प्राचीनकाल में मनुष्य मात्र का एक ही धर्म था और एक ही धर्मग्रन्थ था-वेद। उसी की शिक्षाओं के अनुरूप जीवनयापन होता था। तब विश्व एक परिवार था और भारत विश्वगुरु माना जाता था। यहीं से सर्वत्र ज्ञान-विज्ञान फैला था। अंक गणना भी भारत ने विश्व को सिखाई थी। इसीलिए अंकों को ‘हिन्दसे‘ कहते थे। समय बदला। वेदों की गलत व्याख्याएँ की जाने लगीं। वेद में जो था नहीं, स्वार्थवश भाष्यकारों को वह दिखने लगा। धीरे-धीरे वेदों की शिक्षाओं का लोप हो गया। विभिन्न मनुष्यों ने अपने-अपने ग्रन्थ रच डाले। अनेक मतमतान्तर प्रचलित हो गए। परिणाम निकला-मानसिक अशान्ति, परस्पर द्वेष, संघर्ष और रक्तपात। अब फिर समय ने सुखद करवट ली है। दयानन्द सदृश ऋषि ने वेदों का पुनरुद्धार कर एक नए युग का सूत्रपात किया है। महर्षि दयानन्द ने वेदों को सब सत्यविद्याओं का पुस्तक घोषित कर पुनः वेद की ओर लौटने का निर्देश किया है। अपने जीवन के अन्तिम दशक में वेद विषय में उन्होंने जो कार्य किया, वह स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।
मनुष्य ज्ञान किस प्रकार प्राप्त करता है? इस प्रश्न पर दार्शनिकों ने पर्याप्त विचार किया है। कुछ पाश्चात्य विचारकों के अनुसार मनुष्य स्वयमेव ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ज्ञान-प्राप्ति के लिए उसे किसी सहायक की आवश्यकता नहीं होती। इन्हीं विचारकों में से कुछ ज्ञान की प्राप्ति अनुभववाद (Empiricism) के द्वारा मानते हैं। लॉक के मन्तव्यानुसार मनुष्य का मस्तिष्क एक कोरे कागज के समान है तथा ज्ञान की प्राप्ति के साधन संवेदना (Sensation) तथा चिन्तन (Reflection) हैं। बर्कले और ह्यूम ने भी इसी मत का प्रतिपादन किया है। यदि मन को कोरे कागज के समान मान लिया जाए तो वह निष्क्रिय बन जाता है। ऐसा मानना मनोवैज्ञानिक भूल होगी क्योंकि मन गतिशील है तथा इसमें प्रत्येक क्षण कोई-न-कोई विचार आता रहता है। डैकार्ट, स्पिनोज़ा तथा लाइबनिज ज्ञान की उत्पत्ति बुद्धिवाद के द्वारा मानते हैं परन्तु एल्डस हक्सले का यह विचार भी ठीक ही है कि “बुद्धिवाद जीवन की गुत्थियों को सुलझाने का अपने आप में एक पूर्ण माध्यम नहीं है।”1 जर्मन दार्शनिक कान्ट के विचार में भी सदाचार सम्बन्धी ज्ञान की प्राप्ति अकेले अनुभव या बुद्धि से सम्भव न हो पाती।
ये मत केवल कुछ अंश तक ही सत्य हैं। यदि आरम्भ में कोई सिखाने वाला न हो तो मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर ही नहीं सकता। इस विचार की पुष्टि में कुछ उदाहरण लीजिए :
- आज मानव इतना ज्ञान प्राप्त कर चुका है कि उसने चन्द्रमा पर जाने की साध पूरी कर ली है परन्तु अभी भी अन्डमान द्वीप समूह में निगरेटा वर्ग के कुछ लोग रहते हैं, जिन्हें अच्छी तरह गिनना भी नहीं आता। वहाँ भी भू-खनन पर भाले आदि लोहे के अस्त्र-शस्त्र मिले हैं। अतः वे लोग सदा से अज्ञानी नहीं हैं। कभी वे भी सभ्य थे। आज उनकी यह दशा शिक्षक के अभाव में हो गई है। अतः महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका (वेदोत्पत्ति विषय:) में ठीक ही लिखा है- “सृष्टि के आदि में भी परमात्मा जो वेदों का उपदेश नहीं करता, तो आज पर्यन्त किसी मनुष्य को धर्मादि पदार्थों की यथार्थ-विद्या नहीं होती।‘
- अनेक भाषाओं के ज्ञाता माता-पिता की सन्तान भी बिना सिखाए कोई भाषा नहीं सीख सकती। अतः बच्चों को ज्ञान देने के लिए पाठशालाओं का खोला जाना इस बात का प्रबल प्रमाण है कि शिक्षक के बिना अकेले अनुभव अथवा बुद्धि के द्वारा ज्ञान-प्राप्ति नहीं हो सकती।
- आज तक किसी अनपढ़ व्यक्ति ने कोई वैज्ञानिक खोज नहीं की क्योंकि बिना शिक्षक के ज्ञान की प्राप्ति असम्भव है।
- ए. डब्ल्यू. किंगलेक जब मिस्र के महामरुस्थल में से निकल रहे थे तो उन्हें एक शेख मिले जिसे विज्ञान के इस युग में भी यह ज्ञात नहीं था कि समय का विभाजन घण्टों, मिनटों तथा सैकिण्डों में हो चुका है क्योंकि किसी ने उसे ये बातें बताई नहीं थीं।
- बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में जिला अम्बाला में सम्मू नाम के एक बच्चे ने जन्म लिया। उसे स्कूल में उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया। अभी उसने उर्दू वर्णमाला (जो उसे बाद में भी याद थी) ही सीखी थी कि उसे लेखक के पैतृक गाँव तंगौर (कुरुक्षेत्र) का एक व्यक्ति नौकर के रूप में ले आया। वहाँ उस बच्चे को पशु की भाँति रखा गया। उसे हर प्रकार के ज्ञान से वंचित रखकर पशुओं की तरह खाना-पीना सिखाया गया। बाद में सम्मू निकट के ही एक अन्य गाँव (झरोली खुर्द) में वर्षों नौकर रहा। उस परिवार के सदस्य पुलिस एवं सेना में उच्चाधिकारी थे परन्तु सम्मू को आरम्भ से ही कोई ज्ञान नहीं दिया गया था। अतः वह लगभग नंगा ही रहता था। वह जहाँ सोता, उसी स्थान पर पेशाब आदि कर देता था। उसे अपने स्वामी तथा उस गाँव का नाम भी नहीं आता था। वह मनुष्य योनि में पशु था।
- सीरिया के सम्राट् असुरवाणीपाल, यूनान के राजा सेमिटिकल, सम्राट् फ्रेडरिक द्वितीय, स्काटलैण्ड के जेम्स चतुर्थ तथा बादशाह अकबर आदि ने मनुष्य की असली भाषा जानने के लिए अबोध बालक-बालिकाओं को निर्जन वनों में गूंगी दाइयों के संरक्षण में रखा था। इन बच्चों में ज्ञान का विकास न हो पाया। ये केवल इशारे करना सीख पाए। अपने इन परीक्षणों के पश्चात् ये सम्राट् इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि शिक्षक के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।
स्पष्ट है कि मनुष्य में ज्ञान प्राप्ति की शक्ति है अन्यथा सम्मू उर्दू वर्णमाला न सीख सकता परन्तु आरम्भ में सदैव शिक्षक की आवश्यकता पड़ती है। हाँ, कुछ ज्ञान-प्राप्ति कर लेने के पश्चात् उस निजी ज्ञान को अनुभव और बुद्धि के द्वारा बढ़ाया जा सकता है। जैसे बिना बीज के अंकुर पैदा नहीं हो सकता, वैसे ही ज्ञान के विकास के लिए बीजरूप ज्ञान जरूरी है। आरम्भ में ही ज्ञान का विकास सम्भव नहीं क्योंकि विकास एक क्रिया है तथा मनोविज्ञान के अनुसार क्रिया से पूर्व अनुभूति और अनुभूति से पूर्व ज्ञान की आवश्यकता होती है। डॉ. रसेल वैलेस तो यह मानते हैं कि “बौद्धिक क्षमता के निरन्तर विकास का कोई प्रमाण नहीं है।”2
सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य में नैमित्तिक ज्ञान न होने के कारण ईश्वर स्वयमेव जन-कल्याण हेतु आवश्यक ज्ञान का प्रकाश करते हैं। जिस प्रकार परमात्मा ने आँख की सहायता के लिए सूर्य बनाया है, उसी प्रकार बुद्धि के लिए ज्ञान रूपी सूर्य प्रदान किया है। जैसे सूर्य के बिना आँख व्यर्थ है, उसी प्रकार ज्ञान के बिना बुद्धि किस अर्थ? जैसे प्रत्येक कारीगर अपनी बनाई हुई वस्तु के उपयोग का ज्ञान देता है, उसी प्रकार प्रभु द्वारा आरम्भ में जगत् की वस्तुओं के उपयोग का ज्ञान दिया जाता है। परमात्मा न्यायकारी है इसलिए मनुष्य को कर्मानुसार फल देने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि पाप-पुण्य क्या है? इन सभी का ज्ञान आदि सृष्टि में प्रभु अपनी कल्याणी वेदवाणी के द्वारा प्रदान करते हैं।
कई पश्चिमी दार्शनिकों ने भी ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता अनुभव किया है। अफलातून (प्लेटो) के अनुसार धार्मिक कर्मों की शिक्षा, अंधकार को दूर करने तथा जीवन यात्रा को सुगम बनाने के निर्देश देने हेतु ईश्वर अथवा प्रेरित व्यक्ति की जरूरत है।3 विचारानुसार धर्म और सदाचार सम्बन्धी नियमों के ज्ञानार्थ ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता है।4 इसी प्रकार फलिण्ट ने भी स्वीकार किया है-” मुक्ति के लिए जिस ज्ञान की आवश्यकता है वह आत्मा और प्रकृति से प्राप्त नहीं होता। बुद्धि के गूढ़तम आविष्कारों के साथ-साथ हमें ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता होती है।” पातञ्जल योग सूत्र (1.26) में परमात्मा को सब का आदिगुरु बताया गया है-
स एष: पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।
सभी मतावलम्बी अपनी-अपनी पुस्तकों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं परन्तु कथन मात्र से ही कोई बात सिद्ध नहीं हो जाती। लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः न तु प्रतिज्ञा मात्रेण। इस विषय में सच्चाई का निर्णय करने के लिए विद्वान् निम्नलिखित कसौटियों का सहारा लेते रहे हैं-
- ईश्वरीय ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में होना चाहिए क्योंकि ज्ञान के बिना कोई व्यवस्था चल नहीं सकती। यदि परमात्मा अपना ज्ञान कुछ समय पश्चात् दे तो ज्ञान से वंचित रहने वाले प्राणियों के साथ अन्याय होता है। अत: जर्मन कवि गेटे ने ठीक लिखा है- “संसार के प्रभातकाल में परमात्मा मानव को ज्ञान देता है।” कुरान और बाइबिल की आयु बहुत कम है। वेद ही सबसे प्राचीन है। इस तथ्य को अन्य मतावलम्बी भी स्वीकार करते हैं। मैक्समूलर ने लिखा है- “वेद को प्राचीनतम कहा जा सकता है क्योंकि इससे पहले का कोई हस्तलिखित ग्रन्थ नहीं मिलता। … हम इसे वर्षों में नहीं माप सकते।”5क “आर्य जगत में वेद निश्चय ही सबसे पुरानी पुस्तक है।”5ख ईसाई विद्वान् प्रो. हीरेन मानते हैं- “निस्संदेह वेद संस्कृत साहित्य में सबसे पुराने हैं।“6 पादरी मोरिस फिलिप ने लिखा है- “पुराने वसीयतनामे के इतिहास और पुस्तकों के निर्माणकाल सम्बन्धी अनुसन्धान के पश्चात् अब हम निस्संदेह ऋग्वेद को न केवल आर्य जाति की अपितु समस्त विश्व की प्राचीनतम पुस्तक कह सकते हैं।”7
- ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश आदि सृष्टि में होता है। अतः उसमें इतिहास नहीं हो सकता परन्तु बाइबिल में पैलस्टाइन के यहूदियों का इतिहास है तथा कुरान अरब देश के दृश्यों और आदम, ईसा, मूसा, दाऊद के किस्सों से भरा पड़ा है। केवल वेद ही ऐसी पुस्तक है जिसमें किसी देश, काल तथा जाति का इतिहास नहीं है। निस्संदेह वेद में विश्वामित्र, वसिष्ठ, उर्वशी आदि शब्द आए हैं। इन्हीं शब्दों को देखकर पाश्चात्य लेखकों ने वेद के गले भी इतिहास मढ़ना चाहा है। बुद्धि का यह अजीर्ण कुछ भारतीय विद्वानों को भी है परन्तु वास्तविकता यह है कि कालान्तर में वेद के शब्दों से अनेक मनुष्यों और वस्तुओं के नाम रखे गए हैं। अतः वस्तुओं और विषयों के नाम वेद में देखकर इतिहास की कल्पना तो ऐसी है जैसे आज के समय का कोई रामचन्द्र नामक व्यक्ति कहे कि लाखों वर्ष पूर्व दशरथ ने अपने पुत्र का नाम रामचन्द्र मेरे ही नाम को सुनकर रखा था तथा रामायण में मेरी ही चर्चा है। वस्तुतः वेद में आए ये शब्द व्यक्ति विशेष के सूचक नहीं अपितु सामान्य गुण सूचक हैं क्योंकि केवल विशेषण के साथ ही ‘तर‘ और ‘तम‘ प्रत्यय लग सकते हैं तथा वेद में ऐसे कई शब्दों के साथ इन प्रत्ययों का प्रयोग किया गया है, जैसे- कण्वतम (ऋ. 1.48.4., 10. 115.5) तथा इन्द्रतम (ऋ 1.182.2)। यदि कण्व और इन्द्र व्यक्तिवाचक संज्ञा होते तो ‘तम‘ प्रत्यय नहीं लग सकता था।
कुछ शब्द भिन्न-भिन्न मन्त्रों में अलग-अलग अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, उदाहरणार्थ- वसिष्ठ शब्द ले लीजिए। यह वेद में कई स्थानों पर आया है, जैसे-
शतं या भेषजानि ते सहस्रं संगतानि च।
श्रेष्ठमास्रावभेषजं वसिष्ठं रोगनाशनम्।। अथर्व 6.44.2
अर्थात् “जितनी सैंकड़ों हजारों दवाइयाँ पाई जाती हैं उनमें चुलाने की औषध वसिष्ठ श्रेष्ठ और रोगनाशक है।” यहाँ वसिष्ठ शब्द किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं आया अपितु यह औषधि का नाम है। यजुर्वेद (13.54) में वसिष्ठ का अर्थ प्राण है। यह शब्द शतपथ ब्राह्मण (8.1.1.6) में भी इस अर्थ में प्रयोग किया गया है-
