इस भवसागर से पार पाने के लिये भगवद्भक्ति के समान दूसरी नौका नहीं है। भक्ति धर्म भक्त के जीवन को कोमल, सुन्दर और रसमय बनाता है, उसमें करुणा, कृपा तथा परोपकार के भाव भरता है, उसे नम्र, सुशील और विनीत बनाता है, दीन दरिद्रों के दुःख दूर करने के लिये सेवार्थ समुद्यत करता है, यहाँ तक कि पीड़ित प्राणी के परिवारणार्थ प्यारे प्राण तक का परित्याग कर देने को प्रस्तुत कर देता है। आज तक संसार में भक्तिमय धर्म ही से सारे सुधार हुए हैं। हो भी क्यों न, जब यह परमात्म प्रेम की नीव पर स्थिर है, क्रियात्मक है, विश्वास है, और आशावाद की जड़ है।
भक्ति धर्म में परोपकारादि सार्वजनिक कार्य भी सम्मिलित हैं; परन्तु यह परमात्मा के विश्वास का, उसके स्मरण का, चिन्तन का और आराधना का मुख्य स्थान है। महर्षि दयानन्द भक्ति धर्म के सारे अङ्गों का पालन और उपदेश करते थे। उनका ईश्वर विश्वास इतना बढ़ा हुआ था कि परमात्मा की उपस्थिति वे सदा अपने अंग संग समझते थे ध्रुव और प्रह्लाद की तरह वे प्रथमावस्था हो में परमेश्वर की प्राप्ति के लिये सर्वत्यागी हो गये थे। किन्तु कैवल्य पद पर पहुँच कर वे जड़भरत और राजा जनक की भाँति रात दिन ब्राह्मी स्थिति में रहा करते थे। इसी कारण वे इतने निर्भय, इतने निर्लेप और इतने निर्द्वन्द्व थे।
एक बार वे फ़र्रुखाबाद से किसी समीप के नगर में जानेवाले थे। उनके प्रेमी सेठ दुर्गाप्रसादजी ने गाड़ी के आगे पीछे दो दो सशस्त्र सिपाही खड़े कर दिये। महाराज ने मुस्करा कर कहा कि सेठ जी, बिना अपराध इतना कड़ा पहरा क्यों लगाया गया है ? सेठजी ने नम्र निवेदन किया,—“गुरुदेव, यहाँ के बहुतेरे उद्दण्ड और दुर्दम्य दुष्टजन आप की परोपकारमयी कारुणिक काया को कटक्लेश देने के लिये अनुकूल अवसर ताकते रहते हैं। ऐसे महाधम मनुष्यों का मलिन मनोरथ पूरा न हो सके, इस कारण ये आप के अंगरक्षक खड़े किये गये हैं।” स्वामीजी ने कहा, “सेठ जी, आप लोगों में तो मैं थोड़े ही वर्षों से आने जाने लगा हूँ। अब आप लोग मेरे संरक्षण की चिन्ता करते हैं। पर पहले जब मैं एकाकी अवधूत वृत्ति में रहा करता था, उस समय भी तो मेरी मत मतान्तरों की निःसङ्कोच समालोचना सुन कर सहस्रों जन चिढ़ जाया करते और मुझे मार मिटाने का प्रत्येक उपाय उपयोग में लाने के लिये तत्पर रहते थे। बताइये, तब मेरी रक्षा कौन करता था ?” सेठ जी ने झुक कर कहा, “महाराज, उस समय आप के योग क्षेम का विधान करने वाले सब के पालक पोषक परमात्मदेव ही थे।” स्वामीजी ने कहा,—“महाशय, उस प्रभु का रक्षामय हाथ अब भी मेरे साथ है। मैं उसी भुवन भावन भगवान् के भरोसे पर निर्भय विचरता हूँ। आप अपने नौकरों को गाड़ी से उतार लीजिये।”
एक समय का वर्णन है कि काशीपुरी के बाहर आनंदोधान में दयानन्दजी विराजमान थे। उनके समीप उनका शिष्य बलदेव हाँपता हुआ आकर बोला, “प्रभो, आज हमारे नगर में हलचल मची हुई है। सारे साम्प्रदायिक सन्त, महन्त और पण्डित बड़ी सज्जा से चढ़े चले आ रहे हैं। यहाँ आकर उनकी शिष्य सेना जो भी अवज्ञा करें, सो थोड़ी है। काशी के गुण्डों से तो कोई भी बात असम्भव नहीं है। यदि फर्रुखाबाद होता तो ऐसे संकट के समय में आपके समीप दो चार सेवक आ बैठते और श्रीचरणों की रक्षा करते। पर यहाँ तो श्रीसन्त एकाकी हैं।” महाराज ने गम्भीरता से कहा, “बलदेव, घबराओ मत। एक मैं हूँ और एक परम पिता परमात्मा है। और है कौन जिससे काँपें और भयभीत हों ? उनको आने दो। देखना होता क्या है।”
स्वामीजी को दृढ़ विश्वास था कि यत्नशीलजन को, शुभ कार्य में, ईश्वर सहायता देता है। इस विश्वास को वे यों प्रकट करते हैं:—“ईश्वर ने मनुष्यों में जितना सामर्थ्य रक्खा है, उतना पुरुपार्थ मनुष्य अवश्य करे। उसके उपरान्त ईश्वर की सहायता की कामना करना उचित है।” “सब मनुष्य ईश्वर की सहायता की कामना करें, क्योंकि उसकी सहायता के बिना धर्म का पूर्ण ज्ञान और उसका पूरा अनुष्ठान कभी नहीं हो सकता।”
