो जाता है, ऐसे भावों एवं आस्थाओं ने भारतवासियों की पुरुषार्थ वृत्ति को कुण्ठित कर उन्हें देववादी, प्रारब्धवादी, अकर्मण्य, एवं पलायनवादी बना दिया है, यह महर्षि दयानन्द का सुदृढ़ विश्वास था।

तथापि इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना अनुचित होगा कि महर्षि दयानन्द एक शुष्क विचारक एवं तार्किक तथा वेदाभ्यास जड़मतिमीमांसक का व्यक्तित्व लेकर देश के सार्वजनिक जीवन के मंच पर अवतरित हुए थे। स्वयं के अनुसार उन्होंने सार्वजनिक जीवन को सर्वतोमुखी उन्नत बनाने का जो महत् अनुष्ठान आरम्भ किया था, वह प्रबल ईश्वर विश्वास के बल पर ही किया था। महर्षि दयानन्द परमसत्ता के अनन्य उपासक हैं। वे समर्पणशील भावना लेकर जगन्नाटक सूत्रधार के सम्मुख आने वाले एक विनम्र सेवक हैं, जिन्होंने अत्यन्त भावप्रवण होकर अपने आराध्य देव से कहा था- “आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते।वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द का यह भक्ति सिद्धान्त आर्याभिविनय में संगृहीत विभिन्न मन्त्रों की व्याख्याओं में पदे पदे प्रकट हो रहा है।

अपने ग्रन्थों में यत्र तत्र उपासना की चर्चा करते हुए महर्षि दयानन्द ने योगसाधना पर अत्यधिक बल दिया है। चाहे हम सत्यार्थप्रकाश वर्णित उपासना प्रकरण को लें अथवा ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका में विवेचित उपासना ने विषयको देखें, हमें सर्वत्र योगांगों का विवेचन ही मिलेगा। महर्षि दयानन्द ने स्वयं पातंजलयोग पद्धति का अनुसरण कर समाधि अवस्था का साक्षात्कार किया था। यम-नियमादि की व्यवस्थित साधना के अनन्तर वे योग के विभिन्न सोपानों पर चढ़ते हुए निर्विकल्पक समाधि की स्थिति को प्राप्त कर पाये थे। परन्तु मध्य युग में योग के नाम पर जैसी अटपटी एवं भ्रष्ट साधनायें चल पड़ी थीं, महर्षि दयानन्द का उनसे स्पष्ट वैमत्य था। वे न तो हठयोग की उन साधनाओं के पक्षपोषक थे, जो केवल शारीरिक क्रियाओं को ही महत्त्व देती हैं और न वे योग के नाम पर नाना गुह्य एवं रहस्यपूर्ण बातों को ही प्रश्रय देना चाहते थे। यही कारण था कि थियोसोफिकल सोसाइटी के नेता द्वय से उनकी पटरी अधिक काल तक नहीं बैठ सकी, जो योग के नाम पर नाना चमत्कारपूर्ण क्रियाओं, विचित्र साधना पद्धतियों एवं अनेक रहस्यपूर्ण अलौकिक विधाओं को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। उपासना, धर्म, अध्यात्म एवं दर्शन के क्षेत्र में महर्षि दयानन्द की सर्वोपरि देन तो यही है कि वे 125 पुरातन विश्वासों, धारणाओं तथा पद्धतियों से केवल इसीलिये चिपटे रहने का उपदेश नहीं देते कि ये प्राचीन हैं, अतः हमारे लिये मान्य तथा आचरणीय हैं। वे मनुष्य के विवेक को जागृत करना चाहते हैं। जिन वेदों को सर्वोपरि प्रमाण मानने के लिये उन्हें प्रायः दोषी ठहराया जाता है, उन वेदों के प्रति भी वे मानव जाति का विश्वास इसीलिये जगाना चाहते हैं, क्योंकि महर्षि दयानन्द वेदों को पूर्णतया बुद्धिसंगत, तर्कयुक्त एवं सृष्टि रचना के शाश्वत नियमों के सर्वथा अनुकूल मानते हैं। महर्षि दयानन्द की मानव जाति को यदि कोई एक मात्र महत्त्वपूर्ण देन है, तो वह यही है कि वे मनुष्य को अपनी बुद्धि, विवेक-शक्ति तथा चिन्तन प्रणाली का प्रयोग करने के लिये कहते हैं। किसी बात को केवल इसीलिये मान लेने के लिये नहीं कहते कि वह हमारे शास्त्रकारों का आदेश है, पूर्वजों की प्रणाली है अथवा महाजनों से समर्थित आप्त वाक्य है।