प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिः अर्थात् प्राण ही वसिष्ठ ऋषि है। ऋग्वेद के एक मन्त्र (7.33.11) में वसिष्ठ शब्द पानी के अर्थ में आया है। इस प्रकार कई शब्द भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग आशय प्रकट करते हैं। एक शब्द के अनेक अर्थ होना भाषा का दूषण नहीं अपितु भूषण है। ये सभी शब्द लौकिक नहीं अपितु यौगिक हैं और इनके आधार पर वेद में इतिहास सिद्ध नहीं किया जा सकता। और तो और वेदों में इतिहास की दुहाई देने वाले मैक्समूलर ने भी यह माना है कि “वेदों में अनेक नाम पाए जाते हैं परन्तु वे व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के रूप में नहीं दीख पड़ते।”8
- ईश्वरीय ज्ञान बुद्धि के लिए है अतः बुद्धि तथा सृष्टि नियमों के अनुकूल होना चाहिए। ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश सृष्टि के रहस्यों को खोलने के लिए होता है। अतः उस ज्ञान तथा सृष्टि के नियमों में भिन्नता नहीं होनी चाहिए। भूगोल की वही पुस्तक श्रेष्ठ है जो भूगोल के साथ मिलती हो।
बाइबिल की कितनी बातें बुद्धि तथा सृष्टि के नियमों के प्रतिकूल हैं। इसीलिए विज्ञान और ईसाईयत में टक्कर रही है। बाइबिल विरोधी अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों पर जो अत्याचार किए गए, उन्हें पढ़कर कलेजा मुँह को आता है। देवी हियोफिया रेखागणित का प्रचार और आविष्कार करती थी परन्तु रेखागणित की बाइबिल में कहीं चर्चा नहीं है। अत: बाइबिल विरोधी इस कार्य को रोकने के लिए पादरी सिरिल की आज्ञानुसार उस देवी को नंगा किया और जान से मार दिया।
बाइबिल में अमरीका का नाम तक नहीं आता। अतः पुर्तगाल के बादशाह ने अमरीका की खोज के लिए कोलम्बस को मांगने पर भी आर्थिक सहायता नहीं दी थी। बाइबिल में लिखा है कि भूमि चपटी और स्थिर है तथा सूर्य घूमता है। इसके विपरीत विज्ञान ने सिद्ध कर दिया कि भूमि गोल है और सूर्य के चारों ओर घूम रही है। भूमि गोल है – इस सत्य का प्रकाश करने के कारण गैलिलियो दस वर्ष की कठोर कारावास की सजा दी गई और जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। बेचारे ब्रूनो को 16 फरवरी, 1600 को तेल छिड़ककर जिन्दा जला दिया गया। ब्रूनो ने कचहरी का निर्णय सुनकर मुस्कराते हुए कहा था कि “मुझे यह मृत्यु दण्ड देते हुए तुम्हें मेरी अपेक्षा अधिक भय लग रहा है।”
इसी तरह कुरान में लिखा है कि “अल्लाह वह है जिसने खड़ा किया आसमानों को बिना खम्बे के देखते हो तुम उसको। फिर ठहरा ऊपर अर्श के, आज्ञा बर्तने वाला किया सूरज और चाँद को। और वही है जिसने बिछाया पृथ्वी को उतारा आसमान से पानी, बस बहे नाले साथ अन्दाज अपने के।” मं.3. सि.13. सू.13. आ.2, 3, 17, 26
परन्तु वेद में बुद्धि और सृष्टि नियमों के प्रतिकूल एक भी बात नहीं है। इसलिए ऋषि कणाद अपने वैशेषिक दर्शन (6.1.1) में लिखते हैं- बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे। एक उदाहरण लीजिए – वेद की मान्यता है कि भूमि सूर्य के चारों ओर घूमती है। यजुर्वेद (3.6) में कहा है – आयं गौः पृश्निरक्रमीदसन्मातरं पुरः। पितरं च प्रयन्त्स्वः॥
महर्षि दयानन्द ने वेद का यही प्रमाण देते हुए सत्यार्थप्रकाश के समुल्लास में लिखा है- “यह भूगोल जल के सहित सूर्य के चारों ओर आकाश में घूमता जाता है, अर्थात् सूर्य के चारों ओर भूमि घूमा करती है।” महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र में ‘गौ‘ का अर्थ ‘भूमि‘ निरुक्त और निघण्टु के आधार पर किया है :
गौरिति पृथिव्या नामधेयम् यद्दूरं गता भवति, यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति। निरुक्त 2.5
गौरिति पृथिवी नामसु पठितम् निघण्टु 1.1
आचार्य द्विजेन्द्रनाथ संस्कृत साहित्य-विमर्श में इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार करते हैं- “प्राणियों के प्राणों की पौषिका पृथ्वी निरन्तर निज मानदण्ड भूत स्वअक्ष पर घूमती है और सारे जगत के रक्षक रूप सूर्य के सामने द्युलोक में भ्रमण करती है।” इस प्रकार आचार्य जी इस मन्त्र द्वारा पृथ्वी की दोनों गतियों (दैनिक तथा वार्षिक) का निर्देश करते हैं। इस सत्य का प्रतिपादन वेद के और भी कई मन्त्रों में किया गया है, जैसे- वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता अर्थात् “वर्ष भर में भूमि अपना चक्कर पूरा करती है।” अथर्व 12.1.52
अतः ब्राउन ने ठीक ही लिखा है कि “यह पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है। जहाँ धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ मिला कर चलते हैं। यहाँ धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान तथा दर्शन पर आधारित हैं।9
- ईश्वरीय ज्ञान ईश्वर के स्वभाव और गुणों के अनुकूल होना चाहिए। महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के सप्तम् समुल्लास में लिखते हैं-” जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित्, शुद्धगुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुण वाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ईश्वरकृत; अन्य नहीं।”
- पण्डित लेखराम ‘कुलियात आर्यमुसाफ़िर‘ में लिखते हैं- “वह इलहाम (ईश्वरीय ज्ञान) ऐसी जुबान में हो जो सब जुबानों से मुम्ताज हो क्योंकि परमात्मा अपने गुणों से इन्सानों से मुम्ताज है।” प्रायः भाषाशास्त्री यह स्वीकार करते है कि संस्कृत को छोड़कर शेष भाषाएँ अपूर्ण हैं। उनकी लिपियाँ अवैज्ञानिक हैं। इन भाषाओं में लिखा कुछ जाता है और पढ़ते कुछ और हैं। केवल संस्कृत भाषा ही पूर्ण और वैज्ञानिक है। बोप महोदय का कथन है- “संस्कृत ग्रीक और लैटिन भाषा से अधिक पूर्ण है। एक समय संस्कृत सारे विश्व में बोली जाती थी।”10 वास्तविकता यह है कि संस्कृत से ही अन्य भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं। अमरीकन विद्वान् विल ड्यूरान्ट ने लिखा है- “भारतवर्ष हमारी जाति की मातृभूमि और संस्कृत सभी यूरोपियन भाषाओं की जननी थी।”11 इस प्रकार वेद की भाषा संस्कृत ही सर्वोत्तम और पूर्ण मानी गई है।
- वेद स्वयं भी ईश्वरीय ज्ञान होने की घोषणा करता है-
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत।। यजु. 31.7
“उस सर्व पूज्य सर्वोपास्य, पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं।”
देवस्य श्लोकं सवितुर्मनामहे ऋ.7.82.10
“सृष्टि रचयिता परमेश्वर की वेदवाणी को आदर से हम मनन करें।”
वेद शब्द ‘विद्‘ धातु से बना है अतः वेद का अर्थ ‘ज्ञान‘ है। बाइबिल का धातु अर्थ ‘पुस्तकों का संग्रह‘ है। कुरान (मं.1.सि. 1.सू. 1) तो स्वयं घोषणा करता है-
आरम्भ साथ नाम अल्लाह के क्षमा करने वाला दयालु
इसकी समीक्षा करते हुए महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं- “मुसलमान लोग ऐसा कहते हैं कि वह कुरान खुदा का कहा है परन्तु इस वचन से विदित होता है कि इस का बनाने वाला कोई दूसरा है क्योंकि जो परमेश्वर का बनाया होता तो “आरम्भ साथ नाम अल्लाह के” ऐसा न कहता किन्तु ‘आरम्भ वास्ते उपदेश मनुष्यों के‘ ऐसा कहता।”
वेद की प्रामाणिकता सभी प्रमुख आचार्यों ने स्वीकार की है। महर्षि कणाद वेद को स्वतः प्रमाण मानते हैं-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्। वै. 1.1.3
महर्षि कपिल ने सांख्यदर्शन (5.51) में विधान किया है-
निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्।
अर्थात् “परमेश्वर की अपनी शक्ति से उत्पन्न होने के कारण वेद स्वतः प्रमाण है।” नीत्से ने मनुस्मृति की बहुत प्रशंसा की है।12 मनुस्मृति ने भी वेद की प्रामाणिकता स्वीकार की है।
नास्तिको वेदनिन्दकः। वेद निन्दक नास्तिक है।
वेदोऽखिलो धर्ममूलम्। वेद समस्त धर्म का मूल है।
श्रुति स्मृति विरोधे तु श्रुतिरेव गरीयसी।
“यदि वेद तथा स्मृति में विरोध तो वेद ही श्रेष्ठ है।”
अत्रि स्मृति के अनुसार वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है-
नास्ति वेदात्परं शास्त्रम्।
शतपथ ब्राह्मण (14.5.4.10) में महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी पण्डिता पत्नी मैत्रेयी को कहते हैं-
एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यद्दग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः
“हे मैत्रेयी ! उस महान् परमेश्वर से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद श्वास-प्रश्वास की भाँति अनायास निश्वासित हुए।”
महाभारत (शान्ति पर्व, 232.24) में कहा है-
अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
आर्दो वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः।।
अर्थात् सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भु प्रभु ने वेदरूप नित्य देववाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों की सब प्रवृत्तियां होती हैं।
गुरु ग्रन्थ साहिब में वेद की महिमा गाई गई है-
ओंकार वेद निरमए। -राग रामकली महला 1 ओंकार शब्द 1
चारे दीवे चहु हथ दीए एका एकी वारी – बसन्त हिंडोल, महला 1, शब्द 1
चारे वेद होए सच्चिआर -आसा दी वार महला 1 वार 13
असंख ग्रन्थ मुखि वेद पाठ। – जपुजी 17
वेद वखिआन करत साधुजन भागहीन समझत नहीं खलु। –टोडी महला 5, शब्द 26
वेद कतेब कहहु मत झूठे, झूठा जो न विचारे। –राग प्रभाति कबीर जी शब्द 3
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश (तृतीय समुल्लास) में यहाँ तक लिखा है- “इन (अन्य ग्रन्थों) में भी जो-जो वेद विरुद्ध प्रतीत हो उस-उस को छोड़ देना क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त स्वतः प्रमाण अर्थात् वेद का प्रमाण वेद ही से होता है।” अतः इन तर्कों एवं प्रमाणों द्वारा स्पष्ट है कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है।
वेद ईश्वर की नित्य विद्या है। उसकी उत्पत्ति अथवा अनुत्पत्ति नहीं हो सकती। हाँ, सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा ऋषियों पर ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का प्रकाश किया। “परमेश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से जीवों को अपनी व्याप्ति से वेद-विद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख-जिह्वा से वर्णोच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिए किया जाता है कुछ अपने लिये नहीं क्योंकि मुख-जिह्वा के व्यवहार करे विना ही मन में अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है।”13
वेद में अवयव रूप विषय तो अनेक हैं पर विज्ञान, कर्म, उपासना तथा ज्ञान चार मुख्य हैं। प्रायः ऋग्, यजु, साम, अथर्व वेद इसी क्रम से गिने जाते हैं। इस विषय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं- “जैसे इस गुणज्ञान विद्या को जनाने से पहिले ऋग्वेद की गणना योग्य है, वैसे ही पदार्थों के गुणज्ञान के अनन्तर क्रियारूप उपकार करके सब जगत् का अच्छी प्रकार से हित भी सिद्ध हो सके, इस विद्या के जनाने के लिए यजुर्वेद की गिनती दूसरी बार की है। ऐसे ही ज्ञान, कर्म और उपासनाकाण्ड की वृद्धि वा फल कितना और कहाँ तक होना चाहिये, इसका विधान सामवेद में लिखा है, इसलिए उसको तीसरा गिना है। ऐसे ही तीन वेदों में जो-जो विद्या है, उन सबके शेष भाग की पूर्ति का विधान, सब विद्याओं की रक्षा और संशय निवृति के लिए अथर्ववेद को चौथा गिना है।14क
“सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त, और ब्रह्मादि से लेके हम लोग पर्यन्त जिससे सब सत्यविद्याओं को सुनते आते हैं, उससे वेदों का श्रुति नाम पड़ा है।“14ख केवल संहिता का नाम वेद है। ब्राह्मण- ग्रन्थ आदि किसी अन्य ग्रन्थ की संज्ञा वेद नहीं है।15 ऋग्वेद में दस मण्डल, एक हजार अट्ठाईस सूक्त और दस हजार पाँच सौ बावन। यजुर्वेद के चालीस अध्यायों में एक हजार नौ सौ पचहत्तर मन्त्र हैं। सामवेद के छन्द आर्चिक, महानाम्न्यार्चिक तथा उत्तरार्चिक तीन भाग। इनके कुल एक हजार आठ सौ तहत्तर मन्त्र हैं। अथर्ववेद के बीस काण्ड, सात सौ इकतीस सूक्त और पाँच हजार नौ सौ सतहत्तर मन्त्र हैं। अतः चारों वेदों में मन्त्रों की कुल संख्या बीस हजार तीन सौ सतहत्तर है। वेदों की एक हजार एक सौ सत्ताईस शाखा हैं।
कुछ लोग ऋषियों को ही वेद मन्त्रों के बनाने वाले समझते हैं। यह उनकी भारी भूल है। ऋषि मन्त्रों के रचयिता नहीं थे। वे तो उनके अर्थों पर विचार करने वाले थे। यास्काचार्य ने निरुक्त में ‘ऋषि‘ का अर्थ करते हुए लिखा है – ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः अर्थात् ” ऋषि मन्त्र के अर्थ जानने वाला होता है।” किसी भी वैदिक शब्दकोष के आधार पर ऋषि का अर्थ ‘मन्त्र बनाने वाला‘ नहीं किया जा सकता। यह परम्परा रही है कि जिस ऋषि ने जिस मन्त्र के अर्थों पर विचार किया, उस मन्त्र के साथ उस ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा जाता है। नाम लिखा होने से ऋषि मन्त्र रचयिता नहीं बन जाते।
अनेक मन्त्रों के एक से अधिक ऋषि हैं। ऋग्वेद के केवल एक ही सूक्त (1.6.66) के एक सौ ऋषि बताए गए हैं। तो क्या इस अकेले सूक्त को सौ ऋषियों ने एक ही समय में एक ही स्थान पर बैठ कर बनाया था? वैसे भी एक ही मन्त्र के कुछ ऋषि तो भिन्न-भिन्न समय में हुए हैं। वे सभी एक साथ बैठकर किसी मन्त्र की रचना कैसे कर सकते थे? क्योंकि ऋषि मन्त्रों पर प्रकाश डालने वाले थे, अतः भिन्न-भिन्न समय में एक ही मन्त्र के कई ऋषि होना सम्भव एवं बुद्धिसंगत है।
एक विचार यह भी है कि यद्यपि परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अपना ज्ञान प्रदान किया परन्तु बाद में भी समय-समय पर आवश्यकतानुसार ज्ञान का प्रकाश भिन्न-भिन्न मनुष्यों पर बाइबिल, कुरान आदि के रूप में होता रहा है। इस भ्रम ने विश्व का बहुत अहित किया है। इस विचार में निम्नलिखित दोष हैं –
- पूर्ण प्रभु का ज्ञान भी पूर्ण होना चाहिए। समय-समय पर ईश्वरीय ज्ञान प्रकट होते रहने का अर्थ है कि आदि सृष्टि में दिए गए ज्ञान में कुछ कमी रह गई थी जिसे बाद में पूरा करना पड़ा। ऐसा मानने से परमात्मा की सर्वज्ञता में दोष आता है। अपने कार्य में सुधार की आवश्यकता अल्पज्ञ जीव को हुआ करती है, न कि सर्वज्ञ भगवान् को। दीपक का उदाहरण लीजिए। जब मानव ने आरम्भ में मिट्टी का छोटा-सा दीपक बनाया था, उस समय उसे न तो भविष्य के लोगों की आवश्यकताओं का ज्ञान था और न ही उसमें इतनी बुद्धि थी कि दोषरहित दीपक बना पाता, परन्तु धीरे-धीरे मनुष्य का ज्ञान बढ़ता गया और वह आवश्यकतानुसार दीपक में सुधार करता गया। सम्भव है कि बिजली के लैम्प में भी भविष्य में सुधार करना पड़े। सर्वज्ञ प्रभु ने आदि सृष्टि में ही जो सूर्य बनाया था, वह आज तक सभी प्रकार की मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करता हुआ ठीक कार्य कर रहा है। उसमें किसी सुधार की आवश्यकता नहीं पड़ी। इसी प्रकार प्रभु को अपने ज्ञान में परिवर्तन करने की आवश्यकता भी नहीं हुआ करती क्योंकि वह आदि सृष्टि में ही सभी समय के सभी मनुष्यों की आवश्यकतानुसार ज्ञान दे दिया करता है। सुधार तो अल्पज्ञ मनुष्य ही अपनी पुस्तकों में किया करता है। वस्तुतः ईश्वरीय ज्ञान अपरिवर्तनशील होता है। अथर्ववेद (10.8.32) में कहा भी है-
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति
“परमदेव परमात्मा के काव्य (वेद रूपी ज्ञान) का दर्शन (स्वाध्याय) करो क्योंकि यह ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता, न ही जीर्ण होता है।”
- यदि यह मान लिया जाए कि आदि सृष्टि में दिया ईश्वरीय ज्ञान अधूरा था और परमात्मा समय-समय पर मनुष्यों पर अपना ज्ञान उतारता रहता है तो कुछ लोग ईश्वर के नाम पर भोली-भाली जनता को धोखा देकर सबके सामने हर प्रकार की बुराई करते रहेंगे।
यहाँ एक प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या दूसरे ग्रन्थों में कोई भी सच्चाई नहीं है? और यदि उन में लेशमात्र भी सच्चाई है तो उस सत्य को उन पुस्तकों के द्वारा ग्रहण करने में क्या हानि? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सत्यार्थप्रकाश (तृतीय समुल्लास) में ऋषिवर दयानन्द लिखते हैं- ” जो-जो उन में सत्य है, सो सो वेदादि-सत्य-शास्त्रों का है, और मिथ्या उनके घर का है। … जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे तो मिथ्या भी उसके गले लिपट जावे। इसलिये असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्त्याज्यमिति असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे ही छोड़ देना चाहिये जैसे विषयुक्त अन्न को।” महर्षि दयानन्द का उत्तर इतना तर्कपूर्ण और स्पष्ट है कि अधिक लिखना व्यर्थ होगा।
वेद में सभी सत्य विद्याओं का बीज रूप में उल्लेख है। भाषा विज्ञान, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, गणित, जीवविज्ञान, रसायनशास्त्र, भौतिकविज्ञान, नक्षत्रविज्ञान, भूगर्भविद्या औषधविज्ञान, कृषिविज्ञान, शिल्पविद्या … आदि विभिन्न विद्याओं के मूल तत्व वेदमन्त्रों में विद्यमान हैं। वेद में न तो परस्पर विरोधी, सृष्टि नियमों के प्रतिकूल, असंगत और अवैज्ञानिक बातें हैं और न ही जादू-टोना सम्बन्धी मन्त्र।
ब्लूमफील्ड आदि ने अथर्ववेद के मन्त्रों का अर्थ करते समय बार-बार जादू (Charm) शब्द का पूर्णतया अनावश्यक प्रयोग कर इसे जादू-टोनों का वेद सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। वस्तुतः इस वेद में शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रोगों की चिकित्सा के आयुर्वेदिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक प्रयोग प्रतिपादित हैं, जिन्हें जादू-टोना समझना भूल है। अनेक मन्त्रों में रोग कृमियों का नाश करने वाली विभिन्न औषधियों तथा वनस्पतियों की चर्चा है, उन्हें जादू-टोनों से जोड़ने का कोई अर्थ नहीं।
अनेक वेद मन्त्रों (यथा ऋ: 1.164.46, 6.22.1, 6.51.16, 8.1.1, 10.82.3, यजु. 17.27, अथर्व 13.4.16-21, 2.1.3 आदि) में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भी तीन भिन्न देवता नहीं हैं। ये एक ही ईश्वर के तीन नाम हैं। वस्तुतः वेद में निर्दिष्ट अग्नि, वायु, सूर्य, सविता, वरुण, इन्द्र आदि देवतावाची पद सर्वत्र भौतिक पदार्थों के ही नहीं अपितु ईश्वर के भिन्न-भिन्न गुणों के सूचक हैं। वेद में कोई नाम रूढ़ नहीं है, न ही वेद में किसी देवी- देवता अथवा व्यक्ति की कथा-कहानी है। पौराणिक देवी-देवताओं के नाम वेद से लिए गए हैं। अतः इन नामों का वेद में उल्लेख होने से उनकी पूजा का वेद द्वारा समर्थन नहीं हो जाता। पण्डित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने ‘वेदों के यथार्थ स्वरूप‘ में इस विषय का विस्तृत विश्लेषण करते हुए कई विदेशी विद्वानों की चर्चा की है जो वेद में एकेश्वरवाद मानते हैं।
मूर्तिपूजा लगभग तीन हजार वर्ष से चली है अतः वेदादि शास्त्रों में इसका विधान नहीं है। ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। अतः उसकी मूर्ति नहीं बन सकती। इसीलिए यजुर्वेद (32.3) में कहा है:
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यशः।
ईश्वर अज एकपात् (ऋ 7.35.13) और अकायम् (यजु.40.8) है अर्थात् वह न जन्म लेता है, न शरीर धारण करता है। इसलिए परमेश्वर का अवतार नहीं हो सकता। महर्षि दयानन्द ही नहीं अपितु उनके गुरु स्वामी विरजानन्द भी मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध मानते थे।17
यद्यपि कबीर जैसे भक्तिकालीन सन्तों और कई अन्य लेखकों ने मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया, परन्तु वे इसे कोई शास्त्रीय आधार न दे पाए। लम्बे अन्तराल के पश्चात् वेदादि शास्त्रों के आधार पर मूर्तिपूजा को पूर्णतया नकारने वाले दण्डी जी और दयानन्द ही थे।
रही बात गोवध की। गौ को अनेक मन्त्रों (ऋग्वेद, 1.37.5;1.164.27; 1.164.40; 4.1.6; 7.68.8; 9.1.9; 10.46.3 3) में अघ्न्या (न मारने योग्य) कहा है।18क यजुर्वेद (13.43) कहता है- गां मा हिंसी: (गौ को मत मारो)। ऋग्वेद (8.101.15) के अनुसार मा गामनागामदितिं वधिष्ट (गौ निष्पाप है, इसे मत मारो)। वेद में गो-हत्यारों के लिए कठोरतम दण्ड का विधान है-
अन्तकाय गोघातम्। – यजु. 30.18
अर्थात् गौ के हत्यारे का प्राण-दण्ड दो।
यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्। तं त्वा सीसेन विध्यामः -अथर्व. 1.16.4
गौ आदि के हत्यारे को सीसे की गोली से मार डालो।
योऽघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च। -ऋ. 10.87.16
जो न मारने योग्य गौ को मारे, उनके सिरों को कुल्हाड़े से काट दो।
इस युग में महर्षि दयानन्द ने मूक गऊ की रक्षा के लिए प्रबल जनान्दोलन किया, गोकृष्यादिरक्षिणी सभाएं गठित करने की प्रेरणा दी, पश्चात् देश भर में सबसे पहली गौशाला 1878 में रेवाड़ी (हरियाणा) में स्वयं स्थापित की और गोकरुणानिधि की रचना की। इस अमरकृति में यहां तक लिखा- ‘“हे मांसाहारियों! तुम लोग जब कुछ काल के पशु न मिलेंगे, तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नही? हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर जोकि बिना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता? क्या उनपर तेरी प्रीति नहीं है? क्या उनके लिए तेरी न्यायसभा बन्द हो गई? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहीं देता और उनकी पुकार नहीं सुनता। क्यों इन मांसाहारियों के आत्माओं में दया का प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषों को दूर नहीं करता।”
मध्यकालीन कुछ आचार्यों और उनका अनुसरण करने वाले भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों ने अथर्ववेद के नवम् काण्ड के चौबीसवें सूक्त तथा कई अन्य वेदमन्त्रों का अर्थ करते हुए यज्ञों में पशुवलि (गोवध सहित) को बताई है। अथर्ववेद के इस सूक्त के भाष्य की उत्थानिका में सायणाचार्य लिखते हैं- “ब्राह्मण बैल को मारकर उसके मांस से भिन्न-भिन्न देवताओं के लिए आहुति देता है। इसमें वृषभ की प्रशंसा और उसके अंगों में कौन-कौन अंग किस-किस देवता को प्रिय होते हैं- इसका विवेचन किया गया है और बैल की बलि देकर हवन करने के महत्त्व का वर्णन करते हुए इससे प्राप्त होने वाले श्रेय की स्तुति की गई है।” कुछ लेखक ऋग्वेद के मन्त्र (10.85.13) के आधार पर विवाह के अवसर पर भोजन के लिए गौवों और सांडों के वध का प्रतिपादन करते हैं। मैक्डॉनल ने एक कदम और आगे बढ़कर अन्त्येष्टि में बोले जाने वाले ऋग्वेद के मन्त्र (10.16.7) से निष्कर्ष निकाला कि ‘मृतक के दाह संस्कार में एक गाय का वध अनिवार्य था, क्योंकि उसके मांस का उपयोग शव को लपेटने के लिए किया जाता था।‘ वेदमन्त्रों के सही अर्थ न समझ पाने के कारण ये लेखक ‘यज्ञों में पशुबलि‘ तथा ‘आर्य लोग गोमांस खाते थे‘ जैसे अनर्गल प्रलाप करते हैं। वेदमन्त्रों के ऐसे गलत अर्थों के लिए सायण, महीधर जैसे भाष्यकार जिम्मेवार हैं।
