महर्षि जी से पूर्व भारतवर्ष में जितने आचार्य हुए, उन्होंने परोपकार को, दीनों के उद्धार को, अनाथ-रक्षा को और पर-सेवा को कोई बड़ा महत्व नहीं दिया; लोक-हित के कामों को हाथ नहीं लगाया; दीन-दुखियों की दरिद्रता दूर करने में प्रवृत्ति नहीं दिखाई। वे केवल आध्यात्मिक पक्ष और साम्प्रदायिक भेदों धर्म-सुधार और प्रचार को समाप्त करते रहे। यह श्रेय तो परमहंस जी ही को प्राप्त हुआ जिन्होंने लोक-हित के कार्यों को करने पर उतना ही बल दिया जितना कि आत्म-कल्याण के काम पर। उन्होंने वैदिक संस्कृति के सितार के नूतन संस्कार में परोपकार के तार स्वर को मिला दिया, उसको सुकोमल, सुमधुर, अतिशय सुन्दर बना दिया। श्रीदयानन्द आपाद मस्तक से, भीतर-बाहर से और मन-तन से परोपकार-रूप थे, परोपकार-परायण थे। उन के सारे जीवन में परोपकारी कला अधिक चमका करती थी।
महाराज परोपकार का वर्णन इस प्रकार करते हैं— “दूसरे प्राणियों के सुख के लिये अपने सारे सामर्थ्य से तन, मन, धन से प्रयत्न करना परोपकार कहलाता है। परोपकार वह कर्म है जिससे सब मनुष्यों में से दुराचार और दुःख दूर हो, उनमें सदाचार और सुख बढ़े। जिस कर्म में सब का हित हो उसी का प्रचार करो। सदा सारा पुरुषार्थ जीवों के सुख के लिये ही होना चाहिए।”
उपकार-कर्म से अपने आप को भी सुख मिलता है और यह कर्म मनुष्य-कर्तव्य भी है।” जनता के सुख के लिये यज्ञ किया जाता है और फल में यजमान-यज्ञकर्ता को भी आनन्द प्राप्त होता है। इसका कारण यह है कि जो जन जगत् का जितना उपकार करेगा, ईश्वर की व्यवस्था मे उसे उतना ही सुख मिलेगा। मनन-शील, विचारवान प्राणी का नाम मनुष्य है। जगत में जितने देहधारी प्राणी हैं, उनमें यह मनुष्य ही उत्तम है। हम कारण मनुष्य ही उपकार और अनुपकार को जान सकता है।”
किस-किस पवित्र कार्य में तन, मन और धन लगाना चाहिए, इसका उपदेश परमहंस जी ने यों दिया है—“विद्या की वृद्धि में, परोपकार में, अनाथों के पालन में और सम्बन्धी सज्जनों की सहायता में अपने तन, मन, धन को व्यय करना पुण्य कर्म है। विद्या प्राप्ति के लिये परोपकारी जन को चाहिए कि व्यायाम, पथ्य और पुष्टिकारक भोजन से शरीर को नीरोग रखे, विद्या का अभ्यास करे, मन से ज्ञान की बातों को मनन करें, और धन से अपनी सन्तान तथा अन्य जनों को विद्यादान दिलाना परोपकार समझे। परोपकार करने के लिये तन से अत्यन्त उद्योग करना चाहिए। मन में गहरी लगन हो। धन से नाना प्रकार के व्यवहार, उद्योग-धन्धे चलावे कारखाने खोले जिनमें अनेकानेक मनुष्य काम कर के सुख से अपना जीवन बिता सकें। जो अपना पालन आप नहीं कर सकते, ऐसे अनाथ अपाहिज बालकों और वृद्धों का, परोपकारी मनुष्य, भरण-पोषण करें। जिनके अंग भंग हो गये हों, जो रोगी हों, ऐसे दीन-दुखियों का तन, मन, धन लगा कर भी सुखी बनावे। उनमें से जिससे जो काम हो सके वह करावे। किसी को अलसी और निरुधमी बनाना परोपकार तथा दान का उद्देश्य नहीं है। किसी को निकम्मा कभी न बनाना चाहिए। अपनी सन्तान को और मनुष्य मात्र को विद्या पढ़ाने में, योग्य बनाने में, और उनके खाने-पीने का प्रबंध करने में यदि तन-मन-धन तक लगा दिया जाय तो भी थोड़ा है।”
