परमहंस स्वामी दयानन्द जी प्रत्येक बालक और बालिका की सुशिक्षा के बड़े पक्ष पोषक थे। उनका यह मत था कि शिक्षा के बिना मनुष्य मण्डल का सुधार होना असम्भव है, उन में एकता का होना नितान्त कठिन है। एक धर्म, एक भाषा, एक उद्देश्य और एक भाव, ये गुण किसी भी जाति की उन्नति के मुख्य साधन हैं, और वे शिक्षा के बिना सम्पादित नहीं किये जा सकते। महाराज शिक्षा का आरम्भ पाठशाला से नहीं मानते थे। उनका विश्वास था कि सच्ची शिक्षा का अथ श्री तभी से होता है, जब सन्तान माता की कोख में सुरक्षित लता की भाँति पला करती है। उस समय के पैतृक संस्कार सन्तान को अच्छा बुरा बनाने में प्रबल कारण हुआ करते हैं। माता पिता के आचार विचार, कर्म धर्म, और भावना भाव की सन्तान साक्षात् प्रत्याकृति होती है। वैदिक संस्कारों की यह विशेषता सर्वमान्य हो रही है।
नन्हे से बच्चे को माँ बाप किस प्रकार सिखावें, इस विषय में परमहंस जी का यह उपदेश है:—“माता बालक को सदा उत्तम उत्तम बातें सिखावे जिस से उसकी सन्तान सभ्य बन जाय, और किसी प्रकार की कुचेष्टा कुव्यवहार न कर सके। जब बच्चा बोलने लगे, तभी से उस की माता ऐसे प्रयत्न करे जिस से बालक की जीभ कोमल हो कर सध कर शब्दों का स्पष्ट उच्चारण करने लग जाय। जब बालक कुछ अधिक बोलने लगे, तब उसे सुन्दर, सुगम और सरल वाक्य बोलने सिखावे। छोटे बड़ों से, माता पिता से, प्रतिष्ठित जनों से, राजा और विद्वानों से कैसे मिलना, वर्त्तना, सम्भाषण करना इस की रीति नीति की शिक्षा दे। बैठने उठने का सभ्याचार समझावे।”
“माता पिता ऐसा प्रयत्न सदा करते रहें जिससे उनकी सन्तान जितेन्द्रिय बने, विद्याप्रेमी हो और सत्संग में रुचि रखे। उनमें रोने झीकने का स्वभाव न उत्पन्न होने दें, लड़ने झगड़ने की आदत न डालें। उनको सत्यभाषी और निर्भय वीर बनावें। धेर्य रखना, सदा सुप्रसन्नवंदन रहना, आदि शुभ गुणों का विकास उन में जैसे भी हो, करावें।”
“जब पुत्र पुत्री पाँच वर्ष के हों, तब उन को देवनागरी अक्षर सिखाना आरम्भ कर देना चाहिए। अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का अभ्यास कराना भी उचित है। तदनन्तर ऐसे मन्त्र, ऐसे श्लोक, ऐसे सूत्रादि गद्य पद्य कण्ठस्थ करावें जिन से उन को अनेकानेक उत्तमोत्तम शिक्षाएँ मिलें, उनकी विद्या बढ़े और धर्म तथा परमेश्वर में प्रीति उत्पन्न हो। वे माता, पिता, आचार्यादि को सम्मान दें; ज्ञानी और अतिथि जनों का आदर आतिथ्य करें। राजा से, प्रजा से, कुटुम्ब से और बन्धुवर्ग से उचित बर्ताव करना सीख जायँ; नौकर चाकरों के साथ यथायोग्य व्यवहार कर सकें।” दुर्गुणों से बचने की शिक्षा देना भी गुरुजनों का गुरुतर कार्य है, क्योंकि बाल्य काल में वे ही बालक के तन का मन का और मस्तिष्क का निर्माण करने वाले, मोड़ने वाले और उनको शुभ प्रवृत्तियों में जोड़ने वाले हुआ करते हैं। इस पर श्री स्वामी जी का उपदेश है—“माता, पिता तथा अध्यापक जन बालकों को चोरी चारी से बचने की शिक्षा दें। उन्हें ऐसी शिक्षा दें जिस से आलस्य और प्रमाद उनके निकट न आने पावे। उनमें मिथ्या भाषण का दोष कदापि न आवे। उन से हिंसा, क्रूरता, ईर्ष्या, द्वेष और मोह आदि दुर्गुण दूर हो जायँ और वे सदाचारी बनें।”