वैदिक यज्ञों में पशुबलि का प्रश्न ही नहीं उठता।18ख वेद में सैंकड़ों जगह (जैसे ऋ .1.1.4, 1.1.8, 1.14.21, 1.128.4,1.19.1; यजु. 15.38, 6.23; अथर्व 4.24.3 आदि) यज्ञ को ‘अध्वर‘ कहा गया है। निरुक्त (1.8 या 2.7) के अनुसार अध्वर इति यज्ञ नाम ध्वरतिहिंसाकर्म तत्प्रतिवेधः। “यज्ञ का नाम अध्वर है। ‘ध्वर‘ कहते हैं हिंसा को। हिंसा का उल्टा अहिंसा, अध्वर या यज्ञ।” यज्ञ का अर्थ है- देवपूजा, संगतिकरण और दान। पशु को मारना किसी अर्थ का भाव नहीं है।
यदि नरमेध यज्ञ का अर्थ नरबलि देना मान लिया जाए, तो पितृयज्ञ में माता-पिता और अतिथि यज्ञ में अतिथि की आहुति देनी पड़ेगी। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्पष्ट किया है- ” घोड़े गाय आदि पशु तथा मनुष्य मार के होम करना कहीं नहीं लिखा। केवल वाममार्गियों के ग्रन्थों में ऐसा अनर्थ लिखा है। … जहाँ-तहाँ लेख हैं वहाँ भी वाममार्गियों ने प्रक्षेप किया है। … अन्न, इन्द्रियों, किरण, पृथ्वी आदि को पवित्र रखना गोमेध। जब मनुष्य मर जाए तो उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है‘
प्राचीन आर्य अन्न, जड़ी-बूटियों, मधु तथा घृतादि से यज्ञ किया करते थे, न कि मद्य मांसादि से। महाभारत (शान्तिपर्व 265.9) में लिखा है-
सुरा मत्स्या मधु मांसमासवं कृसरौदनम्।
धूतैः प्रवर्तितं यज्ञे नैतद् वेदेषु कल्पितम्।।
अर्थात् यज्ञों में शराब-मांसादि का प्रचार तो धूर्तों ने किया है, वेद में ऐसा कहीं नहीं है।
तीन सत्ताएं (ब्रह्म, जीव, प्रकृति) अनादि (जिसका आरम्भ न हो) और अनन्त (जिसका अन्त न हो) हैं। ब्रह्म के अनेक नाम हैं, जैसे ईश्वर, परमेश्वर, परमात्मा आदि। ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या आर्यसमाज के दूसरे नियम में की गई है। मोटे तौर पर ईश्वर एक है। जीव अनेक हैं। ईश्वर विभु या सर्वदेशी है। जीव परिच्छिन्न अर्थात् एक देशी है। ईश्वर जन्म-मरण व कर्मबन्धन से मुक्त है। जीव कर्म करता है और उसका फल भोगता है। ईश्वर जीवों को उनके कर्मों का फल देता है। ईश्वर सर्वज्ञ है, जीव अल्पज्ञ। ईश्वर सच्चिदानन्द है। जीव चेतन है, सत् है परन्तु उसमें आनन्द का अभाव है। प्रकृति केवल सत् है। आनन्द का अभिलाषी जीव आनन्दस्वरूप परमात्मा की स्तुतिप्रार्थनोपासना करता है। आनन्दरहित जड़ प्रकृति की पूजा (मूर्तिपूजा) करने से आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। न ईश्वर भ्रम ग्रस्त होता है, न जीव उसका अंश है, न ही जीव कभी ब्रह्म बन सकता है। ईश्वर- जीव की एकता सम्भव नहीं है। त्रैतवाद के इस वैज्ञानिक सिद्धान्त को ऋग्वेद (164.20) में बहुत सुन्दर ढंग से समझाया गया है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।।
अर्थात् ” जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस वृक्ष रूप संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोगता है और दूसरा परमात्मा फलों को न भोगता हुआ भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न- स्वरूप है और तीनों अनादि हैं।”
एक ऐसा समय आया जब शुद्र तथा स्त्रियों को वेद पढ़ने और सुनने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामितिश्रुतेः ऐसा प्रचारित कर दिया। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्यम् (3.3.38) में यहां तक लिख दिया गया कि यदि शूद्र वेद का शब्द सुन ले तो उसके कान को सीसा और लाख से भर देना चाहिए । लम्बे समय के पश्चात् महर्षि दयानन्द ने घोषणा की कि मनुष्यमात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है। यजुर्वेद (26.2) में स्पष्ट ऐसा विधान है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च ….
आर्यसमाज के तीसरे नियम में तो वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना- नाना आर्यों का परमधर्म बताया गया है। वेदज्ञान मनुष्य मात्र के लिए है। इस पर किसी वर्ण, वर्ग एवं लिंग विशेष व्यक्ति का अधिकार नहीं है। इसीलिए महर्षि दयानन्द ने वेद के हिन्दी भाषा में अर्थ प्रकाशित किए। हिन्दी में भाष्य करने वाले वे पहले व्यक्ति हैं। इस प्रकार सदियों से अलमारी में कैद वेद को जन साधारण तक पहुँचाने का श्रेय महर्षि दयानन्द को है।
वर्तमान युग के अनेक विद्वानों ने वेद के ज्ञान की सराहना की है। फ्रांस के महान् दार्शनिक वोल्तेयर को जब यजुर्वेद की प्रति भेंट की गई तो उसने कहा था- “यह सर्वाधिक मूल्यवान उपहार है जिसके लिए पश्चिम सदा से पूर्व का ऋणी रहा है।”19 लेओं देल्बो के विचारानुसार “यूनान अथवा रोम का कोई भी स्मारक ऋग्वेद से अधिक मूल्यवान नहीं है।“20 अमरीकी विद्वान् थ्यूरो ने तो यहाँ तक कहा है- “मैंने वेदों के जो उद्धरण पढ़े हैं वे मुझ पर एक उच्चतर और पवित्रतर ज्योतिपुंज के प्रकाश की तरह पड़ते हैं जो एक उत्कृष्ट मार्ग का वर्णन करता है। वेदों के उपदेश सरल, देश और जाति विशेष के इतिहास से रहित तथा सार्वभौमिक हैं।”21
अब इतने पवित्र एवं मानव कल्याण के विचारों से पूर्ण वेदों के विषय में कुछ लेखकों के भ्रान्तिपूर्ण विचार पढ़िए-
“ऋग्वेद की ऋचाएँ अबोध शिशुओं की अनगढ़ प्रार्थनाएँ हैं।” -फलीडर
“मैं आपको फिर याद दिला दूँ कि वेद में पर्याप्त मात्रा में बालपन और मूर्खतापूर्ण भाव हैं, यद्यपि उसमें ऐसे तत्व बहुत कम हैं जो बुरे और आपत्तिजनक हों … कई मन्त्र सर्वथा अर्थरहित और निःसार हैं।”22 –मैक्समूलर
“वेद मनुष्यों की कल्पना, मनुष्यों की सृष्टि हैं, इतिहासप्रेमियों तथा आदिम मानव सभ्यता के जिज्ञासुओं के लिए वह उपयोगी सामग्री प्रदान करते हैं।”23 –राहुल सांकृतयायन
सारांश यह है कि महर्षि दयानन्द से पूर्व वेद को बच्चों की बिलबिलाहट और गडरियों के गीत कहा जाता था। आखिर ऐसा क्यों? इसका कुछ तो कारण होगा ही। इस मिथ्या विचार की तह में निम्नलिखित कारण दीख पड़ते हैं-
- भारतीयों की अरुचि : पिछला कुछ समय विश्व गुरु भारत के पतन का काल रहा है। पराधीन जातियों का निज देश, भाषा, धर्म एवं सभ्यता का प्रेम प्रायः समाप्त हो जाया करता है। अतः हमारी भी अपने धर्म और सभ्यता के स्रोत वेद के प्रति अरुचि का होना स्वाभाविक था। वेद केवल पूजा के लिए रह गए थे। उनका स्वाध्याय बिलकुल समाप्त हो गया था। ऐसे समय में दूसरों को वेद की ओर प्रेरित करने का तो प्रश्न ही कहाँ उठता था? कहते हैं- “राजा राममोहनराय लन्दन में थे। उन्होंने फ्रैडरिक रोजन को ब्रिटेन के संग्रहालय में ऋग्वेद की हस्तलिपि की नकल करने में खूब व्यस्त देखा। राजा हैरान हो गया। उसने रोजन को बताया कि उसे वेद मन्त्रों पर अपना समय बिलकुल नष्ट नहीं करना चाहिए अपितु उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए।”24
एक ओर महात्मा मनु कहते हैं-
योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥ मनु. 2:168
“जो वेद को न पढ़कर अन्यत्र श्रम करता है वह अपने पुत्र-पौत्र सहित शूद्र-भाव को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।” दूसरी ओर राजा राममोहनराय वेद के अध्ययन को ‘समय नष्ट करना‘ बताते हैं। हाय रे पतन ! तेरी भी कोई सीमा नहीं।
- विदेशियों का उद्देश्य : वेद के पाश्चात्य भाष्यकारों में फ्रैडरिक मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, आर. ग्रिफिथ, होरेस हेनरी विलसन, विन्टरनिट्ज, मैक्डॉनल तथा वेबर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सभी सज्जन ईसाई मत के प्रति अत्यधिक आस्थावान होने के कारण वेदों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने में असमर्थ रहे। इनका मुख्य उद्देश्य वेद-भाष्य करना नहीं अपितु ईसाई मत का प्रचार करना था। इस लक्ष्य की सिद्धि के लिए उन्होंने सुनियोजित ढंग से अपनी पूर्व मान्यताओं की पुष्टि के लिए वेद मन्त्रों के अर्थ को बदला। यह सारा कार्य सोची- समझी योजना के अनुसार किया गया।
इस षड्यंत्र के पीछे जिन लोगों का हाथ था उनमें थामस बेबिंगटन मैकॉले भी एक था। वह कट्टरपंथी ईसाई था। चर्च एवं ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उसकी सेवाओं के लिए उसे लॉर्ड की उपाधि से विभूषित किया गया था। उसने भारत में शिक्षा का माध्यम इसलिए अंग्रेज़ी बनवाया था कि प्रतिष्ठित वर्गों में कोई भी व्यक्ति हिन्दुत्व के प्रति आस्थावान न रह पाए। मैकॉले अपनी योजना की सफलता के लिए वैदिक धर्म पर प्रत्येक दिशा से आक्रमण करना चाहता था। इसलिए उसे एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो उसकी मान्यताओं के अनुसार वेद का अनुवाद कर सके। खोजते खोजते उसकी दृष्टि फ्रैडरिक मैक्समूलर पर पड़ी। दोनों के मध्य 28 दिसम्बर, 1855 को एक भेंट हुई। वैदिक धर्म के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन था। इस अकेली भेंट ने वेद का जितना अहित किया उतना अनेक व्यक्तियों के सांझे प्रयत्न भी नहीं कर पाए। मैक्समूलर धन के बदले लेखनी बेचने को उद्यत नहीं था परन्तु पचपन वर्षीय अनुभवी कुटिल राजनीतिज्ञ मैकॉले के समक्ष बत्तीस वर्षीय अनुभवहीन युवक की एक न चली। मैकॉले ने उसे यश एवं धन का लोभ भी दिया तथा भय भी दिखाए। साधन-विहीन मैक्समूलर अप्रसिद्धि की अवस्था में यत्र-तत्र घूम रहा था। सम्भव है कि वह धन का लोभी न हो परन्तु उसे साधनों की आवश्यकता तो थी ही। फिर यश तो युवावस्था की कमजोरी है। मैक्समूलर एक सामान्य व्यक्ति ही तो था। बेचारा यश के लोभ का संवरण न कर सका और उसने मैकॉले के पास अपनी बुद्धि, विद्या एवं लेखनी को गिरवी रखना स्वीकार कर लिया। इस कार्य के लिए धन मिला ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी से। यह चक्र भारत मैत्री की आड़ में चलाया गया।25
एक अन्य सज्जन कर्नल बोडन ने अपने धन से ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में बोडन पीठ की स्थापना की थी। उसने 15 अगस्त, 1811 को अपनी वसीयत में स्पष्ट लिखा- “मेरे इस उदारतापूर्ण उत्तरदान का विशेष उद्देश्य है कि संस्कृत में लिखित धर्मशास्त्रों के अनुवाद-कार्य को इस रूप में बढ़ाया जाए कि मेरे देशवासी भारत के आदिवासियों को ईसाई मत में दीक्षित करने के कार्य में अग्रसर हो सकें।”26
पाश्चात्य लेखकों का वास्तविक उद्देश्य अपने मत का प्रचार करना था। अतः उनके द्वारा वेद की निन्दा किया जाना स्वाभाविक था। उन्होंने वेद का अनुवाद वेद को निकृष्ट तथा बाइबिल को सर्वोत्तम पुस्तक सिद्ध करने के लिए किया था। मैक्समूलर ने 9 दिसम्बर, 1867 को अपनी पत्नी के नाम एक पत्र में लिखा था- “मेरा यह संस्करण तथा वेद का अनुवाद आने वाले समय में भारत के भाग्य तथा उस देश के लाखों व्यक्तियों पर प्रभाव डालेगा। यह उनके धर्म का मूल है और मैं निश्चयपूर्वक अनुभव करता हूँ कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्र वर्ष में इससे उत्पन्न हुए सभी कुछ को जड़ से उखाड़ने का एक मात्र ढंग है।”27 इसी आशय के एक पत्र में मैक्समूलर 16 दिसम्बर, 1868 को भारत मन्त्री ड्यूक ऑफ आर्गायल को लिखता है- “भारत का प्राचीन धर्म नष्ट है और यदि ईसाईयत उसका स्थान नहीं लेती तो यह किसका दोष होगा?28
यह है वह विचारधारा जिसके प्रभाव में वेदों का अनुवाद किया गया। फिर वेद के साथ न्याय की आशा कहाँ? इसीलिए श्री अरविन्द ने लिखा है- “(पाश्चात्य विद्वानों द्वारा) ये नये अर्थ और नयी व्याख्याएँ इस प्रबल अभिलाषा को लेकर विकसित की गई थीं कि वेदमन्त्र उन बर्बर जातियों के प्रारम्भिक इतिहास, रीति-रिवाजों तथा उनकी संस्थाओं का पता देने वाले सिद्ध हो सकें।”29क पाश्चात्य लेखकों के विचार इतने संकीर्ण और पक्षपातपूर्ण होने के बावजूद कुछ भारतीय इनकी प्रशंसा न जाने किस आधार पर करते हैं?
