परमात्म प्रेम को जाग्रत करने के लिये, सन्तों में, स्तुति और प्रार्थना का बड़ा प्रभाव माना जाता है। आत्मिक आकाश में उड़ने के लिये मन पंछी के स्तुति और प्रार्थना दो प्रबल पंख हैं। इनके बिना दूसरे सारे साधन नीरम रहते हैं, आध्यात्मिक विकास मन्द पड़ जाता है।
परमहंस श्री दयानन्द जब स्तुति प्रार्थना के मन्त्र उच्चारण करते थे, तब प्रेम रस का एक सागर सा उमड़ पड़ा करता था। उनके शब्द सजीव होते थे। वाक्यों में भाव ओत प्रोत रहता था। उनका एक एक वचन श्रोताओं के अन्तःकरण को स्पर्श करता था। उस समय उस अपूर्व भक्ति रस के प्रवाह में लोग ऐसे निमग्न हो जाते थे कि उनको देश काल तक का ज्ञान न रहता था। उन्हें एक प्रकार की लीनता का अनुभव होने लगता था। उपदेश के आरम्भ में श्रीमहाराज जब ‘ओम’ नाद गुंजाया करते, तब वह भी एक मनमोहन मंत्र बन जाया करता था। श्रोताओं के चित्त तुरन्न एकाग्र हो जाया करते थे।
उन्होंने अपनी जीवन यात्रा समाप्त करते समय, ईश्वर की लीला का जो महत्व वर्णन किया है, वह उनकी प्रार्थना का, उनकी प्रभु परायणता का और उनके परमात्म प्रेम का समुज्ज्वल और ज्वलन्त प्रमाण है। नीचे उद्धृत प्रार्थनाएँ परमहंसजी के भावों का पूर्ण रूप से प्रकाश करती हैं—
“हे प्राणपते, प्राण प्रिय, प्राणाधार, प्राण जीवन, आपके बिना मेरा सहायक दूसरा कोई भी नहीं है। मेरे ईश्वर मैं अत्यन्त दीनता से यही वर माँगता हूँ कि मैं आप और आप की आज्ञा से भिन्न पदार्थ में कभी प्रीति न करूँ।”
“हे परमेश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव,हे अज, निरञ्जन, निर्विकार, सर्वान्तर्यामिन्, सर्वाधार जगत्पते, सकल जगत् उत्पादक, हे अनादि विश्वम्भर, सर्वव्यापिन, हे करुणामृतवारिधे,,, आप सब को देखनेवाले हो, अविनाशी हो, आश्चर्य गुण, आश्चर्य शक्ति, आश्चर्य स्वरूप और सर्वोत्तम हो। कोई आप के समान है और न कोई आप से महान है।”
“हे जगदीश दिव्य गुणों सहित हमारे हृदय में प्रकट होइए। हे प्राण प्रिय अपने भक्तों को परमानन्द प्रदान करना आप का सत्यव्रत है। आप से पालित हम लोग सदैव उत्तम कामों में उन्नति करें, आनन्द को प्राप्त होवें।”
“हे सर्वज्ञ आप ही स्तुति करने योग्य हो। सत्पुरुषों के प्रतिपालक आप ही हो। हम को सुन्दर सुख देनेवाले आप ही हो। हम लोग आपको सर्वोपरि विराजमान मानते हैं। सो अपनी अपार कृपा से हम में आवेश कीजिये, जिस से हम अविद्यान्धकार से निकल कर विद्या सूर्य को प्राप्त हों और परमानन्द को उपलब्ध करें सुखप्रद ईश्वर आप कृपया हमारे हृदय देश में ऐसे रमण कीजिये जैसे आकाश में सूर्य की किरण रमण करती है, ज्ञान में विद्वानों का मन रमण करता है और निज निवास मन्दिर में मनुष्य का मन रमण करता है।”

“परमात्मन् आप देवों के भी देव हो, देवों को परमानंद देनेवाले हो, सब के सुखकारी सखा हो, अतीव शोभाधाम और सुशोभा के दाता हो। आप अपनी शक्ति से, सब जनों के हृदय मण्डल में, नित्य सत्योपदेश कर रहे हो। आप के अनुग्रह से हम परस्पर प्रेम प्रीति युक्त रहें; सदैव आप ही की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें; आप ही को पिता, माता, बन्धु, राजा मानें; स्वामी और सहायक समझें। आप ही को सुखदाता, सुहद् और परम गुरु जानें। आप के तुल्य तथा आप से अधिक किसी को कभी भी स्वीकार न करें क्षण मात्र के लिये भी आप को न भूलें। हे करुणामय जैसे माता पिता अपनी सन्तानों का पालन करते हैं, वैसे ही आप हमारा पालन कीजिये।”
“हे न्याय प्रिय हम को भी न्यायकारी बनाइये। हे धर्माधीश हम को भी धर्म में स्थिर कीजिये। हे सर्वमित्र सब प्राणी मुझे मित्र दृष्टि से देखें, मेरे सब मित्र बन जायें। मुझ से कोई किंचितमात्र भी वैर विरोध न करे हे परमात्मन् आप की कृपा से मैं भी सचराचर जगत् को निर्वैरता से अपने प्राण समान प्यारा समझूँ। हम सब प्राणधारी परस्पर निष्पक्ष, प्रेम प्रीतियुक्त बर्ताव करें, किसी के साथ अन्याय युक्त व्यवहार कदापि न करें। आप के अनुग्रह से हम सब एक दूसरे के प्रेमी, रक्षक और सहायक हो,हम पुरुषार्थी बनें। एक दूसरे का दुःख न देख सकें; अपने देशवासियों को परस्पर प्रेम बद्ध बनावें; पाखण्ड रहित निर्वैर करें।”
“जो सब पदार्थों से सर्वोपरि समर्थ, सच्चिदानन्द स्वरूप, नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाववान् है; जो कृपा सागर, पूर्ण न्यायशील, अजर, अमर, निराकार और घट घट का साक्षी है; सब का धर्त्ता, पिता, उत्पादक, पोषणकर्त्ता, सकल ऐश्वर्य शाली, शुद्ध स्वरूप और प्राप्ति की कामना करने योग्य है, उस परमात्म देव के चेतन स्वरूप को हम धारण करें। वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों का अन्तर्यामि स्वरूप, हम को दुष्टाचार और अधर्म युक्त मार्ग से हटा कर श्रेष्ठाचार और सन्मार्ग पर चलावे।”