1 ) बड़े शोक की बात है कि देश में अनेक गिरजाघर बन गये और पादरी लोग राम , कृष्णादि भद्रपुरुषों की निरंतर निंदा करते है |
2 ) ईसाई सैकड़ों लोगों को बहका कर भ्रष्ट कर रहे है उनको हटाने को पण्डित व राजा आदि राजपुरुषों ने कुछ भी प्रयत्न नहीं किया |
3 ) निराकार एक ईश्वर का विश्वासी व्यक्ति ही ईसाई प्रचारकों पर विजय प्राप्त कर सकता है |
4 ) कोई किसी को दुर्व्यसन से छुड़ाने का उपदेश करता है और आप उसी दुर्व्यसन में फंसा है , उसका उपदेश कोई भी नहीं मानेगा |
5 ) ईसाई मत को हटाने कि ईच्छा रखने वाले को उचित है कि मूर्ति पूजा और पुराणों को छोड़ कर ही उनको हटाया जा सकता है |
6 ) जैसा मैं ईसाई और इस्लाम मत का खंडन करता हूँ वैसा ही अपने हिन्दुओं कि वर्तमान धार्मिक अवस्था पर भी सहमति प्रकट नहीं करता हूँ |
7 ) राजा का कार्य एक पर निर्भर न रखे किन्तु राजपुरुष और प्रजापुरुष की अनुमति के अनुकूल प्रचलित करें |
8 ) राजा और राजपुरुषों के सत्य धर्मयुक्त उत्तम पुरुषार्थ ही से सबको सब प्रकार के आनंद प्राप्त होते हैं |
9 ) ऐसा न होवे कि निर्बल अनाथ लोग बलवान और राजपुरुषों से पीड़ित होकर रुदन करें और उनके अश्रु भूमि पर गिरें कि जिससे सर्वनाश हो जावे |
10 ) जिस देश में बहुत बिगाड़ हुआ है उसके प्रति मेरा उपदेश भी अधिक है क्योंकि जो अधिक रोगी होता है उसका निदान , ओषधि और पथ्य भी अधिक करना होता है |
11 ) इस देश में प्रथम बहुत सुखों और विद्याओं की उन्नति थी सो यह देश इस वक्त ऐसा बिगड़ा है कि इतना बिगाड़ किसी अन्य देश में देखने में नहीं आता है |
12 ) मेरी प्रार्थना यह है कि देश में सनातन ऋषि मुनियों के ग्रन्थ और उनके द्वारा कि गई वेदों कि व्याख्या उसी रीति से वेदों का यथावत अर्थ ज्ञान और उसमें कहे गए जो व्यवहार के नियम उनकी प्रवृति यथावत करावे इससे ही देश सुधरेगा |
13 ) पुत्र को माता-पिता आदि कि सेवा श्रद्धा से उनके जीवन पर्यन्त करना अवश्य है |
14) यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्त्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसा ही दूसरे देशस्थ वा मतोन्नति वालों के साथ वर्तत्ता हूँ |
15) मैं जैसे स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्तता हूँ वैसा ही विदेशियों के साथ भी वर्तता हूँ |
- सब पदार्थ संसार में सुलभ है परन्तु शुद्ध मनुष्य का मिलना दुर्लभ है ।
- बुरे लोग अपनी बुराई को नहीं छोड़ते तो बुद्धिमान् धर्मात्मा लोग अपनी धर्मयुक्त कार्यों को क्यों छोड़ कर दुःखसागर में पड़ जाते है ।
- हमारे द्वारा एक भी असत्य कार्य हो जाने पर हमारा सम्पूर्ण निर्दोष कार्य समाप्त हो जाता है | अतः एव जीवन में कभी भी असत्य का सहारा नहीं लेना।
- मेरे जीवन का उद्देश्य संसार का उपकार करना और हानि किसी की न कराना ही है।
- मेरी तो यही ईच्छा, यही कामना, और यही उत्साह है कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझूँ ।
- मैं कोई नवीन मत चलाना नहीं चाहता , किंतु सनातन वेद मत का प्रकाश करता हूँ ।
- बहुत से पढे लिखे लोगों को भी नौकरी नहीं मिलती, या वे जीवन निर्वाह नहीं कर पा रहे है। ऐसी स्थिति में मै एक कला-कौशल के स्कूल की आवश्यकता महसूस करता हूं। (यह बात 3. नवम्बर 1880 की है।)
- मैने केवल परमार्थ और स्वदेशोन्नति के कारण अपने समाधि और ब्रह्मानन्द को छोड़ कर यह कार्य ग्रहण किया है।
- मैने जो उपकार करना निश्चित किया है जहां तक बन पड़ेगा आमरण करूगां ही, अगले जन्म में भी करूंगा।
- जो मेरी निंदा करते है उन पर ध्यान न देना चाहिए, क्योंकि जो निंदक होते है वो निंदा ही किया करते है और क्षमावान क्षमा ही करते है।
- जो दुष्ट दुष्टता को नहीं छोडता तो श्रेष्ठ श्रेष्ठता को क्यों छोडें।
- मैं सिवाय वेदोक्त सतातन आर्यावर्तीय धर्म के अन्य किसी को न स्वीकारता था , न स्वीकारता हूं और न स्वीकार करूंगा।
- मेरा निर्णय अटल है मेरे शरीर से प्राण ही क्यों न निकले तो भी वेदोक्त धर्म के विरुद्ध कभी भी नहीं जा सकता ।
- मुझे अपने शरीर के नष्ट होने की चिन्ता नहीं है मुझे तो चिंता है की जिस परोपकार के लिए यह शरीर है वह परोपकार का कार्य रूक जाएगा।
31.जो मेरे आत्मा से जो ठीक समझता हूं उसी को प्रकट करता हूं । लाग लपेट की और पालिसी की बातें मुझे करनी नहीं आती है।
- जितनी भलाई और विद्या है वे सब वेद से निकली और जितने वेद विरुद्ध मत हैं वे सब पाखण्ड रूप हैं।
- सत्य ही सर्वदा विजयी होता है झूठ कभी नहीं। इस लिए सर्वदा सत्य की उन्नति में सब जने उद्यत रहें।
- स्वदेशी राज्य ही सर्वोपरि उत्तम होता है किन्तु विदेशियों का राज्य चाहे वह कितना ही पक्षपात शुन्य, अपने पराये के भेद से पृथक् न्यायपूर्ण तथा माता-पिता के समान सुखदायक क्यों न हो कदापि हितकारी नहीं हो सकता।
- विद्वानों की शिक्षा और वेद पढे विना केवल स्वाभाविक ज्ञान से किसी मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता।
- परमेश्वर हम लोगों के लिए उपदेश करके सफलता सिद्ध करी है,क्यों कि परमेश्वर हम लोगों का माता-पिता के समान है।
- सब जगत का राजा परमेश्वर ही है और सब संसार उसकी प्रजा है |
- जो राज्य परमात्मा के अधीन और विद्वानों के प्रबंध में होता है वह सब सुखकारक पदार्थ और वीर पुरुषों से अत्यंत प्रकाशित होता है |
- जो मनुष्य ब्रह्म अर्थात् परमात्मा और वेद का जानने वाला है वही ब्राह्मण होने योग्य है |
- जो इन्द्रियों का जीतने वाला , पंडित शूरता आदि गुणों से युक्त श्रेष्ट , वीरपुरुष , क्षत्रधर्म को स्वीकार करता है सो क्षत्रिय होने योग्य है |
- न्याय से राज्य का पालन करना ही अश्वमेध कहाता है किन्तु घोड़ों को मार के उसके अंगों का होम करना यह अश्वमेध नहीं है |
- विद्वानों की शिक्षा और वेद पढे विना केवल स्वाभाविक ज्ञान से किसी मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता।
- परमेश्वर हम लोगों के लिए उपदेश करके सफलता सिद्ध करी है,क्यों कि परमेश्वर हम लोगों का माता-पिता के समान है।
- सब जगत का राजा परमेश्वर ही है और सब संसार उसकी प्रजा है |
- जो राज्य परमात्मा के अधीन और विद्वानों के प्रबंध में होता है वह सब सुखकारक पदार्थ और वीर पुरुषों से अत्यंत प्रकाशित होता है |
- जो मनुष्य ब्रह्म अर्थात् परमात्मा और वेद का जानने वाला है वही ब्राह्मण होने योग्य है |
- जो दूसरों को मोह में डाल और दूसरों की हानि पर ध्यान न देकर स्वप्रयोजन सिद्ध करता है उससे दूर ही रहें |
- जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी उसके साथ वैसे ही पूरी करनी चाहिए |
- जिस प्रकार आरोग्य विद्या और बल प्राप्त हो उसी प्रकार भोजन छादन और व्यवहार करें |
- जो इन्द्रियों का जीतने वाला , पंडित शूरता आदि गुणों से युक्त श्रेष्ट , वीरपुरुष , क्षत्रधर्म को स्वीकार करता है सो क्षत्रिय होने योग्य है |
- न्याय से राज्य का पालन करना ही अश्वमेध कहाता है किन्तु घोड़ों को मार के उसके अंगों का होम करना यह अश्वमेध नहीं है |
- माता –पिता ध्यान रखे कि संतान किसी धूर्त के बहकावे में न आवे और जो जो विद्या अधर्म विरुद्ध भ्रान्तिजाल में गिराने वाले व्यवहार है उसका उपदेश करें |
- माता पिता संतान को भुत प्रेत आदि मिथ्या बातों से दूर रहने का उपदेश करें जिससे कि संतान मिथ्या बातों का विश्वास न करें |
- ईश्वर के न कोई तुल्य और न अधिक है वही हमारा पिता राजा न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है |
- राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि सभी पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रखें उनको पाठशाला में अध्ययन के लिए अवश्य भेजें |
- जो विद्या पढ़ के धर्माचरण करता है वही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है |