- विदेशियों का संस्कृत-ज्ञान: जैसे स्वर्ण को प्राप्त करने के लिए चट्टानों को तोड़ा जाता है, उसी प्रकार ग्रन्थ के भाव को समझने के लिए शब्दों रूपी पत्थरों को तोड़ना पड़ता है। अत: सही शब्दार्थ करने के लिए उस भाषा का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। भाषा पर अधिकार प्राप्त किए बिना पुस्तक के भाव को समझा नहीं जा सकता। प्रसिद्ध वैज्ञानिक हक्सले ने ठीक ही लिखा है- “जिसे ग्रीक या लेटिन की ए. बी. सी. नहीं आती, वह उस भाषा में लिखे नाटक पर क्या टिप्पणी करेगा?” इस कारण भी पाश्चात्य विद्वानों का वेदभाष्य प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उनका संस्कृत का ज्ञान कुछ विशेष नहीं था। इस प्रसंग में एक-दो घटनाओं का उल्लेख करना ठीक रहेगा-
पण्डित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने 1957 में त्रिवेन्द्रम में आयोजित प्राच्यविद्या सम्मेलन के अध्यक्ष तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. थोमस से पूछा- “क्या आपको संस्कृत बोलने का अभ्यास है?” अंग्रेज़ी में उत्तर मिला- “मेरी प्रबल इच्छा है कि आपकी तरह धारा-प्रवाह संस्कृत बोल सकता परन्तु दुर्भाग्य से मुझे अभ्यास नहीं है।”30क
महात्मा नारायण स्वामी वेद रहस्य में लिखते हैं कि एक भारतीय विद्वान् प्रो. मैकडॉनल से पढ़ने के लिए इंगलैण्ड गया। प्रो. मैकडॉनल उनके साथ संस्कृत में बात न कर सके। प्रो. मैकडॉनल ने कहा, ‘आप यहां संस्कृत साहित्य पढ़ने के लिए नहीं अपितु पश्चिमी विद्वानों की अन्वेषण प्रणाली सीखने के लिए भेजे गए हो। ‘
तो क्या संस्कृत का इतना कम ज्ञान रखने वाले लोग अत्यन्त गूढ़ तथा रहस्यमय वेद मन्त्रों का सही अनुवाद कर सकते हैं? कदापि नहीं। वे वेद की भाषा एवं छन्द रचना को नहीं समझ पाए, न ही उन्होंने वेद भाष्य की प्राचीन नैरुक्तिक प्रणाली को अपनाया। उन्होंने शब्दों के रूढ़ि अर्थ लिए और वेद में वर्णित रूपकों को बाद में लिखे साहित्य में उल्लिखित गाथाओं के साथ जोड़कर वैदिक गाथाशास्त्र तथा वैदिक इतिहास का सृजन किया।31 “सब ऋषि और मुनि, पुरातन ग्रन्थकार और भाष्यकार, बिना किसी अपवाद के, सभी वैदिक शब्दों को यौगिक मानते हैं… इस नियम की यूरोपियन विद्वानों ने सर्वथा अवहेलना की; और इस कारण उन्होंने वेदों के अपने व्याख्यानों को पुराणों की घड़ी हुई या मांगी हुई कथाओं तथा ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक व्यक्तियों की कहानियों और उपाख्यानों से भर दिया।”32क वे वेद को आर्यजाति की आरम्भिक अवस्था के विकास का इतिहास मानते रहे। उनकी दृष्टि में यह आदिम आर्यजाति तब असभ्य, नैतिक विचारों से हीन तथा एक ईश्वर के स्थान पर अग्नि, वायु आदि अनेक जड़ प्राकृतिक देवताओं की पूजा करने वाली थी। वे अपने भीतर यह विश्वास ही पैदा न कर सके कि वर्तमान में मूर्तिपूजा अथवा कृ पूजा करने वाले लोग आरम्भिक अवस्था में इतने उन्नत विचारों वाले और सुसभ्य भी थे। इसलिए उनके विचार में वेद में बहुदेवतावाद है। यज्ञों में पशुबलि का विधान है। उन्होंने यह भी प्रसिद्ध किया प्राचीन आर्य मांस खाते थे, सोम के रूप में सुरा पीते थे और जुआ खेलते थे। पश्चिमी विद्वानों ने इन मान्यताओं को लेकर वेद का भाष्य किया; इसलिए ये लोग वेद का असली भाव समझने से वंचित रहे।
बीस वर्ष से भी अधिक समय तक परिश्रम करने के पश्चात् मैक्समूलर का मत था कि “कोई भी व्यक्ति जिसे वेद का कुछ भी ज्ञान है, अभी वेद का अनुवाद करने का विचार नहीं करेगा। ऋग्वेद का अनुवाद अगली शताब्दी में किए जा सकने वाला काम है। … यदि अनुवाद से हमारा अभिप्राय समूचे ऋग्वेद का सम्पूर्ण, सन्तोषजनक और अन्तिम अनुवाद है … तो ऐसे कार्य के लिए हमें न केवल अगली सदी तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी; अपितु मुझे शक है कि क्या हम ऐसा कभी कर भी सकेंगे?33 खेद का विषय है कि यह सब कुछ जानते हुए भी प्रो. मैक्समूलर वेद का अनुवाद करने में जुटे रहे। मैक्समूलर की ‘सैक्रिड बुक्स ऑफ द ईस्ट‘ के रूसी संस्करण के सम्पादक बोलंगर ने लिखा है- “प्रो. मैक्समूलर के अनुवाद में जो बात मुझे अखरती है वह यह है कि उसमें बहुत-सी बेहूदी, अश्लील और अस्पष्ट बातें हैं। … जहाँ तक मैं वेदों की शिक्षा को समझ सकता हूँ, मुझे वह इतनी अधिक उच्च मालूम होती है कि एक गड़बड़ और विकृत अनुवाद द्वारा रूसी जनता का उससे परिचय कराने को मैं अपना अपराध मानता हूँ, क्योंकि इससे वह उस आत्मिक लाभ को प्राप्त नहीं हो पाएगी, जो वैदिक शिक्षा द्वारा जनता को मिलना चाहिए।34
पश्चिमी विद्वान् वेद का सही अनुवाद करने में असमर्थ रहे।इस तथ्य की पुष्टि के लिए निम्नलिखित मन्त्र लीजिए-
वायवा याहि दर्शते मे सोमा अरंकृताः।
तेषां पाहि श्रुधी हवम् ॥ ऋ. 1.2.1
इस मन्त्र का अर्थ म्यूर ने इस प्रकार किया है- “हे वायु ! आओ। ये सोम तैयार हैं। इन्हें पीओ। हमारी प्रार्थनाओं को सुनो।”35 ऐसा ही अर्थ विलसन ने किया है36 परन्तु पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी ने इसका शुद्ध अर्थ यह किया है- “स्पर्शादि गुणों से देखने योग्य वायु गतिमान और सुगन्धि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने वाली है। यह सब जगत के जीवों और वृक्षों को जल और प्राण आदि से सुशोभित करके रक्षा करती है। इसके द्वारा ही कहने और सुनने का व्यवहार होता है।”32ख कितना अन्तर है दोनों अर्थों में ! म्यूर आदि के किए अर्थ पूर्णतया सारहीन और फीके हैं।
- भारतीय भाष्यकारों की लीला : स्कन्द स्वामी, वेङ्कट माधव, महीधर, उव्वट, सायणाचार्य आदि भारतीय भाष्यकार ऋषि नहीं थे। यद्यपि उन्होंने वेद को अपौरुषेय तो माना पर उनके भाष्य अश्लीलता, पशुहिंसा, जड़पूजा, अनित्य इतिहास आदि अनेक दोषों से भरे पड़े हैं। इनमें वेदों को अत्यन्त निकृष्ट सिद्ध करने वाली बुद्धि, तर्क तथा सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों की भरमार है। इन भाष्यों में सायण का भाष्य सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सायण के लिए वेद कर्मकाण्ड की पुस्तक मात्र है। उसने मन्त्रों का केवल यज्ञपरक अर्थ करके वेद के वास्तविक अभिप्राय को अत्यन्त संकुचित कर दिया। सब मन्त्रों को केवल यज्ञपरक अर्थ में घसीटना सायण-भाष्य की दुर्भाग्यपूर्ण देन है। सायण और महीधर आदि वेद का सही अनुवाद करने में असमर्थ रहे हैं। पाश्चात्य विद्वानों इन्हीं सायण, महीधर आदि के भाष्यों के आधार पर वेद का अनुवाद अंग्रेजी, फ्रांसीसी तथा जर्मन आदि भाषाओं में किया है। अतः वेदार्थ विषय में भ्रान्ति उत्पन्न करने में ये भाष्य मुख्य कहे जा सकते हैं। इसीलिए महर्षि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका (भाष्यकरणशङ्कासमाधानादि विषय:) में लिखते हैं कि “जब इन्हीं लोगों (महीधर, सायण आदि) के व्याख्यान अशुद्ध हैं, तब यूरोपखण्डवासी लोगों ने जो उन्हीं की सहायता लेकर अपनी देश भाषा में वेदों के व्याख्यान किये हैं, उनके अनर्थ का तो क्या ही कहना है।” बुराई की जड़ ये अशुद्ध, अवैज्ञानिक, एकांगी और संकुचित अनुवाद हैं।
योगी अरविन्द के अनुसार “वेद के सब सम्भव अर्थों में से इस निम्नतर अर्थ के साथ ही वेद को अन्तिम तौर पर और प्रामाणिकतया बांध देना- यह सायण के भाष्य का सब से अधिक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम हुआ। सायण के भाष्य ने पुरानी मिथ्या धारणाओं पर … प्रामाणिकता की मुहर लगा दी और इसके दिये हुए निर्देश, उस समय जबकि एक दूसरी सभ्यता ने वेद को ढूँढ़कर निकाला और इसका अध्ययन प्रारम्भ किया, यूरोपियन विद्वानों के मस्तिष्क में नयी-नयी गलतियों का कारण बने। … सायण-भाष्य द्वारा ऋषियों का, उनके विचारों का, उनकी संस्कृति का, उनकी अभीप्साओं का एक ऐसा प्रतिनिधित्व हुआ है जो इतना संकुचित और दारिद्रयोपहत है कि यदि उसे स्वीकार कर लिया जाए, तो वह वेद के सम्बन्ध में प्राचीन पूजाभाव को, इसकी पवित्र प्रामाणिकता को, इसकी दिव्य ख्याति को बिलकुल अबुद्धिगम्य कर देता है।”29ख इसलिए ब्लूमफील्ड ने लिखा- “वेद एक आदिम जाति के यज्ञ सम्बन्धी मन्त्र हैं।” वस्तुतः सायण का भाष्य इतना निकम्मा है कि वेद के प्रसिद्ध पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु लिखते हैं- “यदि सायण भाष्य का ही हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू व अन्य जिस किसी भाषा में अनुवाद करके किन्हीं शिक्षणालयों में रख दिया जाए तो निश्चय ही समझना चाहिए कि कुछ श्रद्धालुओं को छोड़कर सबकी एक ही ध्वनि उठेगी कि ये वेद जंगलियों की बड़बड़ाहट या अण्ट-सण्ट कृतियाँ हैं।” वस्तुतः सायण आदि के भाष्यों ने पाश्चात्य लेखकों की आँखों पर पट्टी बांध दी।
ऐसे अन्धकारमय समय में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्वगुरु स्वामी विरजानन्द दण्डी के आदेशानुसार मनुष्यकृत अनार्षग्रन्थों के विरुद्ध अभियान आरम्भ किया और पुनः वेदों की शिक्षाएँ अपनाने पर बल दिया। दयानन्द न सायण सहमत हैं, न विदेशी विद्वानों से। दयानन्द के लिए वेद ईश्वरोक्त है तथा ज्ञान-विज्ञान का भण्डार हैं।
भारत के इस सन्त का जीवन वेद के लिए था। दयानन्द ऋषि थे, महान तपस्वी थे; अतः वेदभाष्य करने के अधिकारी थे। महर्षि दयानन्द ने समाधि लगाकर वेद के गहन रहस्यों को समझा था। ऋषि की सूझ निराली थी। संस्कृत भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। वैदिक वाङ्मय का उनका अध्ययन अद्भुत था। वेदभाष्य के आरम्भ के दिनों (कार्तिक शुक्ला 2, सम्वत् 1934 अर्थात् 7 नवम्बर, 1877) में भ्रान्ति-निवारण में उन्होंने लिखा था- “मैं अपने निश्चय और परीक्षा के अनुसार ऋग्वेद से लेकर पूर्वमीमांसा पर्यन्त अनुमान से तीन हजार ग्रन्थों के लगभग (प्रामाणिक) मानता हूं।” कितना विशाल और गहन अध्ययन था उस ऋषि का। जहाँ बहुधा भाष्यकारों ने वैदिक शब्दों के प्रचलित अर्थ (लौकिक एवं रूढ़ि) लेने की गलती की थी, वहाँ ऋषिवर ने इन शब्दों के प्रसंगानुसार यौगिक अर्थ किए। इस क्षेत्र में ऋषि की यह एक महान् देन है। उन्होंने यह भाष्य वेद, वेदांग, ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के अनुसार बनाया है।
महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (ईश्वरप्रार्थना विषय:) में स्वयं लिखा है- “इस वेदभाष्य में अप्रमाण लेख कुछ भी नहीं किया जाता है, किन्तु जो ब्रह्मा से लेके व्यास पर्यन्त मुनि और ऋषि हुए हैं उनकी जो व्याख्या-रीति है उससे युक्त ही यह वेदभाष्य बनाया जायगा। यह भाष्य ऐसा होगा जिससे वेदार्थ से विरुद्ध अबके बने भाष्य और टीकाओं से वेदों में भ्रम से जो मिथ्या दोषों के आरोप हुए हैं, वे सब निवृत्त हो जाऐंगे। और वेदभाष्य से वेदों का जो सत्य अर्थ है सो संसार में प्रसिद्ध हो, कि वेदों के सनातन अर्थ को सब लोग यथावत् जान लें, इसलिए यह प्रयत्न मैं करता हूँ।”
