महर्षि दयानन्द का अवतरण वेदों की, वैदिक धर्म की और वैदिक सभ्यता की रक्षा के लिये हुआ था। इस कर्तव्य कर्म का पालन करने में उन्हों ने भरसक पुरुषार्थ किया और कोई भी यत्न उठा न रक्खा। इस परम कर्म को करते हुए उन के कार्य क्षेत्र के आकाश में कई बार निराशा की सघन घोर घटाएँ घिर आई। विरोध की आँधियों ने भूतलाकाश को एकाकार कर दिया छोटे छोटे दल रूपी नदी नाले भी उनका मार्ग रोकने के लिये उछल उठे, उमड़ पड़े। पर उधर भी निर्द्वन्द्व दण्डी दयानन्द थे जो दुःख सुख, जीवन मरण, शीतोष्ण और मानापमान को समान जान वैदिक संस्कृति की संरक्षा में रात दिन तत्पर रहे। वे अपनी धर्म धारणा के एक अंगुल भी इधर उधर नहीं हुए। जब उनको पता लगा कि भवती ब्लैक्टस्की जी वेदों को ईश्वरादेश स्वीकार नहीं करतीं, तब उन्हों ने थियासोफिकल सोसायटी और आर्य समाज का सम्बन्ध तार तुरन्त तोड़ डाला। वङ्ग देश के ब्रह्म समाजियों ने चाहा कि स्वामी जी वेद विश्वास को ढीला कर दें परन्तु उन्हों ने नहीं माना। इसी कारण बम्बई प्रान्त के प्रार्थना समाजी भी उनके साथ उदासीनता दिखाने लग गये। पंजाब के ब्राह्म समाजियों ने बड़े आदर के साथ उन को लाहौर बुलाया। उनके खान पान और आने जाने आदि के व्यय का सारा बोझ अपने ऊपर लेने का वचन दिया। पर जब उन्हों ने देखा कि स्वामीजी तो वेदों के पक्के विश्वासी और परम भक्त हैं, तब वे इतने बिगड़े कि अपने आमन्त्रित अतिथि का अन्न जल तक से भी आदर आतिथ्य करना छोड़ बैठे। महामुनि ने लाहौर में लङ्गर मस्ती, भूखे रहना तो सह ली, पर अपने उद्देश्य से, लक्ष्य से, श्रद्धा विश्वास से, शिथिल हो कर सन्धि नहीं की।
महाराज का विश्वाश था कि परमात्मा ने चारों वेदों का प्रकाश चार ऋषियों के अन्तःकरण में किया था। इस के स्पष्टीकरण के लिये जो दृष्टान्त उन्हों ने दिया है, उस का भाव यह है—“जैसे कोई वादित्र बजावे अथवा कठपुतली को नचावे तो वह क्रिया बाजे और कठपुतली की नहीं, किन्तु बजाने और नचाने वाले की होती है, उसी प्रकार वेदों का प्रकाश तो ईश्वर ने किया था, वे ऋषिजन केवल निमित्त मात्र बनाये गये थे।” “ईश्वर सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक है। भीतर बाहर व्याप्त होने से, वेदोपदेश के लिये उसे मुखादि अवयवों की क्रिया की कुछ भी आवश्यकता नहीं। शब्दोच्चारण की क्रिया तो अपने से पृथक् व्यक्ति के लिये की जाती है अपने भीतर तो मुखादि की क्रिया के बिना ही अनेक विचार और शब्दोचारण होते रहते हैं। कानों को उँगलियों से बन्द कर के सुनो और समझो कि मुखादि अवयवों की चेष्टा के बिना ही कैसे शब्द हो रहे हैं। जैसे ये शब्द बाहर की प्रेरणा के बिना होते हैं, वैसे ही अन्तर्यामी रूप से जगदीश्वर ने जीवों को वेदोपदेश किया है।” वेदार्थ ज्ञान का आदेश सब महर्षि मण्डल के मन में होता है—“धार्मिक, योगी, महर्षि जन जिस समय जिस मन्त्र के अर्थ जानने की जिज्ञासा से, ध्यानावस्थित हो, परमात्म स्वरूप में समाधिगत हुए, तभी तभी परमेश्वर ने उन पर अभीष्ट मन्त्रों के अर्थों का प्रकाश किया। इसी वेदार्थ को ऋषि मुनियों के इतिहास के साथ मिला कर ऋपियों ने ब्राह्मण ग्रन्थों की सृष्टि की। ब्राह्मण प्रन्थ वेद का व्याख्यान हैं।” “जैसे आप्तों का कथन प्रमाण माना जाता है, वैसे सब के गुरु, परम आप्त परमेश्वर का उपदेश भी प्रमाण है।”
वेद के मुख्य तात्पर्य को, वेद के मुख्य अर्थ को, और वंद की प्रवृत्ति को, जिन शब्दों में श्री स्वामी जी ने वर्णन किया है, उन का सारा सार मर्म यह है:—“परमेश्वर तीनों कालों के व्यवहारों को यथावत् जानता है। वही सब का कारण, आनन्दमय और सुख स्वरूप है। सर्वशक्तिमान् परब्रह्म भी वही है। ‘ओम’, ‘खम’ यदि उसके नाम हैं। उसी में सब वेदों का तात्पर्य है। उसी की प्राप्ति कराने में सारे वेद प्रवृत्त हो रहे हैं। उस की प्राप्ति के सम्मुख किसी भी पदार्थ की प्राप्ति उत्तम नहीं है। और जो जगन् का वर्णन, दृष्टान्त और वस्तुओं का उपयोग आदि प्रदर्शन किया गया है, वे सब भी परब्रह्म ही को प्रकाशित करते हैं।”