- जो पुरुष सुवर्ण आदि रत्न और कामरूप व्यसन सेवन आदि में नहीं फंसते है उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है |
- धर्म अधर्म का निर्णय बिना वेद के नहीं होता है |
- जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखंडरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकता |
- जो जो पढना पढ़ाना हो वह वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके होना योग्य है |
- जो दुश्ताचारी अजितेन्द्रिय है उसके वेद ,त्याग , यज्ञ , नियम , और ताप तथा अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते है |
- उन्हीं के सन्तान विद्वान् ,सभ्य और सुशिक्षित होते है , जो पढाने में सन्तानों का लाडन कभी नहीं करते।
- किसी दूसरे के सामन एक बार भी चोरी , जारी , मिथ्या भाषण आदि करता है तो मरणोपरान्त तक उसके सामने स्वयं को सही नहीं दिखा सकता।
- जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करो उसको पुरा अवश्य करो नहीं तो कोई भी आप पर विश्वास कभी भी नहीं करेगा।
- जितना बोलना चाहिए उससे अधिक या न्यून न बोले।
- जो जो सत्य जाने उन उन का प्रकाश और प्रचार करें।
- जिसको सदा से सब मानते आये , मानते है और मानेंगे वही सनातन नित्यधर्म कहे जाते है मैं उसी को मानता |
- जिसको आयत अर्थात सत्यमानी , सत्यवादी , सत्यकारी , परोपकारक , पक्षपात रहित विद्वान् मानते है मैं भी उसी को मानता हूँ |
- मेरा कोई भी नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है |
- जो सत्य है उसको मानना , मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना ही मेरा कर्तव्य है |
- यदि मुझे किसी के साथ पक्षपात करना होता तो आर्यावर्त में परचलित मतों में से ही किसी को मान लेता |
- जो धर्मयुक्त बातें है उनका त्याग नहीं करता न करना चाहता हूँ |
- मनुष्य वही है जो मनन करता हो अपने जैसा व्यवहार सब के लिए करता है |
- मैं बलवान अन्यायकारी राजा से भी नहीं डरता परन्तु निर्बल धर्मात्मा से डरता हूँ |
- अपने पूर्ण सामर्थ्य से अनाथ निर्बल धर्मात्मा की रक्षा करों चाहे वह गुणरहित ही क्यों न हों |
- संसार में कही भी एक भी धर्मात्मा सज्जन हो उसका साथ जरुर देना |
- कोई मत अच्छा या बुरा नहीं है बस सत्यभाषण , अहिंसा , दया आदि शुभ गुण सब मतों में अच्छे है बाकी वाद , विवाद , ईर्ष्या , द्वेष , मिथ्याभाषण आदि कर्म सब मतों में बरें है |
- किसी को सत्य मत ग्रहण करने की ईच्छा हो तो वैदिक मत को ग्रहण करें |
- सत्य सत्य ही रहेगा आपके मानने से सत्य असत्य नहीं हो जायेगा |
- सब वर्णों के स्त्री पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए।
- जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकता।
- जो ब्राह्मण है वे ही केवल विद्याभ्यास करें और क्षत्रियादि न करें तो विद्या,धर्म राज्य और धनादि की वृद्धि कभी नहीं हो सकती।
- धर्म अधर्म का निश्चय विना वेद के ठीक वेद के ठीक ठीक नहीं होता।
- जो धर्म के ज्ञान की ईच्छा करें वे वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें।
- जो विद्या पढ के धर्माचरण करता है वही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है।
- जो धर्माचरण से रहित है वह वेदप्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल को प्राप्त नहीं हो सकता।
- जो वेद को न पढ के अन्यत्र श्रम किया करता है वह अपने पुत्र पौत्र सहित शुद्रभाव को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।
- जो मान सम्मान से विष के तुल्य डरता है और धर्म के कार्यों में मिले अपमान को अमृत के तुल्य ग्रहण करता है वहीं धर्मात्मा है।
- जिस व्यक्ति के वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित सदा रहते है उसी को सदा वेदों के सिद्धान्तरूप फल को प्राप्त होता है।
- जो धर्म की उन्नति चाहे वह सदा सत्य में चले और सत्य ही का उपदेश करे।
- विद्वानों को योग्य है कि वैरबुद्धि छोड के सब मनुष्यों के कल्याण के मार्ग का उपदेश करें।
- बुरे कर्म करने में अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है।
- झुठ बोलने में सदा पाप और सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है।
- जैसे श्वासप्रश्वास सदा लिये जाते है बन्द नहीं किये जा सकते है वैसे ही नित्यकर्म में सन्ध्या वन्दन प्रतिदिन करना ही होता है।
- माता पिता को विदित है कि पांचवे वा आठवे वर्ष में बालक को बालक के और बालिका के बालिका के पाठशाला में अध्ययन हेतु अवश्य भेजे।
- जब तक होम करने का प्रचार प्रसार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखो से पूरित था।
- प्रत्येक मनुष्य को सोलह सोलह आहुति और छः छः माशे घृत की आहुति कम से कम देनी ही चाहिए यदि अधिक सामथ्र्य है तो अधिक करें।
- जितना घृत और सुगन्धित पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है।
- जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है इस प्रकार होम करने से सबका उपकार होता है।
- अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।
- जो सब प्रार के कष्ट भी सह के धर्म का अचारण करता है वह पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त सभी पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करता है।
- ईश्वर के न कोई तुल्य और न कोई अधिक है वही हमारा पिता राजा न्यायाधीश और सब सुखों का देने हारा है।
- कोई भी पांचवे अथवा आठवें वर्ष के बाद अपने बच्चों को घर में न रखें उसे अध्ययन हेतु राज नियम होना चाहिए यदि जो नियम पालन नहीं करेगा वह दण्ड का भागी होगा।
- शिक्षक की दृष्टी में सभी शिष्य एक समान होने चाहिए चाहे वह राजकुमार हो या निर्धन बालक।
- माता पिता हमेशा ध्यान रखें कि जो दुष्टाचारी है उससे सन्तान को कभी भी शिक्षा न दिलावें।
- महर्षि लोगों का आशय जहां तक हो सके वहां तक सुगम और जिस के ग्रहण में समय थोडा लगे इस प्रकार का होता है।
- महर्षि लोगों का आशय जहां तक हो सके वहां तक सुगम और जिस के ग्रहण में समय थोडा लगे इस प्रकार का होता है।
- ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिए पढना चाहिए कि वे बडे विद्वान सब शास्त्रवित् और धर्मात्मा थे।
- जो जो वेद में करने और छोडने की शिक्षा की है उस उस का हम यथावत् करना छोडना मानते है।
- वेद हम को मान्य है इसलिए हमारा मत वेद है।
- सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
- ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करने योग्य है।
- वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढना – पढाना और सुनना – सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।
- सब काम धर्मानुसार, अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें।
- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।
- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।
- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से संतुष्ट न रहना चाहिये, किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।
- सब मनुष्यों को सामाजिक, सर्वहितकारी, नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने सब स्वतंत्र रहें।
121 . सब को ऐक्यमत में करा द्वेष छुड़ा परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त करा के सब से सब को सुख लाभ पहुंचाने के लिए मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है .
- ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना उपासना कहती है .
- सुख विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का नाम स्वर्ग है .
124 . सत्य का ग्रहण असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार ओए जो इसको करता है वह शिष्ट है .
- जैसे आर्य श्रेष्ठ दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते है वैसे ही मैं भी मानता हूँ .
