जो बाहर भीतर की पवित्रता करनी, सत्यभाषणादि आचरण करना है वह जहां कहीं करेगा आचरण और धर्म भ्रष्ट कभी न होगा और जो आर्यावर्त्त में रह कर दुष्टाचार करेगा वही धर्म और आचार भ्रष्ट कहलायेगा।

(सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 10)