“सब वेद वाक्यों में विशेषता से ब्रह्म ही का प्रतिपादन है, परन्तु कहीं साक्षात् रूप से है और कहीं परम्परा रूप से। अतएव वह परब्रह्म वेदों का परम अर्थ है। परमेश्वर ही वेदों का मुख्य अर्थ है। उस से पृथक् जो यह जगत् है, सो वेदों का गौण अर्थ है। इन दोनों में प्रधान अर्थ ही का ग्रहण किया जाता है। इस का सारांश यही है कि वेदों का मुख्य तात्पर्य परमेश्वर ही के प्राप्त कराने और प्रतिपादन करने में है।”
स्वामी जी महाराज वैदिक संस्कृति के प्रबल पोषक थे। वेदों के भावों को ले कर उपवेद, वेदांग और उपांग आदि जो आर्ष ग्रंथ बने हैं, वे सब वैदिक संस्कृति की सुकोमल, सुकुसुमित और अतिशय सुन्दर शाखाएँ हैं। विविध प्रकार के बहुमूल्य मणि मोतियों से भरा पूरा भण्डार जो श्रयं साहित्य है, वह वैदिक संस्कृति ही का उज्ज्वल अंश है। स्वामी जी आर्ष साहित्य सरोवर को सुरक्षित रखने के लिये सदा सन्नद्ध रहा करते थे। किसी आर्ष ग्रन्थ का अनादर नहीं करते थे, किन्तु उसे प्रमाण मानते थे। उनके उपदेशों में वैदिक संस्कृति एक सुगठित, सुपुष्ट और परम सुन्दर शरीर है। वेद उसका मुख्य मेरु दण्ड है। ग्रन्थ उसके अंग और उपाङ्ग हैं। यद्यपि मेरु दण्ड के साथ लगे हुए अङ्गोपाङ्ग शोभाशाली और समादर योग्य हैं, परन्तु उस से पृथक् हो जायँ तो उन का महत्व मिट जाता है। आर्ष साहित्य की प्रामाणिकता है तो पूरी, पर है तभी तक जब तक वह वेद पवित्रता का अविरोधी हो।
आर्ष ग्रथों और शुद्ध तर्क को वेदार्थ करने में महर्षि कितना सहायक साधन समझते थे, इस का पूरा प्रकाश उन के आगे दिये हुए उपदेश से होता है:—“जब तक सत्य प्रमाण और सुतर्क सहायता न ली जाय, वेद वाक्यों के पूर्वापर प्रकरणों का व्याकरण न आवे, शतपथ आदि ब्राह्मणों का, मीमांसा आदि शास्त्रों का तथा शाखान्तरों का ठीक ठीक बोध न हो, परमात्म देव अपना अनुग्रह न करें, उत्तम सन्त जनों की सुशिक्षा और सत्संग से निष्पक्ष न्याय बुद्धि और आत्मशुद्धि उपलब्ध न हो, महर्षियों के किये व्याख्यानों को न देखें भालें, तब तक मनुष्य के हृदय में यथा वेदाथ का प्रकाश नहीं हो सकता। सब आर्य विद्वानों का यह सिद्धान्त है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त जो तर्क है, वही वह भी मनुष्यों के लिये ऋषि है।”
श्री स्वामी जी यह स्वीकार करते थे कि सर्वत्र सत्य समान है और वह वैदिक है। वे कहते हैं:—“जैसा सच्चा प्रयोजन ईश्वरोपदेश से सिद्ध होता है, वैसा दूसरे किसी के वचन से नहीं हो सकता। क्योंकि ईश्वरोपदेश भ्रान्ति रहित और सर्वथा सत्य होता है; दूसरे किसी के वचन का ऐसा होना कठिन है। जो आत्म ज्ञानी आप्त जनों के ग्रन्थों का ज्ञाता यदि वेदार्थ को ठीक समझ कर कहता है तो उसका कथन भी सत्य ही होता है। और जो केवल अपनी कल्पना से कथन करता है, उसके वचन सत्य नहीं हो सकते हाँ, यह निश्चित बात है कि जहाँ जहाँ सत्य दीखता है, सुनने में आता है, वहाँ वहाँ वह सत्य वेदों ही से गया है, फैला है।” “जो बुद्धिमान् जन हठ, दुराग्रह नहीं करते, वे सभी वेद मत में आ जाते हैं।”
वेद विद्या का फल वे यह वर्णन करते हैं—“ब्रह्माण्ड में जितने भी उत्तम पदार्थ हैं, उन सब की प्राप्ति से किसी को जो सुख हो, वह विद्या प्राप्ति रूप सुख के हजारवें अंश के तुल्य भी नहीं हो सकता।”
मनुष्य तन धारण करने का फल स्वामी जी यह बताते हैं—“ईश्वरोपदेश रूप वेदों से कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों काण्डों के अनुष्ठान, इस लोक के व्यवहारों के फल की सिद्धि के लिये और यथार्थ उपकार करने के लिये, सभी मनुष्य पुरुषार्थ से करें यही मनुष्य देह धारण करने का फल है।”