- मैं स्वतन्त्र नहीं हूं प्रत्युत मैं वेदों का अनुयायी हूं।
- यदि आर्य लोग वेदोक्त धर्म का प्रीतिपूर्वक सेवन करें तो कल्याण सुनिश्चित है।
- वेद ईश्वरीय वाक्य होने से सर्वथा मुझे मान्य है।
- चारों वेदों में एक वाक्य भी ऐसा नहीं जिसको मैं नहीं मानता हूं।
- वेदों को मनुष्यों के हितार्थ परमात्मा ने प्रकाशित किया है।
- आर्य नाम हमारा और आर्यावर्त नाम हमारे देश का सनातन वेदोक्त है।
- सभी को आपस में परस्पर नमस्ते कहना चाहिए, सलाम या बंदगी नहीं।
- जब सब सज्जन विद्वान मनुष्य शीघ्र विरूद्ध मतों को छोडकर एक अविरूद्ध मत का ग्रहण करेंगे तभी आनन्दित होगें।
- मेरा शरीर , प्राण भी जावे जो भी मैं वैदिक धर्म के विरूद्ध कभी कहीं भी आचारण नहीं कर सकता।
- जो सत्य ईश्वर को छोडेंगे वे मिथ्या भ्रम जाल भूत प्रेतों में फंसकर धर्म से दूर हो जाएंगें।
- जितने आर्यावर्तवासी सज्जन लोग है उनसे मेरा यह कहना है कि इस सनातन संस्कृत विद्या का उद्धार अवश्य करें।
- जो संस्कृत विद्या लुप्त हो जायगी तो सब मनुष्यों की बहुत हानि होगी इसमें कोई संदेह नहीं।
- पाठशाला में मुख्य संस्कृत जो मातृभाषा है उसकी ही वृद्धि होनी चाहिए।
- गोरक्षा और आर्य भाषा हिन्दी को राजकार्य में प्रयोग लाने के लिए शीघ्र प्रयत्न किया जाना चाहिए।
- राज्य की सभी गाय आदि पशुओं की गणना अवश्य कराए तथा नए पशु जन्म और मरण की भी राज्याधिकारी को जानकारी देेवे जिससे गौ आदि पशुओ की चोरी न हो सकें।
- राजपुरूष अपना अमुल्य समय मद्य, वेश्या संग आदि में न लगा के न्याय धर्म से प्रजापालनादि शुभ कर्मों में ही व्यय किया करें।
142 . जो वेदों को स्वर और पाठमात्र पढ़ के अर्थ नही जानता, वह वृक्ष के जैसा डाली,पत्ते,फल-फूल और अन्य पशुओं आदि का भार उठाता है
तृतीय समुल्लास
- जो अविद्वान हैं,वे सुनते हुए भी नही सुनते,देखते हुए भी नही देखते,बोलते हुए भी नही बोलते अर्थात वे लोग इस विद्या वाणी के रहस्य को नही जान सकते
तृतीय समुल्लास
- संसार में जितने भी दान हैं अर्थात जल,अन्न,गौ,पृथ्वी,वस्त्र,तिल, सुवर्ण और घृतादि इन सभी दानों में से “वेदविद्या” का दान अतिश्रेष्ठ है। इसलिए जितना बन सके ,उतना तन,मन,धन से विद्या में वृद्धि करें।
तृतीय समुल्लास
145 . जल से बाहर के अंग,सत्याचार से मन,विद्या और धर्मानुष्ठान से जीवात्मा और ज्ञान से बुद्धि पवित्र होती है।
चतुर्थ समुल्लास
- जो-जो पराधीन कर्म हो,उसका प्रयत्न से त्याग और जो-जो स्वाधीन कर्म हो उसका प्रयत्न के साथ सेवन करें।
चतुर्थ समुल्लास
- किया हुआ अधर्म निष्फ़ल कभी नही होता, परन्तु जिस समय अधर्म करते हैं उसी समय फल भी नही मिलता इसलिए अज्ञानी लोग अधर्म से नही डरते।
चतुर्थ समुल्लास
- जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध हो जाता है, वैसे ही प्राणायाम करके मन आदि इंद्रियों के दोष निर्मल हो जाते हैं।
पञ्च समुल्लास
- जो इंद्रियां चित्त का हरण करने वाले विषयों में प्रवृत्त कराती है ,मनुष्य को उन इंद्रियों को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए।।
दशम समुल्लास
- जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता है,सुंदर-शील स्वभाव युक्त,नियम पालनयुक्त,अभिमान अपवित्रता से रहित,विद्यादान से संसारी जनों के दुःखों को दूर करने वाला,कर्मों से पराए उपकार करने में रहते हैं ऐसे नर व नारी धन्य हैं।
तृतीय समुल्लास
- पाठशाला में माता-पिता अपने सन्तानों से व सन्तान अपने माता-पिता से न मिल सकें। जिससे संसारी चिंता से रहित होकर केवल विद्या बढ़ाने की चिंता रखें।
तृतीय समुल्लास
- जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश व ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तबतक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।
तृतीय समुल्लास
- परमात्मा आज्ञा देता है कि मनुष्य सौ वर्ष पर्यन्त अर्थात् जब तक जिए ,तब तक कर्म करता हुआ जीने की इच्छा करे, आलसी कभी न हो।
सप्तम समुल्लास
- हे सुख के दाता स्वप्रकाश स्वरूप परमात्मा , आप हमें श्रेष्ठ मार्ग से सम्पूर्ण ज्ञानों को प्राप्त कराइए। और जो हम में कुटिल पापाचरणरूप मार्ग हैं ,उससे अलग कीजिए।
सप्तम समुल्लास
- दण्ड देने का प्रयोजन इसलिए है कि मनुष्य अपराध करने से बन्ध होकर दुःखों को प्राप्त न हो वही दया कहलाती है। सप्तम समुल्लास
- परमात्मा की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान,ज्ञानी और योगी लोग करते हैं, उसी बुद्धि से युक्त हम भी वर्तमान समय में अपने आप बुद्धिमान करें।
सप्तम समुल्लास
- ऐसी प्रार्थना कभी नही करनी चाहिए कि, मेरे शत्रुओं का नाश हो,मुझे सबसे बड़ा,मेरी ही प्रतिष्ठा और मेरे ही आधीन सब हो जाए। क्योंकि परमात्मा दोनों के लिए एक है।
सप्तम समुल्लास
- सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करें उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करो अर्थात अपने पुरुषार्थ के उपरांत प्रार्थना करनी योग्य है।
सप्तम समुल्लास
- जो अविद्यादि क्लेश,अकुशल ,ईष्ट,अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है ,वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहलाता है।
सप्तम समुल्लास
- जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था नीति सभी देशों में समान होती है, उसी प्रकार परमात्मा राज राजेश्वर की वेदोक्त नीति भी अपने सृष्टिरूप सभी राज्य में एक सी है।
अष्टम समुल्लास
- जैसे राजा और प्रजा समकाल में होते हैं और राजा के आधीन प्रजा होती है, वैसे ही परमेश्वर के आधीन जीव और जड़ पदार्थ हैं।
अष्टम समुल्लास
- जो अविद्या के भीतर खेल रहे हैं,अपने आप को धीर और पंडित मानते हैं,वे मूढ़,जैसे अंधे के पीछे अंधे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं वह भी वैसे दुःखों को पाते हैं।
पँचमसमुल्लास
- अपने आत्मा की पवित्रता विद्या के अनुकूल अर्थात जैसा अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सर्वत्र समझ लेना चाहिए कि मैं भी किसी को दुःख या सुख दूँगा तो वह भी अप्रसन्न व प्रसन्न होगा।
तृतीय समुल्लास
- परमात्मा के डर से ,अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा नही करनी चाहिए। उस अन्याय को त्यागो और न्यायाचरणरूप धर्म से अपनी आत्मा से आनन्द की पाओ
तृतीय समुल्लास
- जो दुराचार से पृथक नही,जिसे मन की शान्ति नही और जिसकी आत्मा योगी न हो , वह सन्यास लेकर भी प्रज्ञान परमात्मा को प्राप्त नही होता।
पंचम समुल्लास
- बुद्धिमान लोग अपनी वाणी और मन को अधर्म से रोकें ,उनको ज्ञान व आत्मा में लगाएं और उस ज्ञान,स्वात्मा को परमात्मा में लगाएं और उस विज्ञान को शान्त स्वरूप आत्मा में स्थिर करें।
पंचम समुल्लास
- इन्द्रियों और संस्कार के दोष से अविद्या उतपन्न होती है।
तृतीय समुल्लास
- जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे तभी मनुष्य ज्ञानवान होता है, वह सन्तान बड़ी भाग्यवान होती है।
द्वितीय समुल्लास
- जो माता-पिता और आचार्य, सन्तानों व शिष्यों को कठोर अनुशासन में रखते है,वे मानो अमृत पिला रहे हैं।
और जो सन्तानों व शिष्यों को लाड करते हैं ,वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिला रहे हैं।
द्वितीय समुल्लास
- वे माता-पिता अपनी सन्तानों के पूर्ण बैरी हैं, जिन्होंने उनको विद्या की प्राप्ति न कराई हो। वे विद्वानों की सभा में ऐसे तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे: हंसों के बीच में बगुला।
द्वितीय समुल्लास
- माता-पिता का परमधर्म और कीर्तिमान कर्तव्य यही है कि वे अपने सन्तानों को तन,मन,धन से विद्या, धर्म,सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना।
द्वितीय समुल्लास
- जैसे मूल जड़ कट जाने से वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही पाप को छोड़ने से दुःख नष्ट हो जाता है।
नवम समुल्लास
- सभी जीव स्वभाव से सुख प्राप्ति की इच्छा और दुःख से मुक्ति चाहते हैं, लेकिन जबतक धर्म नही करते और पाप नही छोड़ते तबतक उन्हें सुख का मिलना और दुःख का छूटना नही होगा।
नवम समुल्लास
- नित्य स्नान,वस्त्र,अन्न,पान,स्थान सब शुद्ध रखें,इनके शुद्ध होने से चित्त की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होकर पुरुषार्थ बढ़ता है।।