शिक्षा का एक श्रेष्ठ और सुन्दर अंग शिष्टाचार है। कितना ही कोई पढ़ालिखा हो, शरीर से सुन्दर हो, वस्त्रों से सजा हो, और हारसिंगार से बना ठना हो, परन्तु यदि उसे शिष्टाचार नहीं आता तो वह सभा समाज में निरा विहंगम ही दिखाई देगा, लोगों के उपहास ही का स्थान बनेगा। परमहंस जी ने शिष्टाचार की शिक्षा के विषय में यह उपदेश दिया है—“बालकों को चाहिए कि वे दृढ़प्रतिज्ञ हों, यह स्मरण रक्खें कि प्रतिज्ञा भंग करना, वचन दे कर न पालना, बड़ा भारी पातक है। वे सदा कृतघ्नता रूप दोष से दूर रहें, क्रोध न करें, कटु वचन उच्चारण न करें। सदा, शीतल और मधुर वचन ही बोलें। बहुत बक बक और वितण्डावाद का स्वभाव न बनावें। उचित, हित और मित भाषी बनें बड़े बूढ़ों को समादर दें; उन को आते देख उठ खड़े हों। अभ्यागमन पूर्वक उनका स्वागत करें। पहले नमस्ते निवेदन कर के उनको उच्चासन पर बैठावें। तत्पश्चात उनके सामने उत्तम आसन पर आप भी बैठें। सभा समाज में, अपनी योग्यता के अनुसार, पहले ही ऐसे स्थान पर बैठें जहाँ से कोई उठा न सके। किसी से वैर विरोध न बाँधे धनी होने पर भी गुणों के ग्रहण और दोषों के परित्याग का स्वभाव न छोड़ें। सज्जनों का सत्संग करें, दुर्जनों से दूर रहें। अपने माता पिता और आचार्य की तन, मन और धनादि उत्तमोत्तम पदार्थों से प्रीतिपूर्वक सेवा करें।” बालकों को चाहिए कि, “आज्ञापालन करें। निन्दा कभी न करें। सदा शान्त रहें। गुरुजनों से पूछने योग्य प्रश्न हाथ जोड़ कर पूछें। घमण्डीपन न दिखावें। वस्त्र स्वच्छ रक्खें। उत्तम जनों को सम्मान दें। कृत हों। अपने में कृतघ्नता और आलस्य प्रमाद कदापि न आने दें। आत्मिक, मानसिक और शारीरिक बल बढ़ावें।” “माता, पिता तथा आचार्य अपनी सन्तान और शिष्यों को सदा सदुपदेश दें और यह भी कहें कि जो हमारे धर्म्मयुक्त कर्म हैं, उन्हीं को आप ग्रहण कीजिये। जो दुष्ट कर्म हों उन को छोड़ दीजिये। जो जो सत्य समझिये, उसी का प्रकाश और प्रचार कीजिये।”
श्री स्वामी दयानन्द जी जिस काल कटि कस कर कार्य क्षेत्र में उतरे थे, उस समय जो शिक्षा भारतीय भावों को लिये, पुरानी पद्धति पर, परम्परा से चली आती थी, उसका अधिकांश लुप्त हो चुका था। जो रही सही थी वह सिसकती हुई अन्तिम साँस ले रही थी। वह प्राचीन शिक्षा कुछ थोड़े से लोगों का ही इजारा न थी। उसमें विशेषता यह थी कि वह उदार भावों से दी जाती थी। वह भारतीयों को भारतीय और सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाती थी। अधिकांश मनुष्यों को वह बिना शुल्क उपलब्ध होती थी। भारतीय भावों की शिक्षा का अभाव कर के उस की भस्म पर जो भारी भवन खड़ा किया गया था, उसका नाम सरकारी शिक्षा था। उस सरकारी शिक्षा का महामन्दिर यद्यपि हिन्दुओं को उस समय मनमोहक जान पड़ा, परन्तु कुछ काल के अनन्तर नेता जनों को उस का मूल्य और महत्व स्पष्ट दीखने लग गया।