महर्षि दयानन्द जितने बड़े धर्म संशोधक, धर्म व्याख्याता अथवा धर्माचार्य हैं, एक समाज-शास्त्री, समाज-संस्कारक तथा सामाजिक नेता के रूप में उनका व्यक्तित्व भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यों तो वे उन्नीसवीं शती के उन समाज- सुधारकों की ही परम्परा में आते हैं, जिन्होंने बृहत्तर हिन्दू समाज में व्याप्त बुराइयों, मूर्खतापूर्ण रीतिरिवाज़ों तथा पुरातन सड़ी गली प्रथाओं के विरोध में आवाज उठाई थी, किन्तु महर्षि दयानन्द का यह सुधारक रूप भी एक उग्र क्रान्तिकारी, समाज को आमूलचल बदलने वाले युग प्रवर्त्तक तथा क्रान्तदर्शी की प्रभा से परिवेष्टित है। भारतीय समाज में व्याप्त नाना बुराइयों, विषमताओं, शोषण की प्रवृत्तियों तथा अत्याचार मूलक प्रथाओं को नष्ट करने के लिये महर्षि दयानन्द के प्रयासों का सर्वत्र, सब कालों में अभिनन्दन हुआ है। वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन को खोखला बनाने वाली भीषण प्रथाओं का उन्होंने जिस प्रकार डटकर विरोध किया था, यह सब आज इतिहासकार की विवेचनाओं में आ चुका है। अतः बालविवाह के उन्मूलन, विधवाओं की स्थिति को सुधारने, नारी को समाज में उच्चतर स्थिति प्रदान कराने, दलित एवं अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों को उनका अधिकार दिलाने, जन्मगत जाति प्रथा के दोषों की और जन समाज का ध्यान आकृष्ट करने आदि से सम्बन्धित उनके कार्यों का पुनः विचार करना पिष्टपेषण ही होगा। 

परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि महर्षि दयानन्द के तुरन्त पश्चात् ही हमारे देश में एक ऐसा चिन्तक वर्ग उत्पन्न हो गया था, जो न केवल सुधारवाद का विरोधी था, अपितु जो प्रत्येक प्राचीन प्रथा के औचित्य को सिद्ध करने तथा सर्वथा जर्जर, मृतप्राय एवं हानिकर रूढ़ियों की शब्दाडम्बरयुक्त एवं आलंकारिक व्याख्या प्रणाली का सहारा लेकर समर्थन भी करता था। इन लोगों ने सुधारक वर्ग के कार्यों का अवमूल्यन तो किया ही, उन पर अनेक प्रकार से छींटाकशी भी की। सम्भवतः वे सुधारकों द्वारा सामाजिक बुराइयों की कटु आलोचना से भी चिढ़ गये थे, परन्तु सुधारकों के इस प्रकार अग्निजिह हो जाने के कारणों की उन्होंने कभी मीमांसा नहीं की। यदि वे ऐसा करते, तो निश्चय ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते कि रूढियों और बुराइयों की समालोचना बिना किसी लाग लपेट के ही करनी होती है, तभी उसका अभीष्ट फल प्राप्त होता है। कोमल शब्दावली का प्रयोग कर हम शताब्दियों से किये जाने वाले उन निर्मम अत्याचारों को समाप्त नहीं करा सकते, जिनके कारण दीर्घकाल तक हमारी प्रगति अवरुद्ध होती रही है।

