महर्षि अपने उपदेशों में लोक हित के सभी विषयों पर बोला करते थे। समाज सुधार और जातीय उद्धार पर भी व्याख्यान देते थे, परन्तु उनका मुख्य कर्तव्य कर्म वैदिक धर्म का प्रचार ही रहा। इसी में उन्हों ने अपना सर्वस्व समर्पण किया। इसकी संरक्षा में कोई यत्न शेष नहीं रक्खा। वे वैदिक धर्म को एक और सार्वभौम धर्म मानते थे। धर्म का स्वरूप उन्हों ने इन वाक्यों में प्रदर्शित किया है:—“धर्म वह है जिस में ईश्वर की आज्ञा का ठीक ठीक पालन हो, निष्पक्ष न्याय और सर्व हित करना हो, वदोक्त हो और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित हो। मनुष्यों को चाहिए कि ऐसे ही धर्म को मानें।” “पक्षपात का परित्याग कर के, प्रत्येक प्रकार से, सत्य का ग्रहण और असत्य का छोड़ना न्यायाचरण है। ऐसा न्यायाचरण धर्म का स्वरूप है। इसी धर्म का ज्ञान प्राप्त करना और ठीक ठीक अनुष्ठान करना कर्म काण्ड का एक प्रधान भाग है। जो पक्षपात रहित न्याय है, सत्याचरण और सत्य का परित्याग करना है, उसी को धर्म कहते हैं। धर्म का यही स्वरूप सर्वोत्तम है। वेद विहित कर्म ही धर्म है।”
स्वामी जी महाराज परोपकार को भी धर्म का एक प्रधान अंग मानते थे। इस पर उनका उपदेश यह है—“परोकार करना धर्म और पर हानि करना अधर्म कहता है। जगत् में ऐसा मनुष्य कौन है जो सुख प्राप्ति में सुखी तथा प्रसन्न और दुःख-प्राप्ति में दुखी न होता हो ? जैसे अपने ऊपर यदि कोई उपकार करे तो आनन्द होता है, उसी प्रकार दूसरों का उपकार करने में भी आनन्द मनाना चाहिए। क्या भूगोल भर में कभी कोई मनुष्य ऐसा था, अब है अथवा आगे होगा जो परोपकार रूप धर्म और परहानि-रूप अधर्म के बिना धर्माधर्म का कोई अन्य स्वरूप सिद्ध कर सके ?”
श्री स्वामी जी की यह धारणा थी कि सच्चा धर्म सब मे समान होता है, साम्प्रदायिक बंधनों और आडम्बरों से बाहर रहता है। उस की आधारशिला सत्य और मौलिक सिद्धान्त हुआ करते हैं। वह किसी विशिष्ट जाति के पक्ष से ऊपर विराजता है और देश-विशेष की दीवार से नहीं घिरता। ऐसे सत्य-स्वरूप धर्म का वर्णन वे इस प्रकार किया करते थे—“वही सनातन तथा नित्य धर्म है जो सर्वतन्त्र सिद्धान्त है; सार्वजनिक धर्म है; जिस को सब सज्जन सदा से मानते चले आते हैं; जिस का विरोधी कोई भी नहीं हो सकता; जिसे आप्त जन—सत्यवादी, सत्ययानी, सत्यकारी, परोपकारी और विद्वान् स्वीकार करते हैं। जो कर्म सब के अविरुद्ध है, आत्मा के अनुकूल है, वह धर्म है।”
“सभी देशों के जनों और मतावलम्बी सज्जनों को सत्य बोलना अनुकूल है। वे नहीं चाहते कि उनके साथ कोई मिथ्या व्यवहार करें, छल-कपट से बर्ते, उन को हानि पहुँचावे, पीड़ा दे, सतावे, उनके धन-धान्य का अपहरण करे, उनकी मान-मर्यादा की ओर ताके। बस ऐसे ही कर्म सर्वमान्य समान धर्म के हैं। यह धर्म सब के अनुकूल है। इसे सब स्वीकार करते हैं।”
“जो कर्म पक्षपात रहित न्यायरूप है, सत्याचरण है, पांचो परीक्षाओं के अनुकूल आचार है, ईश्वराज्ञा का पालन है, परोपकार का कर्तव्य है, वह धर्म है। इससे उलटा अधर्म कहा जाता है। विरोधजनक कर्म भी धर्म नहीं हो सकता। जो व्यवहार दूसरों से अपने लिये चाहे, वही दूसरों के साथ करना धर्म है। जैसा भाव आत्मा में हो, उसी को वचन से कहना, उसी के अनुसार कर्म करना, विचारवान और विवेकी बनना, धार्मिक जीवन के उज्ज्वल अंश हैं।”