श्री दयानन्द जी पुरुषार्थी जन को अच्छा समझते थे, आलसी को भूमि पर भाररूप मानते थे। उनके विचार में पुरुषार्थी होना, उद्योग करना, परिश्रमी बनना, जीवन-सङ्गाम में सदैव सन्नद्ध रहना प्रत्येक जन का कर्त्तव्य-कर्म है। अपनी रक्षा आप करना, स्वावलम्ब से जीवन बिताना एक धर्म है। उद्योग के विषय में श्रीमुख-वाक्य आगे दिये जाते हैं—“उद्योग पुरुषार्थ का नाम है। इसके चार भेद हैं। एक अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा, दूसरे प्राप्त-संरक्षा, तीसरे रक्षित की वृद्धि और चौथे बढ़े हुए पदार्थों को धर्म में लगाना। जो कर्म यत्न, उपाय और न्याययुक्त हैं, उनसे प्राप्त पदार्थों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना पुरुषार्थ है। प्राप्त पदार्थों को नष्ट भ्रष्ट होने से बचाना, उन्हें धर्मयुक्त व्यवहार से बढ़ाते जाना, फिर उनको शुभ कार्यों में व्यय करना, उदार भाव से दान देना—यह चार प्रकार का पुरुषार्थ है। यही पुरुष का प्रयोजन है।”
एक दिन एक साधु ने श्रीमहाराज से कहा कि आप प्रवृत्ति मार्ग में क्यों पड़ गये हैं ? पहले की भाँति अवधूत वृत्ति में विचरिये। इस प्रकार के बखेड़े में क्या रखा है ? महर्षि जी मुस्कुराकर बोले—“साधु जी, शास्त्रीय प्रवृत्ति प्रजा-प्रेम से प्रेरित हो कर सब को करनी उचित है।”
साधु जी बोले—“प्रजा प्रेम का नया बखेड़ा क्यों गले में डालते हो ? आत्मा से प्रेम करो, जिसका वर्णन श्रुतियाँ कर रही हैं।” महर्षि जी ने पूछा—“महात्मन्, क्या आप सर्व-व्यापी घट घट के साक्षी आत्मा से प्रेम करते है ?” उसने उत्तर दिया, “हाँ, करता हूँ।” महाराज गम्भीरतापूर्वक बोले—“नहीं, आप उस आत्मा से प्रेम नहीं करते। आप को अपनी भिक्षा की चिन्ता है, अपने वस्त्र उज्वल बनाने का ध्यान है, अपने भरण-पोषण ही का विचार है। क्या आपने अपने उन बन्धुओं का भी कभी चिन्तन किया है जो आप ही के देश में लाखों की संख्या में भूख की चिता पर पड़े रात-दिन, बारहों महीने, भीतर ही भीतर जल कर राख हो रहे हैं ? आप के देश में सहस्रों मनुष्य ऐसे हैं जिन्हें आजीवन उदर भर कर खाने को अन्न नहीं जुड़ता। उनके तन पर सड़े-गले, मैले-कुचैले चिंथड़े लिपट रहे हैं। लाखों निर्धन दीन ग्रामीण भेड़ों और भैंसों की भाँति, गंदे कीचड़ और कूड़े के ढेरों से घिरे हुए और सड़े-गले झोंपड़ों में लोटते हुए अपने जीवन के दिन काट रहे हैं। ऐसे कितने ही दीन-दुःखिया भारतवासी हैं जिनकी सार-सँभार कोई भूले भटके भी नही लेता। बहुतेरे कुसमय में ही, राजमार्गों पर पड़े पड़े पाँव पीट कर मर जाते हैं। परन्तु उनकी बात तक कोई पूछने वाला नही मिलता। महात्मन, यदि आत्मा से (विराट् आत्मा से) प्रेम करना है तो अपने अङ्गों की भाँति सब को अपनाना होगा। अपनी क्षुधा निवृत्ति की तरह उनकी भी चिन्ता करनी पड़ेगी। सच्चा परमात्म-प्रेमी तो किसी से घृणा नहीं करता। वह ऊँच-नीच की भेद-भावना को त्याग देता है। वह उतने ही पुरुषार्थ से दूसरों के दुःख निवारण करता है, कष्ट-क्लेश काटता है जितने से कि अपने। ऐसे ज्ञानी जन ही, वास्तव में, आत्म-प्रेमी कहलाने के अधिकारी हैं।” यह उपकारमय उपदेश सुन कर साधु जी श्री चरणों में पड़ कर धन्यवाद करने लग गये।
दूसरों को सुख देना, उन पर दया करना, श्रीमहाराज के मत में उपकार कर्म है। इस विषय में उन्होंने कहा है—“वे धर्मात्मा विद्वान् जन धन्य हैं जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार सृष्टिक्रम के अनुकूल, प्रत्यक्षादि प्रमाणों और आप्त जनों के आचार से अविरुद्ध चल कर सारे संसार को सुख-सहित करने का यत्न करते हैं। वे मनुष्य शोचनीय हैं जो स्वार्थवश निर्दयता दूसरों की हानि पर तुले रहते हैं। पूजनीय वे जन हैं जो अपनी हानि कर के भी पराया हित और उपकार करने में तन-मन-धन तक अर्पण कर देते हैं। और वे अति तिरस्कार के योग्य हैं जो अपने ही लाभ में लगे हुए दूसरों के सुखों का सर्वनाश करते फिरते हैं।”