लगभग सभी निष्पक्ष विद्वान् दयानन्द की सूझ, तर्क, वेद सम्बन्धी ज्ञान तथा पाण्डित्य को स्वीकार करते हैं। दयानन्द भाष्य को “वेद को फिर से एक सजीवधर्म पुस्तक के रूप में स्थापित करने के लिए आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द के द्वारा किया गया अपूर्व प्रयत्न” मानते हुए योगी अरविन्द लिखते हैं- “दयानन्द की मन्त्रों की व्याख्या इस विचार से नियन्त्रित है कि वेद धार्मिक, नैतिक और वैज्ञानिक सत्य का एक पूर्ण ईश्वरप्रेरित ज्ञान है। वेद की धार्मिक शिक्षा एकदेवतावाद की है और, वैदिक देवता एक ही देव के भिन्न- भिन्न वर्णनात्मक नाम हैं… दयानन्द ने पुरातन भाषाविज्ञान के स्वतन्त्र प्रयोग को अपना आधार बनाया, जिसे उन्होंने निरुक्त में पाया था। स्वयं संस्कृत का एक महाविद्वान् होते हुए उन्होंने उनके पास जो सामग्री थी, उस पर अद्भुत शक्ति और स्वाधीनता के साथ विचार किया।”29ग योगी अरविन्द घोषणा करते हैं- “वैदिक व्याख्या के बारे में मेरा यह विश्वास हो चुका है कि वेदों की अंतिम पूर्ण व्याख्या कुछ भी हो, दयानन्द प्रथम सत्य मार्गदर्शक के रूप में सम्मानित किए जायेंगे। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर रखा था उसने उनकी चाबियों को पा लिया और बन्द पड़े स्रोतों की मुहरों को तोड़कर फेंक दिया।38
फिट्ज ने लिखा है- “पाश्चात्य विद्वानों का संस्कृत और वेदों का ज्ञान शून्य समान है। हमें उनके कथन पर बिलकुल विश्वास नहीं। हम केवल दयानन्द-भाष्य को प्रामाणिक समझते हैं।” महात्मा टी. एल. वासवानी के विचारानुसार- “महर्षि दयानन्द वेदों के ज्ञान के प्रति भारतीयों के ज्ञानचक्षु खोलने वाले पहले व्यक्ति थे। मुझे आधुनिक भारत में स्वामी के समान कोई भी विद्वान् ज्ञात नहीं।”39 वेदभाष्य की महर्षि दयानन्द शैली सर्वोत्तम है तथा उनका भाष्य प्रामाणिक है।
ऋषि चारों वेदों का भाष्य करना चाहते थे। एतदर्थ सम्वत् 1933 वि. में संस्कृत में चतुर्वेद-विषय-सूची लिखी। उसी वर्ष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की रचना की। यह ग्रन्थ पहली बार सोलह अंकों में छपा था। इसका प्रकाशन सम्भवतः चैत्र सम्वत् 1934 में शुरु होकर वैशाख 1935 वि. (मई 1878) में पूरा हो गया था। चारों वेदों के भाष्य की यह एक ही भूमिका है। यह ग्रन्थ महर्षि दयानन्द की वेदभाष्य शैली समझने के लिए जरूरी है। इसीलिए उन्होंने एक विज्ञापन में कहा था- “जो कोई भूमिका के विना केवल वेद ही लिया चाहे तो नहीं मिल सकते किन्तु भूमिका केवल 5) रु. देने से पृथक मिल सकती है।“40क
वेदभाष्य के नमूने के तौर पर ऋग्वेद के प्रथम सूक्त का भाष्य (जिस में गुजराती और मराठी अनुवाद भी था) महर्षि दयानन्द ने सम्वत् 1931 वि. में प्रकाशित किया था जो अब उपलब्ध नहीं है। फिर वेदभाष्य के नमूने का दूसरा अंक सम्वत् 1933 वि. में लाजरस प्रेस, काशी में छपवाया गया। इसमें ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त मन्त्र तथा दूसरे सूक्त के एक मन्त्र की व्याख्या थी।41 महेशचन्द्र न्यायरत्न आदि द्वारा इस पर किए गए आक्षेपों का भ्रान्ति-निवारण लिखकर ऋषि ने समुचित उत्तर दिया। फिर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मार्गशीर्ष शुक्ला 6, सम्वत् 1934 (तदनुसार 11 दिसम्बर, 1877) मंगलवार को ऋग्वेदभाष्य आरम्भ किया। सैन्तीस दिन बाद ही पौष शुक्ला 13, सम्वत् 1934 (17 जनवरी, 1878) वीरवार को यजुर्वेदभाष्य आरम्भ कर दिया जो लगभग पाँच वर्ष पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा 1, सम्वत् 1939 वि. को पूर्ण हुआ।42 ऋग्वेद भाष्य भी साथ-साथ चलता रहा। महर्षि दयानन्द ने भ्रान्तिनिवारण में आशा व्यक्त की थी “परमात्मा की कृपा से मेरा शरीर बना रहा और कुशलता से वह दिन देखने को मिला कि वेद भाष्य पूर्ण हो जाए तो निस्सन्देह आर्यावर्त्त देश में सूर्य का सा प्रकाश हो जायेगा।” परन्तु अभी उन्होंने ऋग्वेद के सप्तम् मण्डल के इकसठवें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक ही भाष्य किया था कि एक भीषण षड्यन्त्र के कारण विषपान से उनका महाप्रयाण हो गया। महर्षि दयानन्द के जीवनकाल में दोनों भाष्यों के इक्यावन-इक्यावन मासिक अंक ही प्रकाशित हो पाए थे। शेष भाग बाद में छपा।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा वेदभाष्यादि महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ संस्कृत व हिन्दी दो भाषाओं में हैं।
महर्षि दयानन्द को वेदभाष्य के लिए मुश्किल से दस वर्ष मिले। अपने जीवन के इस अन्तिम दशक (सम्वत् 1931 -1940 वि .) में उन्होंने आधे से अधिक भारत भूभाग में घूम-घूमकर धर्मोपदेश किया, ईश्वराधना में लीन रहे, शास्त्रार्थ किए, संस्कृत पाठशालाएँ खोलीं और वेदभाष्य समेत लगभग पच्चीस छोटी-बड़ी पुस्तकें लिखीं। इन हस्तलेखों का परिमाण बीस सहस्र पृष्ठ से कम नहीं है।
सायण को एक राजा का सहयोग प्राप्त था। मैक्समूलर की पीठ पर पूरा साम्राज्य था। इधर एक दयानन्द और दूसरा उसका परमात्मा। कोई साधन नहीं, पुस्तकालय तक नहीं। चन्द साधारण सहयोगियों के साथ विविध व्यस्तताओं के बावजूद थोड़े समय में इतना कार्य किया कि आश्चर्य होता है।
महर्षि दयानन्द ने अपने भाष्य में सायण, , महीधर, मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, विलसन आदि भारतीय एवं विदेशी भाष्यकारों के भाष्यों का खण्डन किया। वे अपना भाष्य समकालीन विदेशी विद्वानों को भेजते रहते थे। मैक्समूलर आदि से लोहा लेना सरल नहीं था क्योंकि तब भारतीय समाज के अंग्रेजी पढ़े-लिखे अगुवा (जैसे राजा राधाकान्तदेव, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानन्द आदि) तथा ब्रह्मसमाज सदृश संस्थाएँ उनका गुणगान करने में जुटी हुई थीं।43 ऋषि के इस सुप्रयास ने धारा का रुख बदल दिया। जो विदेशी लोग पूरी शक्ति से वेदों पर दोषारोपण कर रहे थे, उनका कुप्रयास विफल हुआ। वे अपने विचारों के प्रकाशन में सावधानी बरतने लगे।
वेदों को केवल असभ्य जाति के लिए मानने वाले मैक्समूलर ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को पढ़कर मानों प्रायश्चित करने के लिए ‘हम भारत से क्या सीख सकते हैं?’ नामक पुस्तक की रचना की। उसमें मैक्समूलर स्वीकार करता है- “मेरा निश्चित मत है कि मानव का, या यदि आप चाहें आर्य जाति का अध्ययन करने के लिए संसार में कोई ग्रन्थ वेद के समान महत्वपूर्ण नहीं है। मेरा यह विचार है कि आत्म-ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा रखने वाले तथा अपने पूर्वजों, इतिहास और मानसिक उन्नति के लिए सचेत प्रत्येक व्यक्ति के लिए वेद का स्वाध्याय नितान्त आवश्यक है।”44
मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य के नियमित ग्राहक थे। मोनियर विलियम्स 5 मार्च, 1876 को मुम्बई ऋषि के प्रवचन में उपस्थित थे और दोनों का परस्पर वार्तालाप हुआ था। मैक्समूलर की महर्षि दयानन्द से भेंट तो न हो सकी पर वे महर्षि दयानन्द के कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दयानन्द का जीवन-चरित लिखना चाहा था। मैक्समूलर ने महर्षि दयानन्द को इंगलैण्ड आने का निमन्त्रण भी दिया था। वही मैक्समूलर जिसने अपनी आयु का अधिकतम भाग और तब लगभग एक लाख रुपया व्यय करके सायण के ऋग्वेदभाष्य का संस्करण तैयार किया था, अब ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को संस्कृत साहित्य का अन्तिम ग्रन्थ घोषित करते हुए लिखता है- “ऋग्वेद से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तक के समूचे संस्कृत साहित्य को हम दो भागों में बांट सकते हैं। दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका किसी तरह भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।”45 मैक्समूलर ने आर्यसमाज लन्दन के प्रधान के नाम 7 जुलाई, 1888 के पत्र में लिखा था- “मुझे आर्यसमाज संस्था के साथ पूर्ण सहानुभूति है। आर्यसामाजिक पुरुषों को उचित है कि जो कुछ कार्य स्वामी जी कर गए, उसी पर सन्तुष्ट न रहें परन्तु उस कार्य को जारी रखें, जो वे अधूरा छोड़ गए हैं।”
मैक्समूलर ही नहीं, अपितु प्रायः सभी निष्पक्ष विद्वान् ऋषि के वेद सम्बन्धी विचारों का समर्थन करने लगे हैं। पावगी महोदय लिखते हैं- “वेद समस्त ज्ञान का भण्डार हैं।46 वह अपने एक और ग्रन्थ में यहाँ तक मानते हैं कि “वेदों में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनका अभी तक किसी को ज्ञान नहीं क्योंकि वे साहित्यिक धन की समाप्त न होने वाली खान हैं जिसका अभी थोड़ा भाग ही खुला है और जो अभी तक अज्ञात ही पड़ा है।47 इसी प्रकार बेल्जियम के नोबल पुरस्कार विजेता मैटरलिंक ने लिखा है “अतीत के रहस्यों पर डाली हुई अन्तर्दर्शी की एक मात्र दृष्टि ही वेदों में छिपी अद्वितीय ज्ञान को प्रकट कर सकती है।”48 पादरी मोरिस फिलिप ने स्वीकार किया है- “हम इस निष्कर्ष पर पहुँचने में न्यायोचित हैं कि वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर विचार आदिम ईश्वरीय ज्ञान का परिणाम थे।”
महर्षि दयानन्द वेद में विज्ञान भी मानते हैं। मैक्समूलर ने लिखा है- “महर्षि दयानन्द के लिए वेद में लिखी प्रत्येक बात न केवल पूर्णतया सत्य है अपितु वह इससे भी एक पग आगे गए तथा वह वेद की व्याख्या से दूसरों को यह निश्चय कराने में सफल हुए कि प्रत्येक जानने योग्य बात वेद में पाई जाती है, अतः आधुनिक विज्ञान के आविष्कार भी वेद में वर्णित हैं।”50 पी. एन. गौड़ लिखते हैं- “ऋग्वेद वैज्ञानिक सिद्धान्तों और परीक्षणों का वर्णन करता है जबकि रासायनिक वस्तुओं के तैयार करने की विधि तथा उपकरण यजुर्वेद में वर्णित हैं जो वास्तव में एक प्रयोगशाला मार्गदर्शक है।”51 डॉक्टर रेले स्वीकार करते हैं- “नाड़ी सिस्टम की रचना का हमारा आजकल का ज्ञान ऋग्वेद में दिए जगत के शाब्दिक वर्णन से इतनी अच्छी तरह मिलता है कि मस्तिष्क में यह प्रश्न उठने लगता है कि क्या वेद वास्तव में धर्म ग्रन्थ हैं या वे शरीर विज्ञान और नाड़ी सिस्टम की रचना विषयक ग्रन्थ हैं।52 सर विलियम जोन्स के विचारानुसार “शल्य चिकित्सा, औषधि शास्त्र, संगीत विद्या, नृत्यकला, धनुर्विद्या तथा गृहनिर्माण विद्या की व्यावहारिक कलाएँ जिनमें यान्त्रिक कला की पद्धति भी सम्मिलित है, वेदों से ली गईं हैं।”53 जैकोलियट ने लिखा है- “आश्चर्य की बात है ! सभी ईश्वरीय ज्ञानों में केवल हिन्दुओं का ईश्वरीय ज्ञान (वेद) ही है जिसके विचार आधुनिक विज्ञान के साथ पूर्ण रूप से मिलते हैं।54 वस्तुत: दयानन्दोत्तर काल में विद्वानों ने वेद में विज्ञान मानना शुरु कर दिया है। इस तथ्य की पुष्टि में कुछ उदाहरण लीजिए-
