यही सज्जनों की रीति है कि अपने व पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों को ग्रहण और दोषों का त्याग करें और हठियों का हठ दुराग्रह न्यून करें करावें।

(सत्यार्थप्रकाश अनुभूमिका समुल्लास 14)