परमहंस दयानन्द उपासना काण्ड के पूरे पालन करनेवाले थे। उनकी ध्वनावस्थित मूर्ति को देख कर भक्तजन प्रेम भाव से गद् गद् हो जाया करते थे। उनको वन स्थानों में, निर्जन प्रदेशों में, एकान्त शान्त कुटियों में, वृक्षों के मूल में, स्वच्छ सुन्दर शिलाओ पर, नदियों के तट और भागीरथी के विमल, शुद्ध बालू पर अचल समाधिस्थ देख कर प्रेमी जन श्रद्धामय हो जाते थे। श्रीसहजानंद ने महाराज को उदयपुर के उद्यान में जब पहले पहल उपासना के परम पद पर पहुँचे हुए देखा, तब उनके हृदय देश मे श्रद्धा भक्ति का स्रोत खुल गया। उसी समय से वे उनके अनन्य जन बन गये। सहजानन्द जी ने एक बार अपने गुरुदेव को चौबीस घंटों की लम्बी समाधि में भी निमग्न, प्रशान्त, अकम्प और तूर्या अवस्था प्राप्त देखा था। उनकी ध्यानधारणा के वर्णनो से उनका जीवन चरित्र भरा पड़ा है।
उपासना के विषय में श्री मुख वचन ये हैं—“जो मनुष्य सचे प्रेम से, भक्ति भाव से परमेश्वर की उपासना करेंगे, उन उपासकों को परम कृपामय, अन्तर्यामी परमेश्वर, मोक्ष, सुख, सम्पन्न कर सदा के लिये आनन्दी कर देगा।” “इस में सन्देद नहीं कि जो जन अपनी सब वस्तुएँ परमेश्वर के लिये समर्पित कर देता है, उस को परमकारुणिक परमात्मा सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है। जो मनुष्य पूजने योग्य प्रभु का अपने हृदय रूप आकाश में, भली भति, प्रेम, भक्ति और सत्याचरण द्वारा पूजन करता है, वही उत्तम मनुष्य है।”
धारणा का वर्णन करते हुए कहा है—“मन को निश्चल कर के उसको नाभि, हृदय, मस्तक और जीभ के अग्र भाग आदि देशों में स्थिर कर ॐकार का चिन्तन करना धारणा है।” धारणा का फल यह बताया है—“परमेश्वर के स्वरूप में मन और आत्मा की धारणा होने से व्यावहारिक और पारमार्थिक विवेक बरावर बढ़ता रहता है। ईश्वर में विशेष भक्ति होने से मन का समाधान होता है और तब मनुष्य समाधि योग को शीघ्र प्राप्त कर लेता है।”
महाराज का ध्यान सम्बन्धी उपदेश इस प्रकार है—“एकान्त स्थान में आसन लगा कर अपने मन को शुद्ध और आत्मा को स्थिर करें। अपनी इन्द्रियों और मन को सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म में निमन कर सम्यक् प्रकार से चिन्तन करें। परमात्मा ही में निज आत्मा को जोड़े। उसी परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना बार बार कर के आत्मा को भली भाँति लवलीन बनावे।” ऐसी विधि से उपासना आराधना करे—“जिस से उपासक के मन को एकाप्रता, प्रसन्नता और यथार्थ ज्ञान उपलब्ध हो। उसके हृदय में परमात्मा का प्रकाश, प्रेम और भक्ति आदि गुण बढ़ते चले जाएं।”
“प्राणायाम पूर्वक उपासना करने से, आत्मा के ज्ञान को आवृत्त करनेवाला अज्ञान नित्य प्रति नष्ट होने लगता है और आत्म ज्ञान का प्रकाश धीरे धीरे बढ़ता चला जाता है। अपने आत्मा में जो आनन्द स्वरूप अन्तर्यामी परमेश्वर विद्यमान है, उसके स्वरूप में निमग्नता लाभ करनी चाहिए।” विमल गम्भीर नीर में नहानेवाला जन, “जैसे बार बार गहरी डुबकी लगा कर ऊपर आता और नीचे जाता है, वैसे ही परमेश्वर में अपनी आत्मा को बार बार निमग्न करना अत्यन्त उचित है। ध्यान और आश्रय के योग्य, अन्तर्यामी, व्यापक परमेश्वर के प्रकाशमय, आनन्दमय स्वरूप में सुविमल विचार और परम प्रेम भक्ति से उपासक को ऐसे प्रवेश करना चाहिए जैसे सागर में नदियाँ प्रवेश करती हैं। ध्यान काल में, ध्याता को अपने ध्येय, परमात्मा के अतिरिक्त दूसरी किसी भी वस्तु का स्मरण चिन्तन करना उचित नहीं है।”