फर्रुखाबाद में एक दिन दान-धर्म पर व्याख्यान देते हुए महाराज बोले—“अन्न जल का दान कोई भी भूखा-प्यासा मिले, उसे दे देना चाहिए। ऐसा दान पहले अपने दीन-दुःखी पड़ोसी को देना चाहिए। पास के रहने वालों का दारिद्र्य दूर करने में सच्ची अनुकम्पा और उदारता का प्रकाश होता है। इससे वाह वाही नहीं मिलती, इसलिए अभिमान को भी अवकाश नहीं मिलता।”
‘समीपस्थ दुःखी को देखकर और पीड़ित का अवलोकन करके ही दया, अनुकम्पा और सहानुभूति आदि हार्दिक भाव प्रकट होते हैं। जो समीपवर्ती दीन-दुःखिया जन पर तो दयादि भावों को नहीं दिखलाता, किन्तु दूरस्थ मनुष्यों के प्रति उनका प्रकाश करता है, उसे दयावान्, अनुकम्पा-कर्ता और सहानुभूति-प्रकाशक नहीं कह सकते। ऐसे मनुष्य का दान बाहर का दिखालावा और ऊपर का आड़म्बर है। दानादि प्रवृत्तियों का प्रकाश दीपक की ज्योति की भाँति, समीप से दूर फैलना उचित है।”
दान पर महाराज ने कहा है—“दान उसी को कहते हैं जो विद्या की वृद्धि के कामों में लगाया जाय, कला-कौशल में व्यय हो, दीन, अपाहिज, रोगी, कोढ़ी और अनाथों को जिससे सहायता मिले।”
“यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जो निर्धन जन अन्नादि का देने में असमर्थ हैं, वह दूसरों को क्या दें ? उत्तर स्पष्ट है कि जो जन अन्नादि का दान नहीं कर सकते, वे अपने पड़ोसी आदि को उनके कष्ट-क्लेश में सहायता दें। निर्बलों का पक्ष करें। विपत्ति और आधि-व्याधि ग्रस्त जनों की सेवा करें। पर-पीड़ितों और व्याकुल मनुष्यों पर प्रेम दिखावें। उनको मीठे शब्दों से आश्वासन-शान्ति दें। ये सब दान हैं और आत्मा से सम्बन्ध रखनेवाले दान हैं। ऐसे दान नित्य प्रति निर्धन जन भी कर सकते हैं।”
श्रीदयानन्द जी में परोपकार का भाव तो स्वाभाविक था ही परन्तु अपने चारों ओर दरिद्रों और दुःखियों को देख कर वह और भी उमड़ आया। निर्बलों और अनाथों का आर्त्तनाद उनसे सुना न गया। वे प्राणपण से परोपकार के कार्य में लग गये। उनके जीवन-जहाज का मुख जिस घटना पवन ने परोपकार भूमि की ओर घुमा दिया, वह यह है। एक दिन श्रीमहाराज गंगातीर्थ पर बैठे प्रकृति देवी की स्वाभाविक सुन्दरता निहार रहे थे। उसी समय उनके सामने एक स्त्री मरा हुआ बच्चा हाथ पर उठाये गंगा में प्रविष्ट हुई। कुछ गहरे जल में जा कर उसने बालक के शरीर पर लपेटा हुआ कपड़ा उतार लिया और बच्चे की निर्जीव देह को ‘हाय हाय’ के आर्त्तनाद के साथ पानी में बहा दिया।
महर्षि जी महाराज ने जब देखा कि वह स्त्री बच्चे के कलेवर पर लपेटे हुए कपड़े को धो कर वायु में सुखाती और रोती हुई घर को जा रही है, तब वे अपने कलेज को न थाम सके। उन्होंने खेद से कहा कि भारत देश इतना निर्धन और इतना कंगाल हो गया है कि माता अपने कलेजे के टुकड़े को तो नदी में बहा चली है, परन्तु वस्त्र को इसलिये नहीं बहा सकी कि उसका मिलना कठिन है और इसके बिना उसका निर्वाह न हो सकेगा ! इससे बढ़कर देश की दरिद्रता का दृष्टान्त मिलना दुर्लभ है। महाराज ने उसी समय वहाँ प्रण किया कि मैं सर्व साधारण की भाषा में व्याख्यान आदि से प्रचार कर के जनता के दुःख दूर करने के साधन उपस्थित करूँगा।