दशम समुल्लास
- जैसे बगुला ध्यानावस्थित होकर।मच्छी पकड़ने को ताकता है, वैसे ही अर्थसंग्रह का विचार किया करें और बल की वृद्धि कर शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करें।
षष्ठ समुल्लास
- जो राजा मोह से, अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है,वह राज्य और अपने बन्धुसहित जीवन से पूर्व ही शीघ्र नष्ट-भृष्ट हो जाता है
षष्ठ समुल्लास
- ब्राह्मण को पढ़ना-पढाना,यज्ञ करना-कराना, दान देना-लेना, छः कर्म हैं, परन्तु प्रतिग्रह लेना नीच कर्म है।।
चतुर्थ समुल्लास
- जब मनुष्य की आत्मा सबको जानने को चाहे,गुण ग्रहण करता रहता है अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म से आत्मा प्रसन्न होवे तब समझना कि मुझ में सत्वगुण प्रबल है
नवम समुलल्लास
- एक दोष तुम्हारा यह भी है,जो पश्चाताप और प्रार्थना से पापों की निवृत्ति मानते हो। इसी बात से जगत में बहुत से पाप बढ़ गए हैं।।
एकादश समुल्लास
- पापों का भय न होकर पाप में प्रवृति हो बहुत हो गई है। यदि जो वेदों को जानते-सुनते तो बिना भोग के पाप-पुण्य की निवृत्ति न होने से पापों से डरते और धर्म में सदा प्रवृत्त रहते ।। जो लोग भोग के बिना निवृत्ति माने तो ईश्वर अन्याय कारी होता है।
एकादश समुल्लास
- बड़े-बड़े नगरों में एक-एक विचार करने वाली सभा होनी चाहिए, जिसमें बड़े-बड़े विद्यावृद्ध जिन्होंने विद्या से सभी प्रकार की परीक्षा की हो वे लोग बैठकर विचार किया करें। जिन नियमों से राजा व प्रजा की उन्नति हो, वैसे-वैसे नियम और विद्या प्रकाशित किया करें
षष्ठ समुल्लास
- जो राजपुरुष अन्याय से गुप्त धन लेकर,पक्षपात से अन्याय करे,तो उसे यथायोग्य दण्ड देकर ऐसे देश में रखें कि जहां से वह पुनः लौटकर न आ सके। क्योंकि यदि उसे दण्ड न दिया जाए तो,उसे देखकर अन्य राजपुरुष भी ऐसे दुष्ट कार्य करेंगे।
षष्ठ समुल्लास
- अति लोभ के कारण, अपने व दूसरों के सुख को नष्ट कदापि न करें क्योंकि जो व्यवहार और सुख का छेदन करता है, वह अपने आपको और लोगों की ही पीड़ा देता है।
षष्ठ समुल्लास
- जो गुरु लोभी, क्रोधी और मोही हो तो उसे सर्वथा छोड़ देना चाहिए। जैसे गड़रिये अपनी भेड़-बकरियों से दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार ऐसे गुरु अपने चेलों के धन-काम से अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। एकादश समुल्लास
- जैसे पत्थर की नौका में सवार होकर जल में तरने वाला डूब जाता है, वैसे ही अज्ञानी दाता व ग्रहीता दोनों ही दुःख को प्राप्त होते है।
चतुर्थ समुल्लास
- जो धर्म कुछ भी न करे परन्तु धर्म के नाम पर लोगों को ठगे, सर्वदा लोभ से युक्त अपना प्रयोजन सिद्ध करने में चाहे अपनी बातें झूठी क्यों न हो परन्तु हठ कभी न छोड़े,ऊपर से झूठ सन्तोष व साधुता दिखाए, ऐसे लक्षणों वाले पाखण्डी होते हैं उन्हें बगुले समान नीच समझें व कभी विश्वास न करें ।
चतुर्थ समुल्लास
- कोई शत्रु आपकी निर्बलता को न जान सके लेकिन आप स्वयं शत्रु की निर्बलता को जानते रहें। जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने वाले मार्गों को गुप्त रखें।
षष्ठ समुल्लास
- इस बात को दृढ़ रखें कि कभी बुद्धिमान,कुलीन,शूरवीर,चतुर, दानी और धैर्यवान पुरुष को शत्रु न बनाएं क्योंकि जो ऐसे लोगों को शत्रु बनाएगा वह दुःख पाएगा।
षष्ठ समुल्लास
- विद्वान और राजा की कभी तुल्यता नही हो सकती, क्योंकि राजा केवल अपने राज्य में ही मान व सत्कार पाता है, जबकि विद्वान सर्वत्र जगह मान और प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है।
पंचम समुल्लास
- जो राजा दण्ड को अच्छे प्रकार से चलाता है,वह धर्म,अर्थ,और कार्य की सिद्धि को बढ़ाता है। और जो विषय में लम्पट,टेढ़ा,ईर्ष्या करनेवाला नीच बुद्धि न्यायधीश राजा होता है,वह दण्ड से ही मारा जाता है।।
षष्ठ समुल्लास
- प्रजा पालन करना ही राजा का परम धर्म है, और जैसा सभा नियत करे उसका भोक्ता राजा धर्म से युक्त होकर सुख को पाता है, अन्यथा इसके विपरीत दुःख को प्राप्त होता है
षष्ठ समुल्लास
- बाल्यावस्था में एक सी शिक्षा हो,सत्यभाषण आदि धर्म का ग्रहण और मिथ्याभाषण आदि अधर्म का त्याग करें तब एकमत अवश्य हो जाएं।
एकादश समुल्लास
- धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी कम होने से संसार में सुख बढ़ता है। जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख व जब सभी विद्वान एक सा उपदेश करें तो एकमत सुख।
एकादश समुल्लास
- मनुष्य का नेत्र विद्या ही है, बिना विद्या के शिक्षा का ज्ञान नही होता।जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं वे ही मनुष्य विद्वान होते हैं। और जिन्हें कुसंग है वे दुष्ट महामूर्ख होकर बड़े दुःख पाते हैं।
एकादश समुल्लास
- सदा धर्मयुक्त कर्मों का सेवन, अधर्मयुक्त कर्मों का त्याग ,ईश्वर ,वेद,सत्याचार की निन्दा न करने वाला ,ईश्वर आदि में अत्यंत श्रद्धालु हो,वही विद्वान का महकर्तव्य कर्म है।
चतुर्थ समुल्लास
- जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे, नष्ट हुए पदार्थ पर शोक न करे, मोह को न प्राप्त न व्याकुल हो,वही बुद्धिमान विद्वान है।\
चतुर्थ समुल्लास
- परमात्मा सभी के मन में सत्य मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय को प्राप्त हो । इसमें सभी विद्वान लोग विचार कर विरोधाभास छोड़ कर अविरुद्ध मत से मिलकर आनन्द को बढाएं।
दशम समुल्लास
- जिस राजा के राज में न चोर,न दुष्टवचन बोलनेवाला,न डाकू और न ही राजा की आज्ञा को भंग करने वाला है, वह राजा अति श्रेष्ठ है।
षष्ठ समुल्लास
- दुष्ट पुरुषों को मारने में पाप नही होता,चाहे प्रसिद्ध मारे चाहे अप्रसिद्ध,क्योंकि क्रोधी को क्रोध से मारना जानों क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।।
षष्ठ समुल्लास
- जो निकम्मा आलसी कभी न रहे,सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान-अपमान, निंदा-स्तुति में हर्ष व शोक कभी न करे, जिसके मन को उत्तम से उत्तम पदार्थ विषय सम्बन्धी वस्तु आकर्षित न कर सके वही असली विद्वान वही है।।
चतुर्थ समुल्लास
- तप का यथार्थ शुद्धवाद, सत्य मानना, सत्य करना, मन को अधर्म में न जाने देना, बाह्य इन्द्रियों को अन्याय चरणों में जाने से रोकना,वेदादि सत्य विद्याओं का पढ़ना-पढ़ाना, वेदानुसार आचरण करना, आदि धर्मयुक्त कर्मों का नाम तप है। धातु को तपा के चमड़ी को जलाना तप नही कहलाता।
एकादश समुल्लास
- जो वेदों का अभ्यास,धर्मानुष्ठान,ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा,इन्द्रियों का निग्रह, धर्म क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है, यही सत्यगुण के लक्षण होते हैं।
नवम समुल्लास
- विद्वान और विद्यार्थियों को चाहिए कि, बैरबुद्धि छोड़कर सभी मनुष्यों के कल्याण के मार्ग का उपदेश करें और सदा मधुर सहज वाणी बोले।जिस मनुष्य की वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित हो,वही सभी वेदों के सिद्धांतरूप फल को प्राप्त होता है।।
तृतीय समुल्लास
- जब अधर्मी मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़कर मिथ्याभाषण,कपट,पाखण्ड और विश्वासघात आदि कर्मों को लेकर बढ़ता है, अन्याय से तो शत्रुओं को भी जीतता है। फिर वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अधर्मी नष्ट- भ्रष्ट हो जाता है।
चतुर्थ समुल्लास
- इन्द्रियों को जीतने हेतु दिन-रात नियत समय में योगाभ्यास भी करते रहें क्योंकि अपनी इन्द्रियों को जीते बिना बाहर की प्रजा को अपने वश में करना समर्थ नही हो सकता।
षष्ठ समुल्लास
- जिन्हे विद्या नही होती, वे पशु के समान यथा-तथा बड़-बड़ाया करते हैं। जैसे सनकी,जवारयुक्त मनुष्य अनाप-शनाप बकता है, वैसे अविद्वानों के कहे या लेख को व्यर्थ समझना चाहिए।।
सप्तम समुल्लास
- जब अधर्मी मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़कर मिथ्याभाषण,कपट,पाखण्ड और विश्वासघात आदि कर्मों को लेकर बढ़ता है, अन्याय से तो शत्रुओं को भी जीतता है। फिर वह शीघ्र नष्ट हो जाता है।जैसे जड़ से कटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार अधर्मी नष्ट- भ्रष्ट हो जाता है।