स्त्रियों, शूद्रों तथा अन्य दलित वर्गों के प्रति किये जाने वाले अमानवीय अत्याचारों को देखकर महर्षि दयानन्द का हृदय तो द्रवित हुआ ही था, उनकी आत्मा भी चीत्कार कर उठी थी। जब वे शताब्दियों से त्रस्त, पीड़ित तथा शोषित वर्ग के हाहाकार को सुनते हैं, तो उन्हें अवर्णनीय मानसिक वेदना होती है। और ऐसी व्याकुलता की मनःस्थिति में ही वे इन लोगों पर अत्याचार करने वाले समाज के पण्डे, पुरोहित तथा अन्य कर्णधारों के प्रति अत्यन्त निर्मम हो जाते हैं। पूर्वपक्षी गर्वपूर्वक स्त्रीशूद्रौनाधीयाताम्की काल्पनिक श्रुति पढ़ कर स्त्रियों और शूद्रों के वेदाध्ययन को प्रतिबन्धित ही नहीं करता, अपितु धृष्टतापूर्वक पूछता है कि यदि ये (स्त्री व शूद्र) वेद पढ़ने लगेंगे तो हम क्या करेंगे? अब इसका उत्तर स्वामीजी के पास इसके सिवाय और क्या हो सकता था कि मनुष्य मात्र को वेद के पढ़ने का अधिकार तो स्वयं वेदों से ही प्रमाणित होता है। अतः जब पूर्वपक्षी निर्लज्जतापूर्वक यह कहता है कि यदि नारी जाति तथा शूद्र वर्ग को भी वेद का पठनाधिकार दे दिया गया तो उसकी व्यवसायजन्य क्षति होगी और वे क्या करेंगे, तो महर्षि दयानन्द के रोषाविष्ट मानस से यही उत्तर निकलेगा कि तुम्हारे स्वार्थों के पीछे नारी एवं शूद्र वर्ग अब अधिक दिन तक कष्ट नहीं भोगेंगे। इसी सात्त्विक क्रोध के आवेश में आकर महर्षि दयानन्द उन स्वार्थान्ध व्यक्तियों के लिये कहते हैं – तुम्हें अपने स्वार्थों की पड़ी है तो तुम कुएं में पड़ो क्योंकि कपोलकल्पित श्रुतियों के प्रमाण देकर तुम शताब्दियों से दीन, हीन एवं दलित जातियों का शोषण करते रहे हो। सारे सन्दर्भ को समझने पर स्वामीजी के शब्दों की प्रतीयमान कटुता का रहस्य भी समझ में आ जाता है।

किन्तु महर्षि दयानन्द सामाजिक बुराइयों पर निरन्तर अभिशाप वृष्टि करने वाले कठोर आलोचक ही नहीं हैं। वे एक श्रेष्ठ और आदर्श सामाजिक विधान के पुरस्कर्ता भी हैं। यह अवश्य है कि उनके द्वारा वर्णित और विवेचित आदर्श सामाजिक व्यवस्था उनका निज का कोई सर्वथा नूतन आविष्कार नहीं था। यह तो वही प्राचीन वर्णाश्रम व्यवस्था थी, जो सहस्राब्दियों पूर्व वेदमतावलम्बियों द्वारा आविष्कृत की जाकर आर्य जाति के द्वारा स्वीकृत की गई थी। निश्चय ही कालान्तर में वर्ण व्यवस्था में अनेक त्रुटियों का समावेश हुआ और वह अपकर्ष को प्राप्त हुई। महर्षि दयानन्द ने वर्ण व्यवस्था के गुण, कर्म पर आधारित स्वरूप को ही माना, उसे ही प्रतिष्ठा दी तथा उसी का प्रचार किया। यह ठीक है कि वर्तमान काल में विद्यमान सामाजिक समस्याओं का समाधान गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था के आधार पर निकालना भी कठिन हो रहा है, किन्तु वर्ण व्यवस्था की आलोचना करने वाले यह क्यों नहीं स्वीकार करते कि इन समस्याओं को जन्म देने में वर्णव्यवस्था का उतना हाथ नहीं रहा, जितना उस जातिवाद का है, जिसे पदे पदे कोसने पर भी प्रत्येक राजनैतिक नेता और दल अधिक से अधिक चिपटाता चला जा रहा है।

महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदत्त सामाजिक व्यवस्थायें अनेक अर्थों में क्रान्तिकारी मानी जा सकती हैं। वे परम्परा से हटकर भी सामाजिक विधानों में यथेच्छ परिवर्तन कर डालने के समर्थक हैं। उदाहरणार्थ, यदि वे यज्ञोपवीत ग्रहण करने का अधिकार मनुष्य मात्र को प्रदान करते हैं, तो साथ ही यह लिखना भी नहीं भूलते कि अनधिकारी व्यक्ति को दिया हुआ यज्ञोपवीत छीना भी जा सकता है। यदि स्वामीजी द्वारा निर्दिष्ट इस व्यवस्था को क्रियान्वित किया जाता तो उन महाराजोंऔर पानी पाण्डेलोगों के जनेऊ उतरवा लिये जाते, जो मात्र सेवा कार्य तो करते हैं, किन्तु जिनमें ब्राह्मणोचित गुणों का अभाव है। इसी प्रकार क्षत्रियों को शास्त्रों के पढ़ने तथा उनमें व्युत्पन्नता प्राप्त करना वे इसलिये भी आवश्यक समझते हैं कि यदि वे निरक्षर तथा अव्युत्पन्न होंगे तो स्वार्थी पुरोहित उनका अनेक प्रकार से शोषण करेंगे। इसके विपरीत यदि वे स्वयं प्रबुद्ध होंगे तो अपने आचार्य एवं पुरोहित वर्ग के अनुचित क्रियाकलापों, पर नियंत्रण रखना उनके लिये सम्भव होगा। इन उदाहरणों पर विचार करने से महर्षि दयानन्द के सामाजिक चिन्तन की गत्यात्मकता को हृदयंगम करना सहज हो जाता है।

हम यह प्रथम ही लिख चुके हैं कि महर्षि दयानन्द आर्यजीवन पद्धति की दृष्टि से संन्यासी थे और उन्होंने चतुर्थाश्रम की सभी मर्यादाओं का पूर्ण पालन भी किया। भारतवर्ष के संन्यासी वर्ग से त्याग, वैराग्य, भगवद्भजन, परलोक चिन्तन आदि की तो अपेक्षा की गई थी, परन्तु उससे यह उम्मीद कभी नहीं की गई कि वह देश और समाज के सम्मुख प्रस्तुत ज्वलन्त समस्याओं के निदान में भी अपना योगदान करेगा। महर्षि दयानन्द को भारतीय एकता के प्रतिपादक तथा राष्ट्रवाद के प्रतिष्ठाता के रूप में प्रस्तुत करते हुए देवेन्द्रनाथ ने ठीक ही लिखा है कि “गौतम बुद्ध ने निर्वाण का मार्ग खोजकर लाखों लोगों को उस पथ का पथेक तो बनाया, किन्तु उन्होंने विच्छिन्न भारत को एकता के सूत्र में बांधने की बात एक बार भी नहीं कहीं। विमल प्रतिभा के धनी, नम्बूदरी ब्राह्मणकुलोत्पन्न शंकर ने वेदान्त सूत्रों पर अपना अनुपम भाष्य लिखकर स्वयं के लिये अविनश्वर कीर्ति अर्जित की, परन्तु क्या उन्होंने विभक्त भारत को एक करने का भी कोई कार्यक्रम बनाया था? गौरांग देव (चैतन्य) ने बंगभूमि को वैष्णव संकीर्तन की मधुर मूर्छना से सम्मोहित तो किया, किन्तु का भारत में भारतीयता स्थापित करने के लिये भी उन्होंने कोई उद्योग किया था।”

अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि राष्ट्र की एकता तथा देश के गौरव की अभिवृद्धि का चिन्तन न तो किसी आचार्य ने किया और न किसी सम्प्रदाय प्रवर्तक ने। परन्तु महर्षि दयानन्द इसके अपवाद हैं। मुखोपाध्याय महाशय के शब्दों में-वर्तमान समय के आचार्य स्वामी महर्षि दयानन्द ने हमारी युग-युगव्यापिनी नीरवता के भंग करके, चिरन्तनकालीन उदासीनता को छिन्न-भिन्न करके शास्त्र-संसार और धर्म संस्कार के साथ-साथ जातीय एकता का भी प्रतिपादन केया। उन्होंने कौपीनधारी संन्यासी होते हुए भी इस बात को सुस्पष्ट रूप से जान लिया था कि जब तक स्वदेशी जनों में बल नहीं बढ़ेगा, स्वदेश में जातीयता प्रतिष्ठित नहीं होगी, जाति के अन्दर एकता – बंधन दृढ़तर न होगा, तब तक धर्म-संस्कार, शास्त्र-संस्कार, देशोन्नति, समाजोन्नति आदि कुछ भी न हो सकेगी।”

यहाँ महर्षि दयानन्द के राष्ट्रवाद पर विस्तार से विचार करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसके बहुमुखी व्यक्तित्व के सभी पहलुओं पर विवेचनात्मक समीक्षाएँ प्रस्तुत करने वाले लेखकों ने इस विषय का विशद निरूपण कर दिया है। तथापि यह लिख देना आवश्यक है कि महर्षि दयानन्द ने भारतीय राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान का दिशा निर्देश उस समय किया था, जबकि भारत के सार्वजनिक जीवन में इसकी कोई चर्चा ही नहीं थी। स्वदेश की आज़ादी के लिये वे कितने उत्सुक थे, यह तो उनकी उस प्रार्थनापरक पुस्तक में व्यक्त किये गये विचारों से ही ज्ञात होता है जहाँ वे परमात्मा से भी अपने देश की स्वाधीनता की ही याचना करते हैं। सुराज्य की अपेक्षा स्वराज्य कहीं अधिक वरणीय है तथा श्रेष्ठ है, इस तथ्य की घोषणा करते हुए उन्होंने अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा था कि “कोई कितना ही करे, किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, पुत्र पर माता पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।महर्षि दयानन्द के इस अमर वाक्य में निहित व्यंजना को समझना अवश्यक है। इतिहास बताता है कि जब 1857 का विद्रोह शान्त हो गया और भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी से छीन कर सीधे ब्रिटिश सम्राट् के अधीन कर दिया गया, उस समय बरतानिया की महारानी विक्टोरिया ने अपनी भारर्तय प्रजा को जो आश्वासन दिये थे, उनमें सर्वोपरि आश्वासन यही था कि आगे से हुकूमत अपनी प्रजा के धार्मिक कार्यों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नई करेगी। इसी प्रकार भारतवासियों को यह कह कर भी आश्वस्त किया गया कि शासन की दृष्टि में गोरे और काले का कोई भेद नहीं किया जायेगा तथा महारानी अपनी भारतीय प्रजा को मातृ तुल्य स्नेह और वात्सल्य प्रदान करेंगी।

