उन्नीसवीं सदी में एक ऐसा दौर आया था जब पश्चिमी साम्राज्यवाद अपनी बुलंदी पर था और भारत के लोग अपनी संस्कृति और मान्यताओं को कमजोर समझ रहे थे। अंधविश्वासों और कुरीतियों ने समाज को जकड़ रखा था। ऐसे समय में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पुनर्जागरण और आत्मगौरव का संचार किया। वो सामाजिक और आध्यात्मिक सुधार के निर्भीक योद्धा थे।