चतुर्थ समुल्लास
- इन्द्रियों को जीतने हेतु दिन-रात नियत समय में योगाभ्यास भी करते रहें क्योंकि अपनी इन्द्रियों को जीते बिना बाहर की प्रजा को अपने वश में करना समर्थ नही हो सकता।
षष्ठ समुल्लास
- जिन्हे विद्या नही होती, वे पशु के समान यथा-तथा बड़-बड़ाया करते हैं। जैसे सनकी,जवारयुक्त मनुष्य अनाप-शनाप बकता है, वैसे अविद्वानों के कहे या लेख को व्यर्थ समझना चाहिए।।
सप्तम समुल्लास
- जैसे माता-पिता अपने सन्तानों पर कृपा-दृष्टि कर उन्नति चाहते हैं, वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है।
सप्तम समुल्लास
- जिससे मनुष्य अविद्या-अंधकार से छूटकर विद्या विज्ञानरूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहे
सप्तम समुल्लास
- किसी पाखण्डी दुष्टाचारी मनुष्य पर विश्वास न करें ।और जिस-जिस उत्तम कर्म के लिए माता-पिता और आचार्य आज्ञा दें, उसका यथेष्ट पालन करें।
द्वितीय समुल्लास
- माता-पिता का कर्त्तव्य कर्म परमधर्म और कीर्ति का काम है जो अपने सन्तानों को तन,मन,धन से विद्या,धर्म,सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना ।
द्वितीय समुल्लास
- सभा में ऐसे स्थान पर बैठे जैसी अपनी योग्यता हो और दूसरा कोई न उठा पाए। विरोध किसी से न करें, सम्पन्न होकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें।।
द्वितीय समुल्लास
- किसी को अभिमान करना योग्य नही है, क्योंकि अभिमान सभी शोभा व यश का नाश कर देता है,इसलिए अभिमान नही करना चाहिए।
द्वितीय समुल्लास
- छल-कपट व कृतघ्नता से अपना ही हृदय दुःखित होता है।छल-कपट उसे कहते हैं जो भीतर और बाहर और दूसरे को मोह में डाल उसकी हानि पर ध्यान न देकर स्वप्रयोजन सिद्ध करना।कृतघ्नता उसे कहते हैं, किसी के किए हुए उपकार को न मानना।
द्वितीय समुल्लास
- क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त और मधुर वचन ही बोलें,बहुत बकवाद न करें,जितना हो उससे न्यून या अधिक न बोलें,बड़ों मान्य दें, उनके सामने उठकर उच्चासन पर बैठावें, उनके सामने उत्तम आसन पर न बैठे ।।
द्वितीय समुल्लास
- न्याय से प्रजा की रक्षा व पक्षपात छोड़ के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना चाहिए।
चतुर्थ समुल्लास
- दान,विद्या,धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थ का व्यय करणा वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना और विषयों में न फंसकर जितेंद्रिय रहकर सदा आत्मा से बलवान रहना चाहिए।
चतुर्थ समुल्लास
- गुण उसे कहते हैं जो संयोग और विभाग में कारण न हो,दूसरों की अपेक्षा न करे उसका नाम गुण है।
तृतीय समुल्लास
- जो उत्तम विद्या स्वभाव वाले है,वही विद्वान के योग्य है और जो मूर्ख होता है तो वह आगे भी वैसा ही होगा।
चतुर्थ समुल्लास
- स्त्री को योग्य है कि प्रसन्नता से घर के कार्यों को इस प्रकार पवित्र बनाए जो औषधीरूप होकर शरीर व आत्मा में रोग को आने न देवे,घर के किसी भी कार्य को बिगड़ने न देवे।
चतुर्थ समुल्लास
- दुष्टों की यही रीति है कि सम्मुख में गुण कहना और पीछे से दोषों का प्रकाश करना।
चतुर्थ समुल्लास
- जब तक मनुष्य दूसरे से अपने दोष नही सुनता या कहने वाला नही कहता तब तक मनुष्य दोषों से छूटकर गुणी नही हो सकता।
चतुर्थ समुल्लास
- सत्पुरुषों को योग्य है कि मुख के सामने दूसरे का दोष कहना और अपना दोष सुनना, पीछे में दूसरे के गुण सदा कहना।
चतुर्थ समुल्लास
- जो राजा दुष्ट व्यसनों में फंसता है,वह अर्थ अर्थात राज्य-धनादि से रहित हो जाता है और जो क्रोध से उतपन्न हुए बुरे व्यसनों में फंसता है वह शरीर से भी रहित हो जाता है।
षष्ठ समुल्लास
- स्वार्थी, हिंसक,क्रूर व दुष्टाचारी पुरुषों से पृथक रहने वाला ही जीत और विद्यादि दान से सुख को प्राप्त होता है।
चतुर्थ समुल्लास
- जब तक शिष्य गुरुकुल में रहे तब तक अध्यापकों को माता-पिता समान समझे और अध्यापक शिष्यों को अपने सन्तानों के समान समझे।
चतुर्थ समुल्लास
- आलस्य, नशा, मोह, किसी वस्तु में फँसावट, चपलता और इधर-उधर की व्यर्थ कथा करना-सुनना, पढ़ते-पढ़ाते रुक जाना,अभिमानी,अत्यागी होना ये सात दोष वाले विद्यार्थी जो ऐसे होते हैं ,उन्हें विद्या कभी नही आती।
चतुर्थ समुल्लास
- सुख भोगने वाले को विद्या नही और विद्या पढ़ने वाले को सुख नही । क्योंकि विषय सुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दें।
चतुर्थ समुल्लास
- अध्यापक लोग ऐसा यत्न करें जिससे विद्यार्थी लोग सत्यवादी,सत्यकारी ,जितेंद्रिय, शुभगुण युक्त शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ाकर समग्र वेदादि-शास्त्रों में विद्वान हों।।
चतुर्थ समुल्लास
- जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा न सुना हो अति घमंडी,दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करनेवाला ,बिना कर्म के प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो,उसी को बुद्धिमान लोग मूढ़ कहते हैं।।
चतुर्थ समुल्लास
- जैसे-जैसे मनुष्य शास्त्रों को यथावत जानता है, वैसे-वैसे उस विद्या का विज्ञान बढ़ता जाता है और उसी में रूचि बढ़ती जाती है।।
चतुर्थ समुल्लास
- जो राजा मोह से, अविचार से अपने राज्य को दुर्बल करता है,वह राज्य और अपने बन्धुसहित जीवन से पूर्व ही शीघ्र नष्ट हो जाता है।।
षष्ठ समुल्लास
- अति लोभ से अपने,दूसरे के सुख के मूल को नष्ट कदापि न करें, क्योंकि जो व्यवहार और सुख मूल का छेदन करता है,वह अपने को ही पीड़ा देता है।। –षष्ठ समुल्लास
- जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा न सुना हो अति घमंडी,दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करनेवाला ,बिना कर्म के प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो,उसी को बुद्धिमान लोग मूढ़ कहते हैं।।
चतुर्थ समुल्लास
- न्याय से प्रजा की रक्षा व पक्षपात छोड़ के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना चाहिए।
चतुर्थ समुल्लास
- जो इन्द्रियों के वश में होकर विषयी,धर्म को छोड़कर ।अधर्म करने वाले अविद्वान हैं, वे मनुष्य में नीच जन दुःख को प्राप्त होते हैं।।
नवम समुल्लास
- जो नर शरीर से चोरी,श्रेष्ठों को मारने जैसे दुष्ट कर्म करे, वह वृक्ष समान।वाणी से किए पाप-कर्म से पक्षी समान और मन से किए गए दुष्ट कर्म वाले चाण्डाल आदि समान होते हैं।।
नवम समुल्लास
- जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा न सुना हो अति घमंडी,दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करनेवाला ,बिना कर्म के प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो,उसी को बुद्धिमान लोग मूढ़ कहते हैं।।
चतुर्थ समुल्लास
- न्याय से प्रजा की रक्षा व पक्षपात छोड़ के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना चाहिए।
चतुर्थ समुल्लास
- जो इन्द्रियों के वश में होकर विषयी,धर्म को छोड़कर ।अधर्म करने वाले अविद्वान हैं, वे मनुष्य में नीच जन दुःख को प्राप्त होते हैं।।
नवम समुल्लास
- जो नर शरीर से चोरी,श्रेष्ठों को मारने जैसे दुष्ट कर्म करे, वह वृक्ष समान।वाणी से किए पाप-कर्म से पक्षी समान और मन से किए गए दुष्ट कर्म वाले चाण्डाल आदि समान होते हैं।।
नवम समुल्लास
- वेतन अर्थात किसी की “नौकरी” में से ले लेना या कम कर देना या न देना। प्रतिज्ञा के विरुद्ध वाला ,पशुओं के स्वामी समान होता है।
षष्ठ समुल्लास
- जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, दण्ड के योग्य दण्ड और मान्य के योग्य मान्य होता है, वहाँ के राजा और सभासद पाप से रहित और पवित्र हो जाते हैं।।
षष्ठ समुल्लास
- किसी से ऋण लेने-देने का विवाद,किसी के पास धरा हुआ पदार्थ मांगने पर न देना। दूसरे के पदार्थ को दूसरा बेच लेवे यह पाप के मार्ग हैं।
षष्ठ समुल्लास
- जो भीतर से शत्रु से मिला हो और अपने साथ भी ऊपर से मित्रता रखे।गुप्तता से शत्रु को भेद देवे,ऐसे मित्र पुरुष को सबसे बड़ा शत्रु समझना चाहिए।
षष्ठ समुल्लास
- जो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा और अपने आप को ही बड़ा कहे और दूसरे की निन्दा करना मूर्खता की बात है। क्योंकि प्रशंसा उसी की ठीक है ,जिसकी दूसरे विद्वान करे। अपने मुख से अपनी प्रशंसा तो चोर भी करते हैं।।