महर्षि दयानन्द ब्रिटिश ताज द्वारा दिये गये इन्ही आश्वासनों को एक एक कर गिनाते हुए यह कहना चाहते हैं कि इन आश्वासनों को यदि सभी मान लिया जाय, तब भी महारानी विक्टोरिया प्रदत्त यह सुराज्य हमारे लिय स्वराज्य की तुलना में कभी काम्य नहीं हो सकता। यह ध्यातव्य है कि स्वामी महर्षि दयानन्द ने यह बात उस समय कही थी, जब देश के अन्यान्य संस्कृतज्ञ पण्डित एवं विद्वान् महारानी विक्टोरिया के शासन का जय जयकार करते दीर्घायु की कामना कर रहे थे। हुए उसकी महर्षि दयानन्द के हृदय में राष्ट्रवाद के प्रखर भाव उस समय उत्पन्न हुए, जब उन्होंने देखा कि जो देश किसी समय स्वर्णभूमि के नाम से जाना जाता था, आज देशवासियों की पारस्परिक फूट, आलस्य एवं प्रमाद के कारण पराधीनता के कठोर पाशों में बाँधा जाकर सर्वतोमुखी पतन की अवस्था को प्राप्त हो चुका है। धीरे-धीरे वे राष्ट्र को लगे रोग तथा उसको दूर करने के उपचारों के बारे में भी सोचने लगे। अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जब तक राष्ट्र के स्वाभिमान, स्वदेश के गौरव एवं अस्मिता को जागृत नहीं किया जायेगा तब तक हमारी कठिनाइयों का समाधान भी नहीं होगा। इसी दृष्टि से उन्होंने अपनी स्पष्ट सम्मति व्यक्त करते हुए कहा कि जब तक समस्त देशवासी एक भाषा, एक भाव, एक विचारधारा और समान कर्त्तव्यबोध को धारण नहीं कर लेंगे तब तक राष्ट्र की एकता, समृद्धि तथा प्रगति स्वप्न के तुल्य ही रहेगी। महर्षि दयानन्द ने अपने उपदेशों में स्वदेशी के गौरव को स्थापित किया, स्वभाषा के प्रयोग पर बल दिया, स्वयं के आचरण द्वारा सत्याग्रह के मार्ग को प्रशस्त किया तथा स्वधर्म एवं स्वसंस्कृति पर गर्व करने की शिक्षा दी। यह सब कुछ होने पर भी महर्षि दयानन्द सक्रिय राजनीति से सर्वथा तटस्थ एवं असंपृक्त ही रहे। वे जानते थे कि जब तक देशवासी सामाजिक दृष्टि से सबल, संगठित तथा एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के दृढ़ संकल्प से युक्त नहीं हो जायेंगे, तब तक उनके लिये स्वाधीनता प्राप्त करना भी सम्भव नहीं होगा। अतः वे एक उपदेष्टा ब्राह्मण तथा संन्यासी की भाँति लोगों को अपनी बुराइयों को छोड़ने तथा सही अर्थों में स्वराज्य के पात्र बनने की प्रेरणा देते रहे।

यहाँ एक अन्य बात पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। जिस समय ब्रिटिश सरकार हिन्दू समाज में व्याप्त नाना बुराइयों और कुरीतियों को समाप्त करने के लिये कानून बनाने लगी, तो देश के नेताओं के एक वर्ग की ओर से यह आपत्ति की गई थी कि भारतवासियों और विशेषतः हिन्दुओं के पारिवारिक तथा सामाजिक परिवर्तनों एवं सुधारों के लिये विदेशी शासन को कानून बनाने का कोई अधिकार नहीं है। यह भी कहा गया कि जब देश स्वतंत्र हो जायगा, तो हमारी अपनी स्वदेशी हुकूमत सामाजिक सुधारों को स्वतः ही लागू करेगी आदि। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि स्वामी महर्षि दयानन्द इस नीति के समर्थक नहीं थे। उनका तो यह दृढ़ विश्वास था कि जब तक व्यापक हिन्दू समाज के सामाजिक, पारिवारिक, और नैतिक जीवन में यथेच्छ सुधार नहीं होगा, जब तक वे अपनी रूढ़ियों, हानिकारक प्रथाओं तथा जीर्ण शीर्ण रीति रिवाजों से छुटकारा नहीं पा लेंगे, तब तक भारत की स्वाधीनता भी आकाश कुसुम के तुल्य ही रहेगी।

महर्षि दयानन्द का अपना राजनीतिक दर्शन भी था। हमारे शासन के सूत्रधार कैसे हों, किन आदर्शो से प्रेरित होकर वे प्रजारंजन के कार्य में लगें, इन सब बातों की ओर उनका ध्यान गया था। महर्षि दयानन्द के राजनैतिक विचार मुख्यतः वेदों तथा उन्हीं के आधार पर लिखे गये मन्वादि स्मृतिग्रन्थों, शुक्र, विदुर जैसे नीतिकारों द्वारा निर्मित ग्रन्थों में वर्णित सिद्धान्तों को आधार बना कर लिखे गये हैं। परन्तु महर्षि दयानन्द इस बात के लिये भी सहमत हैं कि आर्यों की राजनीति विद्या में विवेचित तथा निर्धारित प्रशासन के इन सिद्धान्तों को देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित किया जा सकता है।