आरम्भ समय में, सरकारी शिक्षा सरकार द्वारा तो दी ही जाती थी, पर ईसाई लोग भी इसे अपने धर्म प्रचार का एक अच्छा साधन जान कर इस का प्रचार कर रहे थे। पहले पहले इस सुवण सदृश मायामय मृग ने हिन्दुओं ही के मनों को मोहित किया। इस का परिणाम यह निकला कि अनेक कुलीन जनों ने अपने धर्म कर्म और जाति बिरादरी तक को जलाञ्जलि दे दी। जो सज्जन इतनी दूर न गये, उन्होंने वेश, विभूषा, भाव और भाषा में एक भारी भेद उत्पन्न कर के एक नई जाति की नीव रखनी आरम्भ की। ऋषि दयानन्द के कार्यारम्भ काल में यह परिणाम अपने पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष हो गया था। उन को तो शिक्षण का यह स्वरूप एक स्वाँग सा दिखाई दिया, आर्य मर्यादा के अपहरणार्थ ब्राह्मण वेश में रावण जान पड़ा।
सरकारी शिक्षा का यंत्र नौकरशाही की दमन नीति के संकुचित साँचे में ढला था इस कारण वह ऐसे ही मनुष्य निकालता था जो अधीनस्थ हो कचहरियों की चक्की पीस सकें और दफ्तरों का ताना बाना भली भाँति तनते बुनते रहें। यह शिक्षण अनुदार और बहुव्यय साध्य था। यह धर्म और जातीय भावों से निरा कोरा था। श्री स्वामी जी इसे एक सिरे से ही बदल देना चाहते थे। इस अभद्र भवन के स्थान वे वैदिक संस्कृति की सर्वाङ्गसुन्दर एक विशाल शाला निर्माण करने की सामग्री उपस्थित कर रहे थे। उनके शिक्षा सम्बन्धी विशुद्ध सिद्धान्तों का सार यह है:—“विद्यालय में सब विद्यार्थियों को समान खान पान, वस्त्र और आसन दिये जाने चाहिएँ चाहे वे राजकुमार, राजकुमारी हों और चाहे दरिद्र जन की सन्तान। सभी को तपस्वी बनना उचित है।” “ऐसा राजनियम और जातीय नियम हो कि कोई जन अपने लड़के लड़की को घर में न रखे, पाठशाला में अवश्यमेव भेजे। जो न भेजे उसे दण्ड दिया जाय।” जो जन अपनी सन्तानों को विद्यादान देते हैं, और जिस देश में उदार भाव से सार्वजनिक शिक्षा दी जाती है, उसके प्रति महाराज के भाव इस प्रकार के थे— वे “ही जन धन्यवाद के योग्य हैं, कृतकृत्य हैं जो अपनी सन्तानों के शारीरिक और आत्मिक बल को ब्रह्मचर्य्य से, उत्तम शिक्षा और विद्यादान से बढ़ाते हैं। जिस देश में ब्रह्मचर्य का पालन, विद्या की वृद्धि और वेदोक्त धर्म का प्रचार हो, वही देश सौभाग्यशाली समझना चाहिए।” “जिन जनों का मन विद्या विलास में तत्पर रहता है, जो सत्य भाषणादि नियम पालन करते हैं, अभिमान और अपवित्रता से ऊपर हैं, दूसरों की मलिनता दूर करते हैं, सत्योपदेश से और विद्यादान से संसारी जनों के दुःख दूर करने से सुभूषित हैं और वैदिक कर्मों से परोपकार करने के लिये रात दिन लगे रहते हैं, वे नर नारी धन्य हैं।”