द्वादश समुल्लास
- जिसका मत सत्य है,उसे किसी से डर नही होता। और जो जानते है उनका मत झूठ है, दूसरों सुनाएंगे तो खण्डन होगा,इसलिए सबकी निन्दा करो और लोगों को फंसाओ।।
द्वादश समुल्लास
- विवेकी लोग चाहे किसी भी मत के हों,वे अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहते हैं।।
द्वादश समुल्लास
- सभी से वैर-विरोध,निन्दा, ईर्ष्या आदि दुष्ट कर्मरूप दुःख सागर में डुबाने वाला मार्ग है।।
द्वादश समुल्लास
- जैसे कोई दया करके अंधे सिंह की आंख खोलने जाए तो वह उसी को खा ले,ऐसे अधर्मियों का उपकार करना ,अपना ही नाश कर लेना है।।
द्वादश समुल्लास
- जो मनुष्य जैसा होता है, वह प्रायः अपने ही जैसा दूसरों को भी समझता है।
द्वादश समुल्लास
- सभी सभासद व सभापति इन्द्रियों को जीतने अर्थात अपने वश में रख सदा धर्म वर्ते और अधर्म से हटें।। षष्ठ समुल्लास
- जो अभिमान ,अहंकार है, वह सब शोभा और धन का नाश कर देता है,इसलिए अभिमान नही करना चाहिए।
द्वितीय समुल्लास
- गुणों में दोष और दोषों में गुण लगाना, और गुणों में गुण ,दोषों में दोषों का कथन करना स्तुति कहलाती है।
चतुर्थ समुल्लास
- सज्जनों का संग और दुष्टों का त्याग, अपने माता-पिता और आचार्य की तन-मन से सेवा करें।
द्वितीय समुल्लास
- जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो,उसी प्रकार भोजन और व्यवहार करें-करावें अर्थात जितनी क्षमता हो ,उससे कुछ न्यून भोजन करें।
द्वितीय समुल्लास
- जैसे विद्वान सारथी घोड़ों को नियम में रखता है, वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खींचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करे।
तृतीय समुल्लास
- जो दुष्टाचारी,अजितेंद्रीय पुरुष है,उसके वेद,त्याग,यज्ञ,नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नही होते।
तृतीय समुल्लास
- जिस मनुष्य की वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित सदा रहते हैं, वही सब वेदांत- सब वेदों के सिद्धान्तरूप फल को प्राप्त होता है।
तृतीय समुल्लास
- बालकों को माता सदा उत्तम शिक्षा दें ,जिससे सन्तान सभ्य हो और किसी अंग से कुचेष्टा न करने पाए।।
द्वितीय समुल्लास
- दुष्ट व्यसन में फंसने से मर जाना अच्छा है, क्योंकि जो दुष्टाचारी पुरुष हैं, वह अधिक जिएगा तो अधिक से अधिक पाप करके नीच-नीच गति अर्थात अधिक दुःख को प्राप्त होता जाएगा। षष्ठ समुल्लास
- जब बालक कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े-छोटे,मान्य,पिता-माता, विद्वान आदि से भाषण उनसे वर्तमान और उनके पास बैठने आदि की भी शिक्षा करें जिससे कहीं उनका अयोग्य व्यवहार न हो।।
द्वितीय समुल्लास
- जैसे सन्तान जितेंद्रिय ,विद्याप्रिय और सत्संग में रूचि करें वैसा प्रयत्न करते रहें। व्यर्थ क्रीड़ा,रोदन,हास्य,लड़ाई,हर्ष, शोक किसी पदार्थ में लोलुपता,ईर्ष्या,द्वेषादि न करे।
द्वितीय समुल्लास
- उन्ही के सन्तान विद्वान,सभ्य और सुशिक्षित होते हैं,जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न नही करते किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं।।
द्वितीय समुल्लास
- जो सदा नम्र सुशील विद्वान और वृद्धों की सेवा करता है, उसकी आयु,विद्या,कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नही करते उनके आदि चार नही बढ़ते।।
तृतीय समुल्लास
- जिस मार्ग से पिता-पितामह चले हों, उस मार्ग में सन्तान भी चलें। परन्तु जो पिता-पितामह सत्यपुरुष हों उन्ही के मार्ग में चले और यदि जो पिता-पितामह दुष्ट हों तो उनके मार्ग में कभी न चलें।।
चतुर्थ समुल्लास
- जैसे मुख सभी अंगों में श्रेष्ठ है,वैसे ही पूर्ण विद्या और उत्तम गुण,कर्म स्वभाव से युक्त मनुष्य जाति में उत्तम ब्राह्मण कहलाता है।।
चतुर्थ समुल्लास
- जिस घर में व स्थान पर स्त्रियों का सत्कार होता है,उसमें पुरुष विद्यायुक्त होकर देवसंज्ञा धरा के आनन्द से क्रीड़ा करते हैं। और जहाँ पर स्त्रियों का सत्कार नही होता वहां सभी क्रिया निष्फल हो जाती हैं।।
चतुर्थ समुल्लास
- ऐश्वर्य की कामना करने वाले मनुष्यों को योग्य है कि, सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र व भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें।।
चतुर्थ समुल्लास
- “पूजा” शब्द का अर्थ सत्कार है और दिन-रात में जब-जब प्रथम मिलें या पृथक हों तब-तब प्रीतिपूर्वक एक-दूसरे से “नमस्ते” करें। चतुर्थ समुल्लास
- सदा प्रिय सत्य दूसरे का हितकारक बोलें अप्रिय सत्य अर्थात काने को काना न बोलें। अनृत अर्थात झूठ दूसरे को प्रसन्न करने के अर्थ न बोलें।।
चतुर्थ समुल्लास
- धर्म कुछ भी न करे परन्तु धर्म के नाम से लोगों को ठगे सर्वदा लोभ से युक्त,कपटी संसारी मनुष्यों के सामने अपनी बढ़ाई के गपोड़े मारा करे,प्राणियों का घातक,अन्य से वैरबुद्धि रखनेवाला ,सब अच्छे और बुरे से भी ताल-मेल रखे ,उसको विडाल के समान धूर्त और नीच समझो।।
चतुर्थ समुल्लास
- भीतर के राग, द्वेषादि-दोष और बाहर के मलों को दूर कर शुद्ध रहना अर्थात सत्यासत्य के विवेकपूर्वक सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से निश्चय पवित्र होता है।
चतुर्थ समुल्लास
- जैसे वक एक पैर उठा ध्यानावस्थित के समान होकर झट मच्छी के प्राण हरके अपना स्वार्थ सिद्ध करता है, वैसे आजकल के वैरागी, हठ दुराग्रही वेद विरोधी हैं, ऐसों का सत्कार वाणीमात्र से भी नही करना चाहिए।
चतुर्थ समुल्लास
- यज्ञ करने वाला, सदा उत्तम चाल-चलन की शिक्षा कारक, विद्या पढ़ानेवाला, आयुर्वेद का ज्ञाता -माता-पिता, बहिन-भ्राता, पुत्र-पुत्री, स्त्री और सेवक लोगों से विवाद अर्थात विरुद्ध लड़ाई बखेड़ा कभी न करे।।
चतुर्थ समुल्लास
- चाहे अपनी बातें झूठी क्यों न हो परन्तु हठ कभी न छोड़े,ऊपर से झूठ सन्तोष व साधुता दिखाए, ऐसे लक्षणों वाले पाखण्डी होते हैं उन्हें बगुले समान नीच समझें व कभी विश्वास न करें ।
चतुर्थ समुल्लास
- जो बिना बुलाए सभा व किसी के घर में प्रविष्ठ हो उच्च आसन पर बैठना,चाहे बिना पूछे सभा में बहुत सा बके, विश्वास के अयोग्य वस्तु या मनुष्य में विश्वास करे वही मूढ़ और सब मनुष्यों में नीच कहलाता है।।
चतुर्थ समुल्लास
- जब कहीं उपदेश या संवाद आदि में कोई सन्यासी पर अथवा निन्दा करे तो, सन्यासी को उचित है कि उस पर स्वयं क्रोध न करे, बल्कि सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश करें।।
पंचम समुल्लास
- सभी मनुष्य आदि प्राणियों की सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना सन्यासी का मुख्य कर्म है। पंचम समुल्लास
- सभी वर्णों में धार्मिक,विद्वान,निष्कपटी,सभी प्रकार धर्म को जानने वाले,लोभरहित,सत्यवादियों को न्यायव्यवस्था में विश्वास करें । इनसे विपरीत लोगों को कभी न करें।
षष्ठ समुल्लास
- कभी बुद्धिमान, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दाता किए हुए को जाननेवाला और धैर्यवान पुरुष को शत्रु न बनाएं, क्योंकि जो ऐसे को शत्रु बनाएगा वह दुःख पाएगा।।
षष्ठ समुल्लास
284.जो संग्रामों में एक-दूसरे को हनन करने की इच्छा करते हुए राजा लोग जितना अपना सामर्थ्य हो बिना डर पीठ दिखाए युद्ध करते हैं वे सुख को प्राप्त होते हैं।
षष्ठ समुल्लास
- कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिए उनके सामने से छिप जाना उचित है क्योंकि जिस प्रकार से शत्रु को जीत सके वैसे काम करें।
षष्ठ समुल्लास
- ध्यान रखें कि स्त्री, बालक, वृद्ध और आतुर तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलाएं। उनके लड़के-बालकों को अपने सन्तानवत पाले और उनको अपनी माँ-बहन और कन्या समान समझें, कभी विषयासक्ति की दृष्टि से भी न देखें।
षष्ठ समुल्लास
- जैसे जोंक, बछड़ा और भमरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं वैसे राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर लेवे।
षष्ठ समुल्लास
- राजाओं का प्रजापालन करना ही परम धर्म है और जैसा सभा नियत करे उसका भोक्ता राजा धर्म से युक्त होकर सुख पाता है,इसके विपरीत दुःख को प्राप्त होता है।
षष्ठ समुल्लास
- जो राजा कार्य को देखकर तीक्ष्ण और कोमल भी होवे व दुष्टों पर तीक्ष्ण और श्रेष्ठों पर कोमल रहने से राजा अतिमाननीय होता है।
षष्ठ समुल्लास
