1857 के बाद हताश भारत के लिए आशा के सूर्य – महर्षि दयानंद सरस्वती जी
” हम कमजोर हैं ,अलग-अलग हैं, निहत्थे हैं । इसके विरुद्ध वे शक्तिशाली हैं, संगठित हैं। हम उनका कुछ नहीं कर सकते, कुछ नहीं बिगाड़ सकते । 1857 ईस्वी में प्रयत्न करके हमने देख तो लिया । क्या हुआ, सिवाय इसके कि हम और पिटे और पिसे और अपमानित हुए !!
— वे अब शासक हैं, हम सब शासित हैं । उन्हें अब शासक रहना है, हमें अब शासित रहना है। गुलामी गुलामी और गुलामी, बस यही हमारा भाग्य है। यही हमारा भविष्य है।”
सन 1857 की क्रांति की असफलता के पश्चात भारतीय जनमानस की मानसिक अवस्था का विश्लेषण करते हुए ये शब्द, शहीद भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र संधु ने अपनी पुस्तक ” युगदृष्टा भगत सिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे ” में लिखे हैं। वे आगे लिखती हैं-
— देश की परिस्थितियों और अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों से जब सारा देश हीनता के इस अवसाद में डूबा हुआ था तो देश के पुनरुत्थान की सब आशाएं समाप्त हो गई थीं। कोई देश गिरकर उठता है स्वदेशाभिमान और जातीय गर्व के प्रकाश में पनपे आत्मगौरव से। पर हीनता की उस घनी आंधी में स्वदेश अभिमान और जातीय गौरव के दीपक कहां जल सकते थे?–
ऋषि दयानंद के आत्मतेज की बलिहारी कि उन्होंने नई पृष्ठभूमि की खोज की और अतीत गौरव की उपजाऊ भूमि में स्वाभिमान और स्वदेशाभिमान के वृक्ष रोपे। शीघ्र ही उन पर जागरण और उद्बोधन के पुष्प महके और देश विचार क्रांति से उद्बुद्ध हो उठा । —
भारत की महानता सचमुच अजेय है। उसने अंधकार के युग में एक अद्भुत ओजस्वी महापुरुष को जन्म दिया- वे थे ऋषि दयानंद। उन्होंने निराशा की उस अंधियारी रात में आशा का उद्बोधन भी दिया । ऋषि दयानंद ने देश को पुकारा- अतीत के गौरव के नाम पर।”
वीरेन्द्र संधु के अलावा लगभग सभी भारतीय मनीषियों ने सन 1857 के पश्चात की विषम परिस्थितियों में महर्षि दयानंद सरस्वती जी के योगदान को स्वीकार किया है।
लोकमान्य तिलक जी कहते हैं कि ऋषि दयानंद वह जाजवल्यमान नक्षत्र थे जो भारतीय आकाश पर अपनी अलौकिक आभा से चमके और गहरी निद्रा में सोए हुए भारत को जागृत किया।
पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने कहा है कि महर्षि दयानंद ने पद दलित भारत का पुनरुत्थान किया तथा राष्ट्र को नवजीवन का संदेश दिया।
इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार लिखते हैं कि जब भारत के उत्थान का इतिहास लिखा है लिखा जाएगा तो इस नंगे फकीर दयानंद सरस्वती को उच्च आसन पर बिठाया जाएगा।
मॉडर्न रिव्यू के संपादक श्री रामानंद चटर्जी लिखा है स्वामी दयानंद सरस्वती राष्ट्रीय सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से भारत का एकीकरण चाहते थे । भारत वासियों को राष्ट्रीयता के सूत्र में ग्रंथ करने के लिए उन्होंने देश को विदेशी दासता से मुक्त कराना आवश्यक समझा था।