श्री परमहंस जी विद्या का सुस्वादु फल इन शब्दों में वर्णन करते हैं:—“स्वार्थ और परार्थ, इन दो प्रयोजनों को विद्या सिद्ध करती है ऐसा आत्मा किस मनुष्य का होगा जो सुख सिद्ध करने वाले व्यवहारों को छोड़ कर उलटे आचरण करने में प्रसन्न हो ? क्या यथार्थ व्यवहार किये बिना किसी को सर्व सुख मिल सकता है ? क्या सुशिक्षा के बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है ? और क्या विद्या विहीन जन पशु समान नहीं हैं ? सत्य तो यह है कि आज तक किसी मनुष्य को विद्या के बिना सुख प्राप्त नहीं हुआ। विद्या प्राप्ति से वस्तुओं का यथार्थ ज्ञान, व्यवहारों का यथावत् बोध प्राप्त कर के आप सुखी होना और परोपकार द्वारा जनता को सुखी करना विद्या का फल है जिस देश में, जिस जन में, विद्या रूप सूर्य का अभाव है और अविद्यान्धकार की वृद्धि है, वहाँ दुःखों की भरमार हुआ ही करती है जहाँ विद्या का सूर्य अपने प्रकाश से अविद्यान्धकार को नष्ट कर देता है, उस देश और आत्मा में सदा आनन्द का संयोग बना रहता है और दुःखों को कहीं ठौर ठिकाना तक नहीं मिलता।”
स्वामी जी महाराज देवनागरी अक्षरों और आर्य भाषा के बड़े पक्के पक्षपाती थे। वे चाहते थे कि भारतवर्ष भर में इनका प्रचार हो जाना चाहिए। प्रत्येक आर्य समाजी के लिये आर्य भाषा का सीखना उन्होंने आवश्यक ठहराया है। यद्यपि उनकी अपनी मातृ भाषा गुर्जर थी, उसमें वे बड़ी सुगमता के साथ अपनी पुस्तकें लिख सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण पुस्तकें आर्य भाषा ही में लिखवाई और छपवाई। अपने जन्म देश में भी जा कर व्याख्यान दिये तो आर्य भाषा ही में दिये। उनका भारत भर में भाषा ऐक्य करने का यह उत्कृष्ट कर्म इस देश के निवासियों को सदा स्मरण रहेगा।
एक बार एक सज्जन ने स्वामी जी से निवेदन किया—“भगवन, यदि आप अपनी पुस्तकों का अनुवाद करा के फारसी अक्षरों में छपा दें तो पंजाब आदि प्रान्तों के जो लोग नागरी अक्षर नहीं जानते, उन को आर्य धर्म के जानने में बड़ी सुविधा हो जाय।”
उत्तर में स्वामी जी बोले—“भाई, अनुवाद तो विदेशियों के लिये हुआ करता है। नागरी अक्षर थोड़े ही दिनों में सीख लिये जाते हैं। आर्ष भाषा का सीखना भी कुछ कठिन नहीं है। अरबी फ़ारसी के शब्दों को छोड़ कर ब्रह्मावर्त की सभ्य भाषा ही आर्य भाषा है। यह सुकोमल और सीखने में सुगम है। जो मनुष्य देश में जन्म ले कर अपनी भाषा तक के सीखने में परिश्रम नहीं करता, उससे और क्या आशा की जा सकती है ? उसको धर्म की लगन है, इसका भी क्या प्रमाण है ? महाशय, आप तो अनुवाद की सम्मति देते हैं, परन्तु दयानन्द के नेत्र तो वह दिन देखना चाहते हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक देवनागरी ही के अक्षरों का प्रचार होगा। मैंने भारतवर्ष में भाषा का ऐक्य सम्पादन करने ही के भाव से अपने सारे ग्रन्थ आर्य भाषा में बनाये और छपवाये हैं।”