नाड़ियों में ध्यान—“गङ्गा आदि नाम इडा, पिङ्गला, सुषुम्ना, कूर्म और जठराग्नि की नाड़ियों के हैं। इनमें ध्यान करने से अभ्यास करने से—उपासक के सारे दुःख दूर हो जाते हैं। उपासना धारणा नाड़ियों द्वारा ही करना पड़ता है। इड़ा और पिङ्गला ये दोनों नाड़ियाँ जहाँ मिलती है, उस संगम स्थान का नाम सुषुम्ना है। उस संगम में स्नान करने से, योगाभ्यास करने से उपासक जन शुद्ध हो जाते हैं। तदनन्तर परम पवित्र रूप परमात्मदेव को या कर सदा आनन्द में रहते हैं।”
संकेत रूप से अनाहत नाद का निरूपण—“मुख और जिह्वा के व्यापार के बिना ही, मन में विविध व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों का उँगलियों से बन्द कर के सुनो कि बिना मुख, जीभ, तालू आदि अंग हिलाये कैसे कैसे शब्द भीतर हो रहे हैं।” परमात्मा के ध्यान में निमग्न रहनेवाले उपासक की सिद्ध अवस्था का श्री स्वामी जी ने इस प्रकार वर्णन किया है—“जैसे प्रचण्ड अग्नि कुण्ड में उत्तप्त किया लोहा भी लाल अग्निरूप हो जाता है, वैसे ही जिस अवस्था में उपासक अपनी देहादि के अध्यास को भूल जाता है, और परमात्मा के ज्ञान से जगमगा उठता है और उसके प्रकाश से, स्वरूप से, आनन्द से, ज्ञान से अपनी आत्मा को परिपूर्ण कर लेता है, उस शान्त अवस्था को समाधि कहते हैं।”
ध्यान और समाधि में क्या भेद है, इसको भगवान् दयानन्द ने यों दर्शाया है—“ध्यान और समाधि में केवल इतना ही भेद है। कि ध्यान में तो ध्याता—ध्यान करनेवाला—ध्यानं, अर्थात् जिस मन से ध्यान किया जाता है, और ध्येय, अर्थात् जिस वस्तु का वह ध्यान करता है, ये तीनों बने रहते हैं। परन्तु समाधि में तो आत्मा केवल परमात्मा ही के आनन्द स्वरूप और ज्ञान में निमन हो जाता है। वहाँ ध्याता, ध्यान और ध्येय का भेद भाव नही रहता।”
प्रशंसित श्री परमहंसजी ने घर बारी लोगों को उपासना के जिस प्रकारका उपदेश किया है, वह सुगम, सरल और आदरणीय है। वे कहते हैं—“स्त्री पुरुषों को सदा रात्रि के दस बजे सोना चाहिए। वे सबेरे चार बजे, ब्राह्म मुहूर्त्त में उठ बैठें। सब से पहले ईश्वर का चिन्तन कर के फिर धर्म और अर्थ का चिन्तन करें। उस दिन जो कार्य करने हों, उनका समय विभागादि बनावें। धम्म और अर्थ के कामों को करते हुए यदि कोई कष्ट क्लेश भी हो, तो भी ऐसी धारणा करें कि उनका परित्याग कदापि न होने पावे। व्यावहारिक और परमार्थिक कर्तव्य कर्म की सिद्धि के लिये ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना भी किया करें। परमेश्वर की कृपा दृष्टि और सहायता से महा कठिन कार्य भी बड़ी सुगमता से सिद्ध हो जाते हैं।” “इस प्रकार परमेश्वर की प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। तत्पश्चात् शौच हो, दतुवन कर, मुँह हाथ धो नान करना उचित है। एक वा डेढ़ कोस दूर एकान्त जङ्गल में जा कर योगाभ्यास की रीति से उपासना करे। घड़ी आधी बड़ी दिन चढ़े तक घर में आ जाय और सन्ध्योपासना आदि नित्य कर्म यथाविधि करे।” सन्ध्योपासना में, “कम से कम तीन और अधिक से अधिक इक्कीस प्राणायाम विधिपूर्वक करने चाहिएँ।” “जो मनुष्य धर्माचरण से ईश्वर और उसके प्रदेश में अति प्रेम करते हैं और हृदय रूप विमल वन में रात दिन रहते हैं, वे परमेश्वर के समीप वास करते हैं।”