स्वामी दयानन्दजी भी अन्य भगवद्भक्तों के सदृश कृपावादी थे।” यमे वैष वृणुते तेन लभ्यः” “जिस जन पर जगदीश्वर कृपा करते हैं, वही उनको पाता है” इस वाक्य पर उन की ध्रुव धारणा थी। भक्ति योग के इस भाग को इन भावों में उन्होंने कहा है—“परमेश्वर हमारे माता पिता के समान है। हम सब उसकी प्रजा हैं। हम पर वह नित्य कृपा दृष्टि रखता है। परम कृपालु प्रभु ने सुखार्थ कन्द मूल, फल फूलादि छोटे छोटे पदार्थ भी रचे हैं।” “जो मनुष्य परम दयामय पिता की आज्ञा में रहता है, वह सर्वानन्द का सदैव भोग करता है। जो जन भगवान् के भक्त हैं, वे सदा सुखी रहते हैं। सब के पिता और परम गुरु परमात्मा कृपापूर्वक हम को सब व्यवहारों और विद्यादि पदार्थों का उपदेश किया है जिस हम व्यवहार ज्ञान और परमार्थ ज्ञान पा कर परम सुखी हों।”
चाँदपुर में उन्होंने जगतकर्ता की कृपा का वर्णन इन शब्दों में किया था—“प्रार्थना का फल यह है कि जब कोई जन अपने सच्चे मन से अपने आत्मा से अपने प्राण से और सारे सामर्थ्य से परमेश्वर का भजन करता है, तब वह कृपामय परमात्मा उस को अपने आनन्द में निमग्न कर देता है। जैसे छोटा बालक घर की छत पर अथवा नीचे से अपने माता पिता के पास जाना चाहता है, तो उसके माँ बाप इस भय से कि हमारे प्रिय पुत्र को इधर उधर गिर पड़ने से कष्ट न हो, अपने सहस्रों कामों को छोड़, दौड़ कर उसे गोद में उठा लेते हैं, वैसे ही परम कृपानिधि परमात्मा की ओर यदि कोई सचे आत्म भाव से चलता है, तब वह भी अपने अनन्त शक्तिमय हाथों से उस जीव को उठा कर सदा के लिये अपनी गोद में रख लेता है। फिर उस को किसी प्रकार का कष्ट क्लेश नहीं होने देता, और वह जीव सदा आनन्द ही में रहता है। परमात्मा, माता पिता की भाँति, अपने भक्तों को सदा सुख सम्पन्न करने ही की कृपा करता है |”
भक्ति मार्ग में नाम स्मरण जप का बड़ा महत्व माना है।। पतंजलि मुनि ने भी ‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्” प्रणव का जप और उसके अर्थों का चिन्तन बता कर नाम स्मरण की महत्ता पर मुहर लगा दी है। मनु महाराज ने भी जप आराधन को आत्म कल्याण का एक उत्तम साधन वर्णन किया है, पाप ताप से परित्राण पान का एक पवित्र उपाय बताया है। सब समयों के सन्तों की सम्मति में आत्मिक विकास के साधनों में सहजाभ्याम स्मरण एक सीधा, सरल, सुलभ और सुगम साधन है।
श्रीस्वामीजी ने उपदेश किया है—“उसी नाम का जप अर्थात् मरण और उसी का अर्थ विचार सदा करना चाहिए।” “जो पुरुष सन्यास लेना चाहे, वह तीन दिन तक दुग्धपान सहित उपवास करे, भूमि पर सोवे, प्राणायाम, ध्यान तया एकान्त देश में ओंकार का जप करता रहे।” “जो जानने की इच्छा से गौण संन्यास ले, वह भी विद्या का अभ्यास, सत्पुरुषों का संग, योगाभ्यास, ओंकार का जप और उसके अर्थ परमेश्वर का विचार भी किया करे।”
स्वामी विरजानन्दजी ने बहुत काल तक गंगा में खड़े हो कर गायत्री का जप किया था। महाराज ने बदरीनारायण में रह कर स्वयं भी इस इष्ट मंत्र का अनुष्ठान किया था। वे यज्ञोपवीत धारण करनेवालों से पहले गायत्री का पुरश्चरण कराया करते थे।
गंगा नाम के एक सज्जन को उत्तर देते हुए महाराज ने कहा था—“काम वासना जीतने का यह विधान है कि एकान्त स्थान में रहे और नृत्यादि कभी न देखे। अनुचित रूप का देखना, अनुचित शब्द का सुनना और अनुचित वस्तुओं का स्मरण करना परित्याग कर दे नियम पूर्वक जीवन व्यतीत करे। मनुष्य जितना वासना की तृप्ति का यत्न करेगा वह शान्त न हो कर उतनी ही अधिक बढ़ती चली जायगी। इसलिये विषयवासना का चित्त में चिन्तन भी न करे जितन्द्रिय बनने के अभिलाषी को रात दिन प्रणव का जप करना चाहिए। रात को यदि जप करते हुए आलस्य बहुत बढ़ जाय तो दो घंटा गाढ़ निद्रा लेकर उठ बैठे और पूर्ववत प्रणव पवित्र का जप करना आरम्भ कर दे।