महर्षि दयानंद ने अपने विलक्षण व्यक्तित्व एवं कृतित्व से 19वीं सदी के पराधीन और जर्जरित भारत को गहराई तक झकझोरा था। उसका प्रभाव हम 21वीं सदी में भी अनुभव कर रहे हैं और उनसे प्रेरणा पाकर उन सामाजिक कुरीतियों व धार्मिक अंधविश्वासों से लोहा ले रहे हैं जो दीमक बनकर समाज व धर्म को भीतर ही भीतर खोखला कर रहे हैं। सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक जगत की व्याधियों, दुर्बलताओं तथा त्रुटियों का तलस्पर्श अध्ययन ऋषिवर ने किया था, अत: रोग के अनुसार ही उन्होंने उपचार किया। समग्र क्रांति के पुरोधा के रूप में ऋषिवर ने व्यक्ति और समाज के सर्वांगीण विकास तथा कायाकल्प के लिए जो आदर्श जीवन मार्ग दिखाया वह वस्तुत: विश्व इतिहास की अनमोल निधि के रूप में शताब्दियों तक देखा जाएगा।
महर्षि दयानन्द का चिंतन मूलत: वेद पर आधारित था जो अपने उद्भव काल से ही स्वप्रमाणित, चिरंतन और शाश्वत हैं। विज्ञान और तकनीक चाहे जितनी उन्नति कर ले मनुष्य की धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की भाव-भूमि वही रहेगी जो अनादि काल से चली आ रही है और अनंत काल तक चलती रहेगी। जीवन के इस क्रम, सत्य, तथ्य व लक्ष्य को न विज्ञान बदल सकता है और न ही तकनीक। अतः महर्षि दयानन्द का दर्शन हर युग के मानव को दिशा-बोध प्रदान करता रहेगा और वे हर युग के लिए प्रासंगिक बने रहेंगे।
आज सर्वत्र भ्रष्टाचार, व्यभिचार, नशाखोरी, आतंकवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, प्रदूषण, हिंसा, अपराधवृत्ति, शोषण, अन्याय, अज्ञान और अभाव का बोलबाला है। हर समाज व राष्ट्र इन सभी दोषों से आहत एवं व्याकुल है। इनके निराकरण के लिए महर्षि दयानन्द ने वेद, योग, यज्ञ, आयुर्वेद, इतिहास, संस्कृति, संस्कार आदि के प्रति आस्था-भाव जगाकर उन ऋषिकृत परम्पराओं को पुनजीर्वित करने का प्रयास किया था। जिन परम्पराओं ने अतीत में भारत को विश्वगुरु के पद पर स्थापित एवं प्रतिष्ठित कराया था। वस्तुत: उनका आंदोलन भारतीय पुनर्जागरण का आंदोलन न होकर समस्त मानव जाति को संस्कारित एवं प्रेरित करने का आंदोलन था।
आधुनिक युग तुलनात्मक अध्ययन का युग है। तर्क और विज्ञान की कसौटियों में लोगों का विश्वास पहले से ही अधिक बढ़ा है, अत: महर्षि दयानन्द के जीवन-दर्शन के फलने-फूलने के लिए यह सर्वोत्तम समय है। बहुत कम लोग जानते हैं कि ऋषि दयानंद ने दिल्ली दरबार के अवसर पर सभी सम्प्रदायों के आचार्यों को आमंत्रित करके एक ऐसी मानव आचार संहिता तैयार करने का आह्वान किया था जो सर्वानुमोदित हो। आधुनिक विश्व आज इसी ओर बढ़ रहा है। महर्षि दयानंद ने जो प्रयोग 150 वर्ष पूर्व किये थे। धीरे-धीरे वे प्रयोग समय की कसौटी पर आज खरे उतर रहे हैं और विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त कर रहे हैं।