परमहंस श्रीदयानन्द जी आचारवान् व्यक्ति का बड़ा आदर करते थे वे सदाचार का प्रति दिन उपदेश देते थे। उन के सदुपदेशों के सुशीतल स्वच्छ जल में स्नान कर के कई मनुष्य अपना जन्म सफल बना गये, संसार-सागर से पार पा गये। दुराचार की महाव्याधि के नाश के लिये उनके उपदेश रामबाण का काम किया करते थे। एक दिन एक युवक अपने एक वेश्यासक्त युवक मित्र को स्वामी जी के समीप ला कर कहने लगा कि महाराज के सत्संग से इस का सुधार हो जाय। महाराज अपने नेत्रों की हित-भरी ज्योति उनके मुखमण्डलों पर डाल कर उपदेश देने लगे—“सौम्य युवको, वैसे तो सभी व्यसन बुरे हैं, परन्तु वेश्या सर्वनाशकारिणी है। इस कुव्यसन से सुरापान की बान सहज में पड़ जाती है। सभ्य वेष, सभ्य भाषा, सभ्याचार आदि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। कुलाचार पर कठोर कुठाराघात हो जाता है। रात दिन राग-रंग में मग्न रहने से व्यवहार-बुद्धि का अभाव होने लगता है। वेश्या व्यसनी धर्म-कर्म से सदा दूर भागता है। वारांगना अपने वशीभूत जन के मन को बनावटी प्रेम, बाहर की बातों और हाव भाव से सदा उत्तेजित रखती है, जिस से व्यसनी लोग अल्प काल ही में तेज और बल-बुद्धि खो बैठते हैं। वेश्या का प्रेम स्वार्थ-पूर्ण होता है। जब स्वार्थ सिद्धि नहीं होती तब वह बात तक नहीं पूछती।” “वेश्यासक्त के परिवार में आचार की शुद्धि नहीं रहती। उस का वंश नष्ट हो जाता है। यदि वंश नष्ट न भी हो, तो भी उस की सन्तान का सदाचारी होना महा कठिन है।” महाराज ने फिर कहा—“युवको, भला यह तो बताओ, यदि वेश्यासक्ति से लड़की उत्पन्न हो तो वह लड़की किस की हुई ?” युवकों ने कहा—“उस वेश्यासक्त पुरुष की।” तब स्वामी जी बोले—“वह युवती हो कर क्या काम करेंगी ?” युवकों ने उत्तर दिया—“और क्या करेंगी, वेश्या बन कर बाजार में बैठेगी।” तब स्वामी जी ने मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा—“देखिये, संसार में कोई भी भला मनुष्य नहीं चाहता कि उस की पुत्री वेश्या बन कर बाजार में बैठे। परन्तु वेश्या के अनुरुक्त जन ही ऐसे हैं जो अपनी बेटियों को वेश्या बनाते हैं, चकले में बैठाते हैं और द्वार-द्वार पर नचाते हैं। तुम ही सोचो कि क्या यह बहुत बुरी बात नहीं है।”
यह सुन कर उस युवक की काया पलट गई। उसने वेश्या-व्यसन के विकट बन को तुरन्त काट डाला।
सदाचार के सम्बन्ध में परमहंस जी के ये वचन है—“सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक सत्पुरुषों का जो वेदोक्त आचार चला आया है, जो सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग रूप कर्म है, उसे सदाचार कहते हैं। राग, द्वेष, अन्याय और मिथ्या भाषणआदि दुर्गुणों-दोषों को त्याग कर निर्वैरता, प्रीति परोपकार, सज्जनतादि गुणों को धारण करना उत्तम आचार है।”
किसी को कैसे ज्ञान हो कि यह कर्म धर्ममय है और वह नहीं है ? इस पर श्री स्वामी जी का उपदेश है—“जिस कर्म का वेद प्रतिपादन करें, मनु-स्मृति जिस का उपदेश दे, आर्ष शास्त्र जिसे धर्म बतावें, सत्पुरुषों ने जिस का आचरण किया हो और जो अपने आत्मा के अनुकूल हो, जिसे करते मन में भय, शंका और लज्जा न उत्पन्न हो, वह कर्म करने योग्य है, वही धर्म है। जो कर्म आत्मा के प्रतिकूल हैं, जिन को करते भय,शंका और लज्जा आदि भाव आ घेरते हैं, जैसे चोरी आदि कुकर्म हैं, उन को कभी न करना चाहिए। यह भी समझ लेना उचित है कि धर्म अपने आत्मा और कर्तव्य के साथ सम्बन्ध रखता है।”