- जैसे धान्य का निकालने वाला छिलकों को अलग कर धान्य की रक्षा करता है वैसे ही राजा चोर-डाकुओं को मारे और राज्य की रक्षा करे।।
षष्ठ समुल्लास
- राजा और राजसभा राजकार्य की सिद्धि के लिए ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे राजकार्य यथावत सिद्ध हों।।
षष्ठ समुल्लास
- जो राजपुरुष अन्याय से वादी प्रतिवादी से गुप्त धन लेके पक्षपात से अन्याय करे , उनका सर्वस्वहरण करके यथायोग्य दंड देकर ऐसे देश में रखें कि जहां से वह पुनः लौटकर न आ सके।।
षष्ठ समुल्लास
- अति लोभ से अपने,दूसरों के सुख के मूल को नष्ट कदापि न करें क्योंकि जो व्यवहार और सुख मूल का छेदन करता है वह अपने और उनको ही पीड़ा देता है।।
षष्ठ समुल्लास।।
- इंद्रियों के दुष्ट विषयों का त्याग, वेदोभक्त कर्म और तपश्चरण से संसार में मोक्षपथ को पूर्वोक्त सन्यासी ही सिद्ध कर और करा सकते हैं, अन्य नही।
पञ्चमःसमुल्लास
- धर्म तो पक्षपात रहित न्यायाचरण ,सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा का पालन,परोपकार,सत्यभाषण आदि लक्षण सभी का अर्थात् सब मनुष्यमात्र का एक ही है।।
पञ्चमः समुल्लास
- श्रेष्ठों का नाम लिखकर ग्रन्थरचना इसलिए करते हैं कि सर्वमान्य के नाम से इन ग्रन्थों को सारा संसार मान लेवे और पुष्कल जीविका भी हो। इसलिए अनर्थ गाथायुक्त ग्रन्थ बनाते हैं।
चतुर्थ समुल्लास
- जिसके माता पिता धार्मिक विद्वान हों, जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है, उतना किसी से नही।।
द्वितीय समुल्लास
- लाड़न से संतान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं। परन्तु माता-पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या-द्वेष से ताड़न न करें किन्तु ऊपर से भय प्रदान करें और भीतर से कृपादृष्टि रखें।।
द्वितीय समुल्लास
- न्याय और दया का नाम मात्र ही भेद है,क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से।।
सप्तम समुल्लास
- परमात्मा पूर्ण ज्ञानी है, क्योंकि ज्ञान उसको कहते हैं कि जिससे ज्यों का त्यों जाना जाए। अर्थात जो पदार्थ जिस प्रकार का हो उसको उसी प्रकार जानने का नाम ज्ञान है।।
सप्तम समुल्लास
- यदि परमेश्वर कर्म करवाता तो कोई जीव पाप नही करता, क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्रेरित नही करता।।
सप्तम समुल्लास
- झूठ और सच हमारे में ही कल्पित हैं और हम दोनों के साक्षी अधिष्ठान है।
एकादश समुल्लास
- प्रमाणिक वह होता है जो सर्वदा सत्य माने,सत्य माने,सत्य करे,झूठ न माने,झूठ न बोले और झूठ कदाचित न करे।
एकादश समुल्लास
- ब्रह्म, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम है। गुरु उसके तुल्य कभी नही हो सकता। उनकी सेवा करनी उनसे विद्या, शिक्षा लेनी-देनी, शिष्य और गुरु का काम है। परंतु जो गुरु लोभी, क्रोधी, मोही और कामी हो तो उसे सर्वथा छोड़ देना चाहिए।
एकादश समुल्लास
- जो विद्यादि सद्गुणों में गुरुत्व नही हैं, झूठ-मूठ वेद-विरुद्ध मंत्रोपदेश करने वाले हैं वे गुरु ही नही बल्कि गड़रिये जैसे हैं।जैसे गड़रिये अपनी भेड़-बकरियों से दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं, वैसे ही शिष्यों के धन हर के अपना प्रयोजन करते हैं।
एकादश समुल्लास
- जैसी पोपलीला पुजारी- पुराणियों ने चलाई है वैसे ही इन गड़रिये गुरुओं ने भी लीला मचाई है। यह सब काम स्वार्थी लोगों का है। और गुरु माहात्म्य तथा गुरुगीता आदि भी इन्ही लोभी कुकर्मी गुरुओं बनाई है।
एकादश समुल्लास
- माँ-बाप के ब्राह्मण होने से और किसी साधु के शिष्य होने पर ब्राह्मण या साधु नही हो सकते ,किन्तु ब्राह्मण और साधु अपने उत्तम गुण,कर्म व स्वभाव से होते हैं, जो कि परोपकारी हों ।
एकादश समुल्लास
- जब उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नही रहते तब अंध परम्परा चलती है।
एकादश समुल्लास
- जब सत्पुरुष उत्पन्न होकर सत्योपदेश करते हैं तभी अंधपरम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है।
एकादश समुल्लास
- जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य ज्ञान और अनन्त आनन्दस्वरूप परमात्मा को जानता है वह उस व्यापकरूप ब्रह्म के साथ कामों को प्राप्त होता है। अर्थात जिस-जिस आनन्द की कामना करता है उस-उस आनन्द को प्राप्त होता है।
नवम समुल्लास
- सभी जीव स्वभाव से सुखप्राप्ति की इच्छा और दुःख का वियोग होना चाहते हैं परन्तु जब तक धर्म नही करते और पाप नही छोड़ते तब तक उन्हें सुख का मिलना और दुःख का छूटना नही होगा।
नवम समुल्लास
- क्षत्रियों को राज्य के अधिकार देने से कभी राज्य की हानि या नही विघ्न नही होता।
चतुर्थ समुल्लास
- युद्ध में भी दृढ़ निःशंक रहकर उससे कभी न हटना न भागना अर्थात इस प्रकार से लड़ना कि जिससे निश्चित विजय होवे, आप बचें ,जो भागने से या शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती है तो ऐसा ही करना।।
चतुर्थ समुल्लास
- जिस-जिस पुरुष में जिस-जिस वर्ण के गुण- कर्म हों , उस-उस को वर्ण का अधिकार देना ,ऐसी व्यवस्था रखने से सब मनुष्य उन्नतिशील होते हैं।।
चतुर्थ समुल्लास।
- यह बात थोड़े से अंश में तो अच्छी है कि एकत्र वास करने से जगत का उपकार अधिक नही हो सकता और स्थानांतर का भी अभिमान होता है।।राग द्वेष भी अधिक होता है,परन्तु जो विशेष उपकार एकत्र रहने से होता हो तो रहे।
पँचम समुल्लास
- जब मूर्ख और स्वार्थियों को दान देने में अच्छा समझते हैं तो विद्वान और परोपकारी सन्यासियों को देने में कुछ भी दोष नही हो सकता।।
पंचम समुल्लास
- जो केवल आत्मा का बल अर्थात विद्या ज्ञान बढ़ाया जाए और शरीर का बल न बढ़ाया जाए तो एक ही बलवान पुरुष ज्ञानी और सैकड़ो विद्वानों को जीत सकता है।।
षष्ठ समुल्लास
- वही प्रजा का शासनकर्ता सभी प्रजा का रक्षक है, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है,इसलिए बुद्धिमान लोग दण्ड को ही धर्म कहते हैं।।
षष्ठ समुल्लास
- तीनों अर्थात विद्यासभा, धर्मसभा और राज्यसभाओं में मूर्खों को कभी भर्ती न करें। किंतु सदा विद्वान और धार्मिक पुरुषों का स्थापन करें।।
षष्ठ समुल्लास।
- जिसे सभी विद्वान लोग काम और क्रोध का मूल जानते हैं कि जिससे ये सभी दुर्गुण मनुष्य को प्राप्त होते हैं उस लोभ को प्रयत्न से छोड़ें।।
षष्ठ समुल्लास।
- सभी कार्यों का वर्तमान में कर्त्तव्य और भविष्य में जो-जो करना चाहिए और जो-जो काम कर चुके हैं ,उन सभी के यथार्थता से गुण-दोषों को विचारें।।
षष्ठ समुल्लास।
- सभी राजपुरुषों को युद्ध करने की विद्या सिखाएं और आप सीखें तथा अन्य प्रजाजनों को भी सिखाए।जो पूर्व शिक्षित योद्धा होते हैं वे ही अच्छे प्रकार से लड़ सकते हैं व लड़वा सकते हैं।।
षष्ठ समुल्लास
- जिधर भय विदित हो उसी ओर सेना को फैलाएं, सभी सेनापतियों को चारों ओर रखकर (पद्मव्यूह)अर्थात पद्माकार चारों ओर से सेनाओं को रखकर ,मध्य में ‘आप‘ रहें ।।
षष्ठ समुल्लास।
- जो समभूमि में युद्ध करना हो तो रथ घोड़े और पदातियों से और जो समुद्र में युद्ध करना हो तो नौका और थोड़े जल हाथियों पर, वृक्ष और झाड़ियों में बाण तथा स्थल बालू में तलवार और ढाल से युद्ध करें-करावें।।
षष्ठ समुल्लास।
- किसी समय उचित समझे तो शत्रु को चारों ओर से घेरकर रोक रखें और इसके राज्य को पीड़ित कर शत्रु के चारा ,अन्न , जल और ईंधन को नष्ट दूषित कर दें।। षष्ठ समुल्लास
- सर्वशक्तिमान शब्द का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उतपत्ति,पालन ,प्रलय आदि और सभी जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित भी किसी की सहायता नही लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही सभी अपना कार्य पूर्ण कर लेता है।
सप्तम समुल्लास
- प्रकाशस्वरूप परमेश्वर आपकी कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान,ज्ञानी और योगी लोग करते हैं , उसी बुद्धि से युक्त हमें इसी वर्तमान समय में आप बुद्धिमान कीजिए।।
सप्तम समुल्लास।
- जो-जो नियम राजा और प्रजा के सुखकारक और धर्मयुक्त समझें उन-उन नियमों को पूर्ण विद्वानों की राजसभा बांधा करे।
षष्ठ समुल्लास
- जो केवल शरीर का बल ही बढ़ाया जाए,आत्मा का नही । तब भी राज्यपालन की उत्तम व्यवस्था बिना विद्या के कभी नही हो सकती।।