- ऋग्वेद में मन्त्र (1.50.9) आया है- सूरो रथस्य नप्त्यः यहाँ सूर्य को सब का प्रकाशक होने से सूर कहा गया है। रथ शब्द रंह धातु से बना है जिसका अर्थ ‘गति करना‘ है। नक्षत्र घूमते रहते हैं अतः उन्हें रथ की संज्ञा दी गई है। रथ planet का सही अनुवाद है क्योंकि planet लैटिन शब्द planeta से बना है जिसका अर्थ wanderer है। नप्त्यः का अर्थ ‘नहीं गिरने देना‘ है। सायण भी मानता है कि नप्त्यः न पातयित्र्यः याभिर्युक्ताभि रथो याति न पतति ताद्दशी। अर्थात् जो इसे नहीं गिरने देते, उन्हें नप्तयः कहते हैं। अतः सूरो रथस्य नप्त्यः का अर्थ है कि ‘सूर्य इस मण्डल के नक्षत्रों को गिरने नहीं देता।‘
ऋग्वेद एक और स्थान पर कहता है- उक्षादाधार पृथिवीमुतद्याम्। अर्थात् “सूर्य भूमि आदि नक्षत्रों को आकाश में रोके हुए है।” अथर्ववेद ने सूर्य्येणोत्तभिता द्यौ: कहकर इस सत्य का प्रतिपादन किया है। सूर्य नक्षत्रों को किस प्रकार रोके हुए है? इस प्रश्न का उत्तर यजुर्वेद (33.43) में दिया है-
आ कृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।
इस मन्त्र में स्पष्ट है कि धुरी के चारों ओर घूमने वाला यह सूर्य सौरमण्डल के भूमि आदि नक्षत्रों को अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा रोके हुए है।
यजुर्वेद में अन्यत्र कहा है कि वृषभो दाधार पृथिवीम् अर्थात् वृषभ पृथ्वी को धारण करता है। पौराणिकों ने वृषभ का प्रचलित अप्रासंगिक अर्थ बैल करके यह कथा प्रसिद्ध कर दी कि पृथ्वी बैल के सींग पर ठहरी हुई है। महात्मा यास्क ने वृषभ का अर्थ करते हुए लिखा है, वृषभः कस्मात् वर्षयिता अपाम्। जो जल बरसाए वह वृषभ। सूर्य जल को वाष्प बना उड़ा ले जाता है, फिर यही मेघ बन वर्षा करते हैं। इस प्रकार वृषभ का अर्थ हुआ ‘सूर्य‘। अतः इस मन्त्र में कहा गया है कि सूर्य पृथ्वी को धारण किए हुए है।
- सर्वप्रथम न्यूटन ने यह सिद्ध किया था कि सूर्य का सफेद प्रकाश वास्तव में सात रंगों की किरणों के मेल से बना है। परन्तु इस सिद्धान्त का प्रतिपादन परमात्मा ने आदि सृष्टि में ही ऋग्वेद (1.50.8,9) में कर दिया था। आठवाँ मन्त्र इस प्रकार है
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य। शोचिष्केशं विचक्षण।
हे सूर्य देव ! सात प्रकार की किरणें तेरे प्रकाश को नक्षत्रों तक ले जाती हैं। अगला मन्त्र अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः ताभिर्याँति स्वयुक्तिभिः। ‘नक्षत्रों को गिरने से बचाने वाला सूर्य पवित्र करने वाली सात प्रकार की किरणों को जोड़ता है।‘ आठवें मन्त्र में हरितः शब्द है। यह धातु से बना है जिसका अर्थ है- हर लेना, ले जाना। सूर्य की किरणें जल एवं विभिन्न रसों का हरण करती हैं। अतः उन्हें हरित: कहा गया है। निघण्टु के अनुसार हरित इत्यादित्याश्वानां संज्ञा हरित आदित्य स्येति। इस प्रकार निघण्टु में हरितः को आदित्याश्वा अर्थात् सूर्य के घोड़े बताया गया है। अश्वः ‘आशु‘ से बना है अतः इसका अर्थ है ‘तीव्र गति से ले जाने वाला‘। इसलिए घोड़े को भी अश्व कहते हैं। वेद में अश्व घोड़े के अतिरिक्त प्रकाश, विद्युत, उष्णता आदि के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। घोड़ा बेचारा चलता ही कितनी गति से है? प्रकाश की गति तो 186000 मील प्रति सैकिण्ड है। अतः निघण्टु ने हरितः को “सूर्य के प्रकाश को तीव्र गति से ले जाने वाली अथवा किरणें‘ बताया है।
नवें मन्त्र में प्रयुक्त शुन्ध्युवः शब्द का अर्थ है ‘पवित्र करने वाली‘। इससे प्रकट होता है कि प्राचीन आर्य किरणों के वायुमण्डल को पवित्र करने के गुण से परिचित थे। विज्ञान ने सिद्ध किया है कि सूर्य की किरणें अपवित्रता का नाश कर वायुमण्डल को पवित्र करती हैं। वैसे भी हम दिन-रात ऑक्सीजन ले रहे हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ रहे हैं। सूर्य के प्रकाश में कार्बन डाइऑक्साइड जल से मिलकर क्लोरोफिल की विद्यमानता में कार्बोहाईड्रेट बना देती है। इस प्रकार ‘प्रकाश संश्लेषण‘ होता रहता है, पौधों को भोजन मिल जाता है तथा वायु साफ हो जाती है।55क यह क्रिया अंधेरे में सम्भव नहीं। यही कारण है कि वायुमण्डल में दिन की अपेक्षा रात्री को कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 12 प्रतिशत बढ़ जाती है। भूमि पर पड़ने वाली सूर्य की ऊर्जा का दस सहस्रवाँ भाग इसी क्रिया में व्यय हो रहा है। इस प्रकार इन दो मन्त्रों में यह बताया गया है कि सूर्य अपनी सात प्रकार की किरणों को जोड़कर सफेद प्रकाश बनाता है।
ऋग्वेद (1.105.9) में भी यही संकेत मिलता है।
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभिरातता
‘सात प्रकार की किरणें मुझमें इस प्रकार मिलती हैं जैसे नाभि में अरे।‘ अथर्ववेद (7.107.1) में कहा है : अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मयः अर्थात् सूर्य की सात किरणें दिन को उत्पन्न करती हैं।
यह तथ्य वैदिक साहित्य में इतना व्यापक है कि सप्त रश्मि सूर्य का विशेषण बन गया है। यास्काचार्य भी मानते हैं कि सप्त ऋषयः रश्मयः आदित्ये अर्थात् सप्त ऋषयः सूर्य की किरणें हैं। वैसे सूर्य को सहस्त्र रश्मि कहते हैं। अतः सप्त रश्मयः का अभिप्राय सात किरणों वाला नहीं अपितु सात प्रकार की अथवा सात रंगों की किरणों वाला है। इन किरणों के रंगों का वर्णन छान्दोग्योपनिषद् (8.6.1) में किया है:
असौ वा आदित्यः पिंगल एष शुक्ल एष नील एष पीत एष लौहितः।
यहाँ सात रंगों की चर्चा नहीं है क्योंकि नीला, पीला और लाल, यही तीन मुख्य रंग हैं। बाकी रंग इन्हीं तीन रंगों के मेल से बन जाते हैं। परन्तु ऋग्वेद के सूर्य सूक्त के उपरोलिखित इन दो मन्त्रों (1.50.8,9) का अर्थ न समझ सकने के कारण यह पौराणिक गल्प प्रचलित हो गई कि सूर्य भगवान् अपने रथ में बैठे हैं और उस रथ को सात घोड़े खींच रहे हैं।
- अब एक उदाहरण रसायन विज्ञान का लीजिए। कैवेंडिश ने सिद्ध किया था कि दो भाग हाइड्रोजन तथा एक भाग ऑक्सीजन विद्युत के द्वारा परस्पर मिलकर जल बनाते हैं। पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी के अनुसार यही बात ऋग्वेद के (1.2.7) में कही गई है। :
मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादसम्। धियं घृताचीं साधन्ता।
‘यह मन्त्र उस रीति या क्रम (धियं) का वर्णन करता है जिससे … दो और पदार्थों (घृताचिम् साधन्ता) के संयोग से जल बनता है। साधन्ता शब्द द्विवचन है। यह इस बात का सूचक है कि दो मूल पदार्थ से ही मिलकर ही जल बनाते हैं। … उन दो पदार्थों के लिए मित्र और वरुण है।… सारे मन्त्र का अर्थ है- जो व्यक्ति दो जल बनाना का प्रयोग हुआ है। …. चाहे कि वह बहुत गर्म की हुई हाईड्रोजन और रिशाद धर्म वाली ऑक्सीजन को मिलाकर जल बना ले।32ग
- वेदादि शास्त्रों में औषधी विज्ञान का वर्णन भी है।55ख अनेक रोगों का कारण भिन्न-भिन्न रोगकीट माने गए है। अथर्ववेद के प्रथम काण्ड के अठाइसवें सूक्त के पहले मन्त्र में यातुधान, किमीदिन तथा राक्षस नामक रोगकीटों का वर्णन है। रोगकीटों की कुछ अन्य जातियों की चर्चा अथर्ववेद के दूसरे काण्ड के इकतीसवें सूक्त के दूसरे मन्त्र में की गई है। इसी सूक्त के चौथे मन्त्र में विषूचिका, दाद, खाज, राज्यक्षमा तथा पीनस आदि रोगों को उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं का उल्लेख है। पाँचवें मन्त्र में बताया गया है कि ये रोगकीट पर्वतों, वनों, औषधियों, पशुओं तथा जल में रहते हैं और हमारे अन्दर अन्न एवं जल के साथ प्रवेश करते हैं। रोगाणुओं के भोजन तथा पानी के द्वारा शरीर में प्रविष्ट हो जाने की बात यजुर्वेद (16.62) में भी कही गई है। अथर्ववेद (2.32.1) में बताया गया है कि उदय तथा अस्त होने वाले सूर्य की किरणें शरीर में रोग कीटों का नाश करती हैं। रोगकीट अंधेरे में खूब बढ़ते हैं। बैसिलस कॉली लगभग बीस मिनट में टूट कर दो कृमि उत्पन्न कर देता है। इस प्रकार यदि परिस्थितियाँ अनुकूल रहें तो केवल आठ घंटे में एक करोड़ साठ लाख कृमि उत्पन्न हो जाएँगे तथा चौबीस घंटे में उत्पन्न होने वाले कृमियों का भार चौदह हजार मन होगा। परन्तु सूर्य की उष्णता आदि प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण ये रोग कीट इस तेजी से नहीं बढ़ पाते।
- वैदिक साहित्य में गणित विद्या का भी उल्लेख है। अथर्ववेद के मन्त्र (13.4.16-21) लीजिए
न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते। न पञ्चमो न षष्टः सप्तमो नाप्युच्यते।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते। स एष एक एकवृदेक एव।
इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा एक है; दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ तथा दस नहीं हैं। इस प्रकार एक से दस तक गिनती इस मन्त्र में दी गई है। गिनती के अतिरिक्त योग एवं गुणा आदि का विधान भी वेद में है। यजुर्वेद (17.2) में बताया गया है कि एक को दस से गुणा करके दस, उसे पुनः दस से गुणा करके सौ, फिर इसी प्रकार हजार, दस हजार, लाख, दस लाख, करोड़, दस करोड़, अरब, दस अरब, खर्ब, दस खर्ब, नील, दस नील, पदम, दस पदम, शंख तथा दस शंख बनते हैं। इतनी बड़ी संख्या तक गिनती का क्रम बताना बहुत महत्व की बात है। प्रायः अन्य भाषाओं में बड़ी संख्याओं को हजार या लाख का कुछ गुणा बता कर ही कार्य चला लिया जाता है। यजुर्वेद (18.26) में किसी संख्या में दो तथा इससे अगले मन्त्र में चार के योग तथा घटाने से बनने वाली संख्याओं की चर्चा है। ऋग्वेद (10.130.3) में वृत्त की परिधि तथा अथर्ववेद (8.9.2) में त्रिभुज का वर्णन है।
अतः सत्य-विद्याएँ बीज रूप में वेद में विद्यमान हैं। वेद न किसी आदिम असभ्य जाति के प्रकृति के प्रकोप से भयभीत होकर गाए गीत हैं, न वर्तमान में प्रचलित अन्धविश्वासों की पुष्टि करने वाला दस्तावेज़। यह सार्वकालिक सार्वभौमिक लोकोपकारी सच्चाइयों का भण्डार है। इसके सत्यार्थों एवं रहस्यों का समझना महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित प्राचीन ऋषियों की पद्धति से सम्भव। तभी हमें एहसास होता है कि हम कितनी समृद्ध विरासत के वारिस हैं। यह एहसास हमें अन्धविश्वासों तथा वहम से छुटकारा दिलाता है, मतमतान्तरों में फंसने से बचाता है और विश्व समुदाय में एक गौरवपूर्ण स्थान का अधिकारी बनाता है। परम पिता हमें वेद मार्ग पर चलने की शक्ति दें।
- “… Rationalism itself is not a perfect instrument for the understanding of life.”