एक और आश्चर्य की बात है। हमारे इतिहासकारों ने यह धारणा प्रचलित कर रखी है कि भारत में राष्ट्रवाद की भावना, लोकसत्ता तथा प्रजातंत्र की धारण उसी समय से फैलने लगी, जबकि देशवासी यूरोपीय राजनैतिक चिन्तन के सम्पर्क में आये। प्रकारान्तर से यह कहा जाता रहा कि रूसो और वाल्तेयर, बेन्थम और मिल से अनुप्राणित होकर ही देश में राजनैतिक चेतना का स्फुरण हुआ। परन्तु ऐसा कहने वाले इस तथ्य को भूल जाते हैं कि महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ में राष्ट्रवाद, लोकसत्ता तथा प्रजातंत्र पर आधारित राज्यशासन की जैसी परिकल्पना की है, उसे किसी पाश्चात्य चिन्तक अथवा दार्शनिक से कोई प्रेरणा नहीं मिली थी। इण्डियन नेशनल कांग्रेस के 1612 के अधिवेशन का सभापतित्व करने वाले पं. बिशननारायण दर ने ठीक ही कहा था कि स्वामी महर्षि दयानन्द अपने युग के सर्वाधिक मौलिक हिन्दू हैं। वे ही प्रथम भारतीय सुधारक हैं जो पश्चिमी संस्कृति से कुछ भी ग्रहण नहीं करते और यही बात महर्षि दयानन्द के अंग्रेजी जीवनी लेखक शिवनन्दनप्रसाद कुल्यार ने लिखी है।

महर्षि दयानन्द की राष्ट्रीय एवं राजनैतिक विचारधारा से ही सम्बद्ध है उनका आर्थिक चिन्तन। देशवासियों की घोर दरिद्रता, कृषक वर्ग का भयंकर शोषण, मध्यमवर्गीय जीवन व्यतीत करने वाले आम भारतवासी की दुःखों एवं कष्टों से भरी ज़िन्दगी को देखकर उन्होंने अनेक बार आकुलता, व्याकुलता प्रकट की थी। उनके जीवन में ऐसे प्रसंग आये हैं, जब हमने देखा कि सांसारिक माया, ममता से नितान्त पृथक् रह कर परिव्राजक का निस्संग जीवन व्यतीत करने वाला यह निरीह संन्यासी देश की आर्थिक दुर्दशा को देख कर रो पड़ता था। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने यह अनुभव कर लिया था कि विदेशी शासक जिस नीति से शासन कर रहे हैं, उसके परिणाम स्वरूप यदि यह देश आर्थिक दृष्टि से पूर्ण दिवालिया भी हो जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं है।

देश को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बनाने के लिये महर्षि दयानन्द ने अनेक योजनायें बनाई थीं तथा उन्हें क्रियान्वित करना चाहा था। प्रथम तो वे यह अनुभव कर रहे थे कि यूरोप में औद्योगीकरण की जो लहर उठी है, उससे संसार का कोई भी देश अप्रभावित नहीं रहेगा। भारत में भी कल कारखानों की निरन्तर स्थापना हो रही थी और देश धीरे धीरे भारी उद्योगों को अपना रहा था। परन्तु तब तक विज्ञान और तकनीक की जानकारी में भारतवासी पर्याप्त पिछड़े हुए थे। महर्षि दयानन्द की यह हार्दिक भावना थी कि भारतवासी यूरोप जाकर औद्योगिक प्रशिक्षण प्राप्त करें तथा पुनः भारत लौट कर यहां की आर्थिक उन्नति में अपना योगदान दें। जर्मनी के प्रोफेसर जी. वाइज (G. Wiese) से उनका एतद्विषयक पत्र व्यवहार इसी बात का द्योतक है।