षष्ठ समुल्लास
- सर्वदा शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाते रहना चाहिए। जैसा बल और बुद्धि का नाशक व्यवहार व्यभिचार और अतिविष्यासक्ति है, वैसा और कोई नही है।।
षष्ठ समुल्लास
- जैसे परमेश्वर के गुण हैं,वैसे ही गुण,कर्म,स्वभाव अपने में भी करना।जैसे वह न्यायकारी है ,तो आप भी न्यायकारी होवें।
सप्तम समुल्लास
- जो केवल भांड के समान परमेश्वर के गुण कीर्तन करता जाता है और अपने चरित्र को नही सुधारता ,उसका स्तुति करना व्यर्थ है।।
सप्तम समुल्लास।
- प्रकाशस्वरूप परमेश्वर आपकी कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान,ज्ञानी और योगी लोग करते हैं ।उसी बुद्धि से युक्त हमें इसी वर्तमान समय में आप बुद्धिमान कीजिए।।
सप्तम समुल्लास ।
- आप प्रकाशस्वरूप हैं,कृपा कर मुझमें भी प्रकाश स्थापन कीजिए।आप अनन्त पराक्रम युक्त हैं इसलिए मुझमें भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिए। सप्तम समुल्लास
- आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिए मुझमें भी बल धारण कीजिए।आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं, मुझे भी पूर्ण सामर्थ्य दीजिए। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझे भी वैसा ही कीजिए। आप निंदा,स्तुति और स्वअपराधियों को सहन करने वाले हैं, कृपा से मुझे भी वैसा ही कीजिए।।
सप्तम समुल्लास
- प्रजा की साधारण सम्मति के विरुद्ध राजा व राजपुरुष न हों, राजा की आज्ञा के विरुद्ध राजपुरुष व प्रजा न चले, यह राजा का राजकीय निज काम अर्थात जिसे ‘पॉलिटिकल‘ कहते हैं।।
षष्ठ समुल्लास
- राजा भी एक भाग्यशाली मनुष्य है, जब उसी को दण्ड न दिया जाए और वह दण्ड ग्रहण न करे तो दूसरे मनुष्य भी दण्ड को क्यों मानेंगे।
षष्ठ समुल्लास।
- न्याययुक्त दण्ड का ही नाम राजा और धर्म है जो उसका लोप करता है,उससे नीच पुरुष दूसरा कौन होगा।।
षष्ठ समुल्लास
- एक पुरुष को दण्ड होने से सभी लोग बुरे काम को करने से अलग रहेंगे और बुरे काम को छोड़कर धर्ममार्ग में स्थित रहेंगे।।
षष्ठ समुल्लास।
- जैसे एक को *‘मन‘* और सहस्त्र मनुष्यों को ‘पाव-पाव‘ दण्ड हुआ तो ,’सवा छ: मन‘ मनुष्य जाति पर दण्ड होने से अधिक और यही कड़ा तथा वह ‘एक मन‘ दण्ड न्यून और सुगम होता है।
षष्ठ समुल्लास।
- जो लंबे मार्ग में समुद्र की खाड़ियाँ व नदी तथा बड़े नदों में जितना लम्बा देश हो उतना ‘कर‘(टैक्स) स्थापन करें और महासमुद्र में निश्चित कर स्थापन नही हो सकता।
- जैसा अनुकूल देखें कि जिससे राजा और बड़े-बड़े नौकाओं के समुद्र में चलाने वाले दोनों लाभ युक्त हों वैसी व्यवस्था करें।
षष्ठ समुल्लास।
- किए हुए पापों का क्षमा करना मानो पापों को, करने की आज्ञा देकर बढ़ाना है। पाप क्षमा करने की बात जिस पुस्तक में हो वह न ईश्वर और न किसी विद्वान का बनाया है।
चतुर्थदश समुल्लास
- क्या जितनी लड़ाई होती हैं ,वह ईश्वर की इच्छा से ,क्या वह अधर्म करना चाहे तो कर सकता है? जो ऐसी बात है तो,खुदा ही नही।
चतुर्थदश समुल्लास
- संयुक्त जगत का कार्यकारण, प्रवाह से कार्य और जीव के कर्म, बन्ध भी अनादि नही हो सकते ।
द्वादश समूललस
- जिसका जैसा स्वभाव होता है उसको वैसा ही फल हुआ करता है
द्वादश समुल्लास
- संयोग के बिना कर्म परिणाम को प्राप्त नही होता।जैसे दूध और खटाई के संयोग के बिना दही नही हूँ ।
- स्तुति,प्रार्थना,उपासना श्रेष्ठ लोगों की ही की जाती है। श्रेष्ठ उसे कहते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव और सत्य व्यवहारों में सबसे अधिक हों। उन सभी श्रेष्ठों में भी जो अत्यंत श्रेष्ठ हो उसे परमेश्वर कहते हैं।। जिसके तुल्य न कोई हुआ,न और कोई होगा।।
प्रथम समुल्लास
- जो मनुष्य किसी का मित्र है, वही अन्य का शत्रु और इससे मुख्यार्थ में सखा आदि का ग्रहण नही हो सकता, किंतु परमेश्वर जैसा सभी जगत का निश्चित मित्र, न किसी का शत्रु है। इससे भिन्न कोई भी जीव इस प्रकार का कभी नही हो सकता ।
प्रथम समुल्लास
- जो सत्य न्याय के करने वाले मनुष्यों का मान्य और पाप तथा पुण्य करने वालों को पाप और पुण्य के फलों का यथावत सत्य नियमकर्ता है, इसी से उस परमेश्वर का नाम आर्य्यमा है।
प्रथम समुल्लास
- आप मेरी अवश्य रक्षा करो अर्थात धर्म में सुनिश्चित और अधर्म से सदा घृणा करूं, ऐसी कृपा मुझ पर कीजिए। मैं आपका बड़ा उपकार मानूँगा।।
प्रथम समुल्लास।
- आप स्वयं अपनी करूणा से सभी जीवों के हृदय में प्रकाशित होइए कि जिससे सभी जीव धर्म का आचरण और अधर्म को छोड़कर परमानन्द को प्राप्त हों और दुःखों से पृथक रहें।।
प्रथम समुल्लास।
- जीव जिसका मन से ध्यान करता है उसी को वाणी से बोलता है, जिसको वाणी से बोलता है, उसी को कर्म से करता है, जिसको कर्म से करता है, उसी को प्राप्त होता है।
प्रथम समुल्लास।
- जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते हैं,तब रोते हैं और उसी प्रकार ईश्वर रुलाता है। इसलिए परमेश्वर का नाम रुद्र है।
प्रथम समुल्लास
- जो सभी जगत के पदार्थों को सयुंक्त करता और सभी विद्वानों का पूज्य है, और ब्रह्मा से लेकर सभी ऋषि-मुनियों का पूज्य था ,है और होगा, इससे उस परमात्मा का नाम ‘यज्ञ‘ है, क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक है।
प्रथम समुल्लास
- जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है उसी कुल में आनन्द लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती हैं और जहां विरोध,कलह होता है वहां दुःख ,दरिद्र और निंदा निवास करती है।
चतुर्थ समुल्लास
- जब स्त्री पुरुष विवाह करना चाहें तब विद्या,विनय,शील,रूप,आयु,बल,कुल,शरीर का परिमाण आदि यथायोग्य होना चाहिए। जब तक इनका मेल नही होता तब तक विवाह में कुछ भी सुख नही होता और न बाल्यावस्था में विवाह करने से सुख होता है।
चतुर्थ समुल्लास।
- जो अपने कार्य करने में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नही करता, अपने ही सामर्थ्य से अपने सभी कार्य पूरा करता है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘सर्वशक्तिमान‘ है।।
प्रथम समुल्लास।
- जिसे विविध विज्ञान अर्थात् शब्द अर्थ, सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत होवे, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘सरस्वती‘ है।
प्रथम समुल्लास
- वह सन्तान बड़ा भाग्यवान है,जिसके माता-पिता धार्मिक विद्वान हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुंचता है । उतना किसी से नही।।
द्वितीय समुल्लास।
- जैसे परमेश्वर ने सभी प्राणियों से सुख अर्थ इस सभी जगत के पदार्थ रचे हैं वैसे ही मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिए।। तृतीय समुल्लास ।।
- सत्याचार से सत्यविद्याओं को पढ़ें व पढ़ावें तपस्वी अर्थात् धर्मानुष्ठान करते हुए वेदादि शास्त्रों को पढ़े और पढ़ावे, बाह्य इंद्रियों को बुरे आचरणों से रोक कर पढ़े व पढ़ाते जाएं ।
तृतीय समुल्लास
- वेदादि सत्य शस्त्रों के स्वीकार में सब सत्य हो जाता है। जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे तो मिथ्या भी उसके गले लिपट जाए।
तृतीय समुल्लास।
- कहने, सुनने, सुनाने, पढ़ने, पढ़ाने का फल यही है कि वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण है, इसलिए धर्मचरण में सदा युक्त रहें।।
तृतीय समुल्लास
- जो वेद और वेदानुकूल पुरुषों के किए शास्त्रों का अपमान करता है, उस वेदनिंदक नास्तिक को, जाति, पंक्ति और देश से बाहर कर देना चाहिए।।
तृतीय समुल्लास।
- जिस किसी की कथा, निंदा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरे की हानि आदि कुकर्मों को सदा छोड़ देवें।
तृतीय समुल्लास।।
- जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो, वह ‘सत्य‘ है और उससे विरुद्ध ‘असत्य ‘ है।।
तृतीय समुल्लास।
- जैसे पुरुष जिस -जिस वर्ण के योग्य होता है, वैसे ही स्त्रियों की भी व्यवस्था समझनी चाहिए।।
चतुर्थ समुल्लास।
- धर्माचरण से निष्कृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाए कि जिसके योग्य होवे।।
चतुर्थ समुल्लास
- जिस स्त्री की प्रसन्नता से सब कुल प्रसन्न होता और उसकी अप्रसन्नता में अप्रसन्न अर्थात दुःखदायक हो जाता है।।
चतुर्थ समुल्लास।