श्री दयानन्द त्याग और वैराग्य के अवतार स्वरूप थे। जिस परम वैराग्य से, जिस गहरी लग्न से, और जिस उच्च भाव से उन्होंने अपने सम्पत्तिशाली पितृगृह का परित्याग किया, वह उनके त्याग भाव का परिचायक परम प्रमाण और उनकी विशुद्ध वैराग्य विशेषता का सूचक है।
जिन दिनों श्री दयानन्द जिज्ञासु रूप से हिमालय की यात्रा कर रहे थे, एक दिन वे ओखी मठ में जा टिके। उनके बुद्धि विकास, उनके युक्ति बल, उनकी तुरन्त उत्तर प्रत्युत्तर देने की शक्ति और उनकी सरल, पर माधुरी मूर्ति पर उस मठ का महन्त मुग्ध हो गया। दयानन्द को चेला बनाने की लालसा से अपनी गुरुगद्दी के गुणों का बखान करते हुए वह कहने लगा—“दयानन्द जी यदि आप हमारे शिष्य बन जायें तो आप हमारी सारी सम्पत्ति के स्वामी हो जायेंगे। इतना धन पा कर स्वतंत्रता से मन माना सुख भोगेंगे, हमारे लाखों शिष्यों और सेवकों में खूब ही पूजा पावेंगे।”
महात्यागी परमहँसजी इस महन्त के मायामय महाजाल में भला कब फँसनेवाले थे। वे झुँझला कर बोले,—“महन्तजी, यदि मेरे मन में माया की भूख होती, तो मैं धन धन -धान्य पूर्ण अपने पितृ प्रासाद का क्यों परित्याग करता ? वहाँ तो आपके चढ़ावे में चढ़े, पूजा पाठ से आये, यन्त्र मन्त्र से कमाये, और नाना लीलाओं से लिये हुए रुपयों से कहीं अधिक ऐश्वर्य था। महाशय, जिस वस्तु की खोज में मैंने घर बार और सांसारिक सुखों को सदा के लिये जलाञ्जलि दे दी है, मैं देखता हूँ, आप लोगों को उसका कुछ भी ज्ञान नहीं। इस कारण आपका चेला बनना तो दूर रहा, मेरा तो यहाँ रहना भी असम्भव है।”
महन्त महाशय उस मुनि के मुख से धन के प्रति धिक्कार ध्वनि निकलती सुन आश्चर्यचकित होकर पूछने लगे—“फिर वह वस्तु क्या है जिसकी खोज में आपने यह भीषण महाव्रत धारण किया है ?”
महाराज ने कहा—“वह वस्तु यथार्थ योग और आत्मपद की प्राप्ति है।” मठाधीश ने उनकी धुन की, उनकी धारणा की, उनकी तपश्चर्या की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए आग्रह किया कि और नहीं तो कुछ दिन तक तो यहाँ अवश्य निवास कीजिये। परन्तु वायु के सदृश अप्रतिबन्ध विहारी वैरागी ने केवल एक ही रात वहाँ वास किया।
एक बार राणा श्रीसज्जनसिंह जी ने महादेव के मन्दिर की गद्दी श्रीमहाराज के चरणों में अर्पण करते हुए कहा कि इस मन्दिर के साथ बड़ी भारी जागीर लगी हुई है और राज्य भी इसी मन्दिर को अर्पित है। इस मन्दिर के महन्त बनने पर आप राजगुरु तो हो ही जायँगे, परन्तु साथ ही आपको पुस्तक प्रकाशन तथा धर्म प्रचार के कार्यों में भी बड़ी सुगमता हो जायगी। फिर आपको किसी से सहायता लेने की आवश्यकता न रहेगी। इस पर स्वामी जी आवेश पूर्वक बोले—राणाजी, आप मेरे सम्मुख प्रलोभन पाश फैला कर मुझे परमात्मदेव से पराङ्मुख करना चाहते हैं। यह रजोगुणी लोभ लालच मुझे अनन्त ऐश्वर्यवान ईश्वर से विमुख नहीं कर सकता। ऐसे वाक्य कहने का साहस फिर कभी न कीजियेगा।
अवधूत वृत्ति में गंगा तीर्थ पर विचरण के दिनों में श्री दयानन्द केवल कौपीन ही रखते थे। वे नगर में नहीं ठहरते थे। वनों में, वृक्षों के नीचे, गंगाजी की रेत पर ही रातें काटा करते थे। एकान्त कुटिया में कहीं कदाचित् ही विश्राम लेते। अति शीत पात पर भी उनको यह दिगम्बर वृत्ति बराबर बनी रहती थी। उनकी इस अवस्त्र अवस्था की तपस्या जो देखता, दाँतों उँगली दबाता और उनमें अलौकिक कर्म की कल्पना करता।
लोग थोड़ा सा तप-जप करने पर भी अपार अहंकार करने लग जाते हैं, दूसरों को तुच्छातितुच्छ समझने लगते हैं। पर पूज्य परमहंसजी में मद मान की मात्रा लवलेश मात्र भी नहीं थी। एक दिन एक सज्जन ने उन से पूछा कि इतना तीव्र जाड़ा पड़ने पर भी आपकी काया को कँपकँपी कम्पायमान नहीं कर रही है, इसका कारण क्या है ? महाराज ने मुस्करा कर उत्तर दिया—“कारण है नित्य नग्न रहने का अभ्यास। आप भी मुख मण्डल को सदा नग्न रखते हैं, इसलिये आप के इस अंग को शीत नही सताता मैं सारा शरीर नंगा रखता हूँ, इसलिये मेरे सारे तन मे शीत को सहने का सामर्थ्य हो गया है।”
तपस्या के दिनों में श्री दयानन्द अन्नार्थ भी नगर में किंचित ही जाते थे उनका आसन दिन गत प्रायः वृक्षमूल और गङ्गा कूल ही हुआ करता था। ऐसे निर्जन स्थानों में जिस समय और जैसी भी रूखी सूखी चपाती कोई दे जाता, वे उसी पर निर्वाह करते। कई बार तो आप अनेक दिनों तक निराहार ही पड़े रहते, परन्तु माँगने न जाते। उन्होंने रसना के रस को ऐसा वश में किया था कि यदि कोई जली भुनी रोटी पहले ले आता तो प्रसन्नता पूर्वक उसी को खा लेते, और पीछे से आये विविध व्यञ्जनयुक्त स्वादु भोजन को स्पर्श तक न करते। चासी के वैरागी बाबा को उनका वहाँ रहना नहीं भाता था। उसे डर था कि आस पास के राजपूत इनके अनुयायी हो गये तो मेरी आजीविका जड़ मूल से जाती रहेगी। भक्तजनों का भोजन आने के पहले ही वह बाबा प्रतिदिन जले भुने, अधकच्चे दो तीन मोटे मोटे रोट उनके सामने रख देता और वे वीतरागी उसी को खाकर तृप्त हो जाते; और पीछे आये उत्तमोत्तम पदार्थों की ओर दृष्टिपात तक न करते। उस बाबा ने सोचा कि ये मेरे अधपक्के टिक्कड़ों को बड़ी प्रसन्नता से खा जाते हैं, किसी के आगे नाम तक नहीं लेते ये तो कोई असाधारण सन्त हैं। विरोध बुद्धि छोड़कर इन की सेवा से यह जन्म सफल करना चाहिए। तब से वह मनसा, वाचा, कर्मणा से उनका आज्ञाकारी सेवक बन गया।