जहाँ वे वाणिज्य, व्यवसाय तथा औद्योगीकरण के विकास के पक्षधर थे, वहाँ घरेलू उद्योग-धन्धों तथा ग्रामीण आर्थिक परिस्थितियों से भी उनका अपरिचय नहीं था। उन्होंने गोवध निषेध का जो महाभियान चलाया, उसके पीछे किसी प्रकार का धार्मिक भावावेश या अन्य प्रकार का तर्क नहीं था। गोरक्षा के प्रश्न को वे विशुद्ध आर्थिक दृष्टि से देखते थे। यदि वे गोवध से देश के आर्थिक विनाश की कल्पना करते थे तो साथ ही बैल, भैंस, बकरी आदि उन सभी पशुओं के संरक्षण को भी आवश्यक समझते थे जो भारत के ग्रामीण अर्थशास्त्र की रीढ़ के तुल्य हैं। गोरक्षा के पीछे महर्षि दयानन्द का अर्थशास्त्रप्रवण मस्तिष्क ही चिन्तनरत था।

महर्षि दयानन्द ने किसान वर्ग को अत्यन्त ऊँचा स्थान दिया है। उन्होंने लिखा हैं “यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले हैं और राजा उनके रक्षक हैं।” वे कृषि को भारत की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार मानते थे। राजस्थान के उदयपुर, शाहपुरा तथा जोधपुर के शासकों को उपदेश देते हुए उन्होंने इसी बात पर अधिक बल दिया था कि क्षत्रिय का मुख्य कर्त्तव्य प्रजापालन है। यदि वे अपनी प्रजा की स्थिति को सुखद, सन्तोषप्रद तथा आमोद-प्रमोद से युक्त करने में असमर्थ रहते हैं, तो शासन की बागडोर को हाथ में रखने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। कृषकों की अवस्था को सुधारने के लिये वे इन शासकों को यदा कदा अनेक व्यवहारिक उपदेश भी देते थे।

यों तो सतत कर्मठ जीवन व्यतीत करने वाले तथा समाज, राष्ट्र एवं मानवता को अपने प्रखर व्यक्तित्व से प्रभावित करने वाले महापुरुषों के वैचारिक धरातल को नापना सहज नहीं होता, तथापि महर्षि दयानन्द के जीवन का विस्तृत आकलन करने के पश्चात् उनके विचारों का उपर्युक्त पृष्ठों में किया गया विश्लेषण इस सत्य की घोषणा करने के लिये पर्याप्त है कि स्वामीजी के समस्त कार्य तथा विचार जहाँ स्वराष्ट्र के सर्वविध उत्थान की दृष्टि से प्रासंगिकता रखते हैं वहाँ वे उन्हें विश्व मानव (Universal man) की भूमिका पर भी प्रतिष्ठित करते हैं। महर्षि दयानन्द के विचार और उपदेश, उनकी आंकाक्षाएं और कल्पनायें समस्त मानवसमाज के अभ्युत्थान को दिशा-बोध देती हैं, उनके सिद्धान्त और मन्तव्य सार्वभौम हैं, सार्वकालिक हैं तथा सार्वजनीन हैं। उनकी प्रखर राष्ट्र भक्ति ही सच्ची अन्तर्राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाती है क्योंकि उनकी दृष्टि में सारी मानव जाति एक है, भाषा, धर्म, नस्ल और रंग का विभेद काल्पनिक है, मनव निर्मित है। जिस युग में वे पैदा हुए उससे आगे के युग की बात को सोचने के कारण ही वे ऋषि हैं। उनकी दूरदर्शिता, युग-बोध तथा समय शक्तियों की पहचान अपूर्व है। ऐसे ही ऋषियों की वन्दना करते हुए ऋग्वेद के द्रष्टा ने कहा था-
इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः।

(ऋ. 10.14.15)

-डा. भवानीलाल भारतीय