जो कहना – स्पष्ट कहा-सीधा कहा
दोगलापण मुझमें नहीं हैः
“मैं अमृत को विष में मिश्रित करके देना नहीं चाहता। सच्चाई को छिपाना महापाप है। अन्त में सत्य ही की जय हुआ करती है।”
श्रीमद्दयानन्द प्रकाश
दोषों का स्वीकार
दयानन्द स्वंय को मनुष्य मानते हैं, देवता या ईश्वर नहीं। इसलिए वे सरल स्वभाव से कहते हैं-
“हम सर्वज्ञ नहीं और सब बातें हमें उपस्थित (प्रत्यक्ष) भी नहीं। हमारे बोलने में अनन्त दोष होते होंगे। इसका हमें ज्ञान भी नहीं है। दोष बतलाने पर हम स्वीकार करेंगे। सत्य की छानबीन होनी चाहिए, वितण्डा नहीं होनी चाहिए। यही हमारी बुद्धि में आता है।”
पूना प्रवचन (उपदेश मंजरी)