- “There is, therefore, no proof of continuously increasing intellectual power.”
– A. R. Wallace, Social Environment and Moral Progress
- “…We will wait for one, be he a God or an inspired man to instruct us in religious duties and to take away the darkness from our eyes.”
– Plato’s Alcibiades
- “… We may well concede that if the Gospel had not previously taught the universal moral laws in their full purity, reason would not yet have attained so perfect an insight of them.”
- (क) India: What can it teach us?
– F. MaxMuller, Rupa & Co.,New Delhi, 2002, p. 85
(ख) The Vedas : What is the Veda?
– F. MaxMuller, Sushil Gupta Ltd., Calcutta, 1956, p. 14
- “The Vedas are without doubt the oldest works composed inSanskrit Even the most ancient Sanskrit writings allude to theVedas as already existing.”
– Heeren, Historical Researches, Vol.II, p. 127
- “… After the latest researches into the history andchronology of books of Old Testament, we may safely now call the Rigveda as the oldest book, not only of the Aryan race, but Pof the whole world.”
– Rev. Morris Philip, The Teachings of the Vedas, p. 104
- “Names are to be found in the Veda as it were in a still fluid state. They never appear as appellatives, nor yet as proper nouns.”
– F.Max Muller, A History of Ancent Sanskrit Literature, pp. 506-507
- “It is a thoroughly scientific religion, where religion and sci- ence meet hand in hand. Here theology is based upon science and philosophy.”
– W.D. Brown, The Superiority of the Vedic Religion
- “Sanskrit is more perfect and copious than Greek and Latin. At one time, Sanskrit was the one language spoken all Lover the world.”
– Bopp, Edinburgh Review, Vol. 33, p.43
- “India was the motherland of our race and Sanskrit the mother of Europe’s languages.”
– Will Durant, Vision of India
- “A work which is spiritual and superior beyond comparison, even to name in one breath with the Bible would be a sin.”
- महर्षि दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थप्रकाश, सप्तम् समुल्लास
- महर्षि दयानन्द सरस्वती, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, (क) वेदोत्पत्ति विषय:, (ख)प्रश्नोत्तर विषय:
- महर्षि दयानन्द भ्रमोच्छेदन में लिखते हैं, “मैं ब्राह्मण पुस्तकों को भी वेद नहीं मानता क्योंकि जो ईश्वरोक्त है, वहीं वेद है। जीवोक्त को वेद नहीं कहते।” (तुलना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदसंज्ञा-विचार:)
- रामप्रकाश (डॉ.), गुरु विरजानन्द दण्डी, सत्यार्थप्रकाशन, कुरुक्षेत्र, 2012, पृष्ठ
- द्रष्टव्यः (क) सत्यानन्द शास्त्री, क्या प्राचीन आर्य लोग मांसाहारी थे? सत्यार्थ प्रकाशन, कुरुक्षेत्र; (ख) विश्वनाथ विद्यामार्तण्ड, वैदिक पशुयज्ञमीमांसा, गुरुकुल कांगड़ी; नरदेव वेदतीर्थ, यज्ञे पशुवधोवेदविरुद्ध:, गुरुकुल ज्वालापुर
- “It was the most precious gift for which the West had ever been indebted to the East,” said Voltaire, (Quoted here from H.H. Wilson’s Essays, Vol.III)
- “There is no monument of Greece. or Rome more preciousthan the Rigveda,” opined Mons. Leon Delbos.
- “What extracts from the Vedas I have read, fall on me like the light of higher and purer luminary which describes a loftiercourse through stratum-free from particulars, simple and universal,” says Thoreau.
- “I remind you again that the Veda contains a great deal of what is childish and foolish, though very little of what is bad and objectionable… Many hymns are utterly un-meaning and insipid.”
– F.MaxMuller, What is the Veda? p.34
- राहुल सांकृत्यायन, वैज्ञानिक भौतिकवाद, पृष्ठ 104
- “Raja Ram Mohan Roy was in London and saw Friedrich Rosen at the British Museum busily engaged in copying manuscripts of the Rigveda. The Raja was surprised and told Rosen that he ought not to waste his time on the hymns, but that he should study the Upanishads.”
– F.Max Muller, Biographical Essays, cf. Clayton, The Rigvedaand Vedic Religion, p.21
- Sir George O.Bart, Life and Letters of Lord Macaulay
- “That the special object of his (Boden’s) munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian religion.” Monier Williams, in the introduction of Sanskrit-English Dictionary
- This edition of mine (of the Rigveda) and the translation of the Vedas will hereafter tell to a great extent on the fate of India and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last 3000 years.”
– The Life and Letters of F.MaxMuller, edited by his wife, Longmans, London, 1902, p.346
- “But the ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be?”
– ibid, p.378
- अरविंद, वेद-रहस्य, प्रथम भाग, श्री अरविंद सोसायटी पांडिचेरी, 1971, (क) पृष्ठ 60, पृष्ठ 58, 55, (ग) पृष्ठ 68
- धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, वेदों का यथार्थ स्वरूप, प्रथम संस्करण, 1957, (क) पृष्ठ 43
- A.A.Macdonell, Vedic Mythology
- Works of Pandit Guru Datta Vidyarthi, edited by Dr. Ram Prakash, (क) Terminology of the Vedas and European Scholars, p.20, (ख) Vedic Text No.1, (ग) Vedic Text No.II
- “No one who knows anything of the Veda would think of attempting a translation of it at present. A translation of the Rigveda is a task for the next century… If by translation we mean a complete and satisfactory and final translation of the whole Rigveda….. not only shall we have to wait till the next century for such a work, but I doubt whether we shall ever obtain it.”
– Sacred Books of the East, Vol. XXXII, Introduction
- “What struck me in MaxMuller’s translation was a lot of absurdities, obscene passages, and a lot of what is not lucid… As for as I can grasp the teaching of the Vedas, it is so sublime that I would look upon it as a crime on my part, if the Russian public become acquainted with it through the medium of a confused and distorted translation, thus not deriving for its soul that benefit which this teaching should give to the people,” says P.A.Boulanger.(quoted here from T.L Vaswani’s Torch Bearer).
- “Come, O Vayu, these Somas are prepared. Drink of them; hear our invocation.”
– Original Sanskrit Texts, Vol.II, pp.205
- “Vayu pleasant, to behold, approach. These libations are prepared for thee, drink of them; hear our invocations.”
– Rigveda Translation and Notes, Vol.I
- अरविन्द, वेद-रहस्य, प्रथम भाग, (क) पृष्ठ 58, 55, (ख) पृष्ठ 68
- “In the matter of Vedic interpretation, I am convinced that whatever may be the final complete interpretation, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues… He has found the keys of the doors that time had closed and rent asun- der the seals of imprisoned fountains.” Aurobindo, Vedic Magazine, November 1916
- “Swami Dayanand Saraswati was in the first place, India’s eye opener to the wisdom of the Vedas. I know none in modern India who was so great a scholar as the Swami.”
- महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन, (क) भाग 1, पृष्ठ 256, (ख) भाग 1, पृष्ठ 426 भाग 2, पृष्ठ 517, 546, 572, 650,673, (ग) भाग 1 पृष्ठ 458, 465; भाग 2, पृष्ठ 609, 612, 669, 766
- ऋग्वेद के प्रथम नौ मन्त्रों का भाष्य‘ नाम से यह पुस्तक बाद में वैदिक यन्त्रालय अजमेर से छपी थी। इसे ‘वेदप्रकाश‘ पत्रिका ने अगस्त 1953 में ‘ दयानन्द ग्रन्थ संग्रह‘ नामक अपने विशेषांक में पृष्ठ 156-170 पर छापा था।
- युधिष्ठिर मीमांसक, मेरी दृष्टि में महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके काम; ऋषिदयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, 1983, पृष्ठ 119-148
- N.Mookerjee, I point to India-Selected Writings of MaxMuller, pp. 1-22
- “I maintain then that for a study of man, or, if you like, for a study of Aryan humanity, there is nothing in the world equal in importance with the Veda. I maintain that to everybody who cares for himself, for his ancestors, for his history, or for his intellectual developement, a study of Vedic literature is indispensable.”
– F.MaxMuller, India what can it teach us?, p.80
- “We may divide the whole of Sanskrit literature beginning with the Rigveda and ending with Dayananda’s Introduction to his edition of the Rig-veda, his by no means uninteresting Rigveda-bhumika, into two great periods.”
– F.MaxMuller, India what can it teach us?, p.63
- “The Veda is the fountain-head of knowledge, the prime source of inspiration, nay the grand repository of Divine wisdom and even eternal truths.”
– N.B. Pavgee, Vedic India Mother of Parliaments
- “The Vedas contain many things not yet known to anybody, as they form a mine of inexhaustible literary wealth, that has still remained unexplored.”
– N.B. Pavgee, The Vedic Fathers of Geology
- “Only the gaze of the clarivoyant, directed upon the mysteries of the past, may reveal un-uttered wisdom which lies hidden behind these writings (The Vedas).”
– Maeterlinck, The Great Secret, p. 9
- “We are justified, therefore, in concluding that higher and purer conceptions of the Vedic Aryans were the results of a primitive Divine Revelation.”
– Morris Philip, The Teachings of the Vedas, p.231
- 50. Max Muller, Biographical Essays
- “The Rigveda deals with the theorms and experiments, whilethe process of preparing the reagents and apparatus is recordedin the Yajurveda which is infact, a laboratory guide.”
– P.N. Gaur, Introduction to the Message of the 20th Century
- “Our present anatomical knowledge of the nervous system tallies so accurately with the world given in the Rigveda that a question arises in the mind whether the Vedas are really feligious books or whether they are books on anatomy and physiology of the nervous system.”
– Dr. Rele, The Vedic Gods
- “From the Vedas are deduced the practical arts of surgery, medicines, music, dancing, archery and architect under which the system of mechanical art is included.”
- “Astonishing fact! The Hindu Revelation (Veda) is of all revelations the only one whose ideas are in perfect harmony with Modern Science.”
– M.L. Jacolliat, The Bible in India
- रामप्रकाश (डॉ.), यज्ञ-विमर्श, सत्यार्थ प्रकाशन, कुरुक्षेत्र, 1997, (क) पृष्ठ 65-66, (ख) पृष्ठ 72-76