खदीजा बेगम एम ए लिखती हैं नेपोलियन और सिकंदर जैसे अनेक सम्राट एवं विजेता संसार में हो चुके हैं परंतु स्वामी दयानंद उन सब से बढ़कर थे।
स्वामी श्रद्धानंद जी ने आत्मकथा *कल्याण मार्ग का पथिक* की प्रस्तावना में लिखा है – ” अभी 50 वर्ष भी पूरे नहीं हुए कि भारतवर्ष के नवयुवक सिवाय खाने-पीने, भोगने और उसके लिए धन संचय करने के अलावा अपना और कुछ कर्तव्य नहीं समझते थे। गुलामी में वे जन्म लेते थे और उस दासता की अवस्था को अनिवार्य समझकर गंदगी के कीड़ों की तरह उसी में मस्त रहते थे। उन्हें मालूम न था कि उनके पुरुषा भी किसी समय में सभ्यता का स्रोत थे। उन्हें यही बताया गया था कि भारतीय अर्द्धसभ्य हैं। उनकी कोई संस्कृति थी ही नहीं और यदि वह गिरी हुई अवस्था से उठना चाहते हैं तो योरोपियन सभ्यता की शरण में जाना चाहिए। —
आचार्य ऋषि दयानंद ने आर्यावर्त की प्राचीन संस्कृति का सजीव चित्र खींचकर न केवल आर्य संतान के अंदर ही आत्मसम्मान का भाव उत्पन्न किया प्रत्युत योरोपियन विद्वानों को भी उनकी कल्पनाओं की असारता दिखला कर चक्कर में डाल दिया । हिंदू युवक अपने प्रत्येक आचार व्यवहार को दूषित और योरोपियनों के गिरे से गिरे अत्याचार और दुराचार को भी आदर्श समझा करते थे। मैंने भी उसी विद्यालय में शिक्षा पाई थी जिसने हिंदू युवकों को अपनी प्राचीन संस्कृति का शत्रु बना दिया था।–
किस प्रकार क्रमशः धार्मिक दासता से उत्तरोत्तर हिंदू समाज को मुक्ति मिलती गई और अपनी राजनीतिक दासता का भी परिज्ञान हुआ, इसके समझने के लिए युगविधाता आचार्य दयानंद के जीवन चरित्र का पाठ गहरी दृष्टि से करने की आवश्यकता है। ” (संदर्भ: कल्याण मार्ग का पथिक, प्रस्तावना, 26.8 .1924 ईस्वी, लेखक श्रद्धानंद संन्यासी)
फ्रेंच लेखक रोमा रोला ने 1944 में अपनी पुस्तक रामकृष्ण का जीवन में लिखा है स्वामी दयानंद राष्ट्रीय चेतना के पुनर्जागरण और पुनर्जन्म के वर्तमान भारतीय आंदोलन के सबसे अधिक ओजस्वी व्यक्ति थे भारत के पुनर्निर्माण और राष्ट्र निर्माण के सबसे अधिक उत्साही पैगंबरों में से एक थे।
अतः लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल जी ने उचित ही कहा है कि स्वामी दयानंद की सबसे बड़ी देन यह थी कि उन्होंने देश को दीनता व हीनता की दलदल में गिरने से बचाया। वास्तव में उन्होंने भारतीय स्वाधीनता की नींव रखी।
वस्तुत: महर्षि दयानंद सरस्वती जी 1857 ईस्वी के बाद हताश निराश व उदास भारत के लिए आशा का सूर्य बनकर चमके। भारतीयों को भारत की स्वतन्त्रता हेतु पुनः संघर्ष के लिए तैयार करना उनका महान कार्य था।
हास्य कवि काका हाथरसी ने कहा है –
नतमस्तक सब आर्यजन करते तुम्हें प्रणाम।
अमर अजर है विश्व में दयानंद का नाम।
दयानंद का नाम, महर्षि पदवी पाई।
भूले भटके जनमानस को राह दिखाई।
गोरे भारत नहीं छोड़ते राजी राजी।
अगर योग ना देते इसमें आर्य समाजी।।
-धर्मेन्द्र जिज्ञासु | गांव सुनपेड, तहसील बल्लभगढ़ हरियाणा।