सभी नर-नारी विद्या और धर्म्मयुक्त हो सकते हैं अथवा नहीं हो सकते, इस का श्री स्वामी जी ने यह निर्णय किया है—“सब के लिये विद्वान होने की तो सम्भावना नहीं है, परन्तु यदि धार्मिक बनना चाहें तो सभी बन सकते हैं।” धार्मिक कौन बना सकता है ? इस का उत्तर स्वामी जी यह देते हैं—“अविद्वान् लोग तो दूसरों को धर्म में निश्चय नहीं करा सकते। विद्वान् जन ही अपना जीवन धार्मिक बना कर दूसरों को धर्मात्मा वना सकते हैं। धूर्त जन भोले भाले मनुष्यों को ही भ्रम में डाला करते हैं। परन्तु वे विद्वानों को, अपने दाँव पेंच से, अधर्म पर नहीं चला सकते। जैसे मार्ग में पड़नेवाले कुएँ में गिरने की सम्भावना अन्धे के लिये ही है, जो मार्ग को आँखों से देख-भाल कर चलता है, वह नहीं गिरता, वैसे ही अबोध जन तो भ्रम भँवर में पड़ कर चक्कर खा जाते हैं, परन्तु सत्यासत्य के विवेकी विद्वान् को बहकाना कठिन काम है।”
जैसे धार्मिक बनने के लिये अन्तर्मुख होने की इन्द्रियों को जीतने की, मन के संयम की, और परमात्मा के प्रेम की बड़ी भारी आवश्यकता हुआ करती है, वैसे ही परमात्म-भय, परलोक-भय भी जीवन को धार्मिक बनाने का एक आवश्यक अंग है। धार्मिक जीवन के लिये परमात्म-भय और मनुष्य-भय में कितना भेद है, महर्षि इस का यों वर्णन करते हैं—“जब तक मनुष्य सर्वान्तर्यामी, सर्वदर्शी, सर्वव्यापक और सब कामों के साक्षी परमात्मा से नहीं डरता, यह नहीं समझता कि ऐसा कोई कर्म नहीं है जो परमप्रभु से छिपा हो, तब तक पाप-कर्म करने से बचना दुष्कर है। आत्मभीरु हो कर जो सत्य विद्या और सुशिक्षा को ग्रहण करता है, सत्संग से लाभ उठाता है, पुरुषार्थी तथा उद्यगी बना रहता है, इन्द्रियों को वश में रखता है और ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करता है, वह धर्मात्मा बन जाता है। इस के विपरीत चलनेवाला नहीं बन सकता।”
“जो मनुष्य राजादि अल्पज्ञ मनुष्यों से तो डरता है, परन्तु परमात्मदेव का भय नहीं मानता, उस का धार्मिक होना असम्भव है। राजादि के देखते भीरु मनुष्य बाहर के मोटे-मोटे कुकर्म करने से तो रुक जाता है, परन्तु उस के मलिन मन में दोषों की दौड़ बराबर होती रहती है। राजादि किसी का भीतर नहीं देख सकते। इस कारण किसी जन को पाप के कीचड़ से निकालना उन के सामर्थ्य से बाहर की बात है। परन्तु सन्तों के मत में मन की देखनेवाला, भीतर के कर्मों को जाननेवाला राजा— एक तो अपना आत्मा और दूसरा परमात्मा है। इन्हीं का शासन और भय पुण्योपार्जन का परम उपाय है। राजभीरु जन तो राजादि से छिप कर अनेक घोर अपराध तक किया करते हैं। परन्तु आत्म-भीरु भक्तों के भावों में भी पापों का अभाव हो जाया करता है।”
आत्म-भीरु धार्मिक जन के लिये महाराज का हृदय-उद्गार यह है:—“जो ब्रह्म विमल सुखदाता है, पूर्णकाम, तृप्त और जगत्व्याप्त है, वही सारे वेदों से प्राप्त करने योग्य है। जिस जन के मन-मन्दिर में ऐसे ब्रह्म का प्रकट प्रकाश है, वह निश्चय ब्रह्मानन्द का भागी है, सदा सब से अधिक सुखी है। ऐसा मनुष्य धन्य है। और जो मनुष्य इस संसार में अत्यन्त प्रेम से बर्ताव करता है, विद्या, सुविचार और सत्संग में परायण रहता है, धर्मात्मा, निर्वैर और जितेन्द्रिय है और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से परमात्मा को स्वीकार करता है, वह मनुष्य अतीव भाग्यशाली है।”