वेद और महर्षि दयानन्द

(जानने योग्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का संक्षिप्त परिचय महर्षि दयानंद अनुसार )

[जब हम ‘वेद’ को भूलकर अपने को भुला चुके थे तब ऋषिवर दयानन्द ने लुप्त ज्ञान भंडार ‘वेद’ पुनः संसार को दिया, इसके लिए मानव-जाति सदा ऋषि की ऋणी रहेगी। इस लेख के लेखक पं० मदनमोहन विद्यासागर जी ने ऋषि दयानन्द जी के मत से वेद की महत्ता का वर्णन किया है, पाठक इस ऐतिहासिक लेख का स्वाध्याय करके लाभ उठायें। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार]

आर्ष वाङ्मय की ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के बनते समय, ‘कविर्मनीषी’, सृष्टिकर्त्ता परमात्मा ने जनमात्र के लिए ‘कल्याणी वेदवाणी’ का विधान किया। उन्हें अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, इन चार ऋषियों के हृदय में स्थापित किया; हृद्यज्ञैरादधे (ऋग्)। इन चार ऋषियों से वेदप्रचार प्रारम्भ हुआ।
इनसे वेद चतुष्टय के ज्ञान को प्राप्त करके ‘ब्रह्मा’ नामक सर्वप्रथम वैदिक विद्वान् ने (ब्रह्मा देवानां प्रथम: सम्बभूव) वेदों के नियमित पठन-पाठन की परिपाटी चलाई।

इसके बाद मनु महाराज ने वेदों के सिद्धान्तों के अनुसार समाज-शास्त्र का विधान किया और ‘मानव धर्मशास्त्र’- मानव धर्म संहिता या ‘मनुस्मृति’ की रचना की। इसमें विशेष बात यह थी कि वेदों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था सुचारू रूप से प्रचालित की।

कालचक्र घूमा और ज्यों-ज्यों नये-नये ग्रन्थ, ब्राह्मण, उपनिषद् आदि बनने लगे, त्यों-त्यों ‘वेद’ का अध्ययन कम होने लगा। पुराणकारों की दृष्टि में ‘वय:’ और बुद्धि में क्षीणता होने लगी।

तब महर्षि वेदव्यास ने उस ‘एक ही वेद ज्ञान को, जो विषय भेद से चार संहिताओं में विभक्त था तथा रचना भेद से तीन प्रकार का था, अध्ययन-अध्यापन की नई परिपाटी चलाई। वह यह कि एक-एक वेद का विशेष अध्ययन प्रारम्भ कराया। परिणामतः वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी इस प्रकार के अध्येता प्रारम्भ हो गये। इस प्रकार वेदों की रक्षा हुई।’

वेदव्यास के बाद श्री शंकर श्री कुमारिल भट्ट के समय तक कोई विशेष प्रयत्न वेदों के पठन-पाठन को सुसंगठित करने का नहीं हुआ। दुर्भाग्य से ज्ञानमार्गी श्री शंकर ने भी मूल वेदों की उपेक्षा की और अपने सारे कार्य का आधार उपनिषदें और पुराण रखे।

ऐसे ही कर्मकाण्डी यज्ञिकों ने अपने कार्यों का आधार ब्राह्मण ग्रन्थ रखे थे। परिणामतः वेदों के प्रति उदासीनता रही।

उसके बाद श्री विद्यारण्य मुनि और सायणाचार्य ने वेदभाष्य करके वेदों की सुरक्षा का एक प्रयत्न किया। किया तो वेदों का भाष्य, (गीता + उपनिषद् + ब्रह्मसूत्र का नहीं) पर अद्वैत मतानुसार तथा यज्ञपद्धति को स्वीकारते हुए। दार्शनिक दृष्टि से श्री सायण शंकर के अनुयायी दिखते हैं और वेदार्थ करने में यज्ञिक सम्प्रदायानुगामी।

इसके बाद ऋषि दयानन्द (19वीं शती) के प्रादुर्भाव तक कोई उल्लेखनीय प्रयत्न वेदों के सम्बन्ध में नहीं हुआ। श्री राजा राममोहनराय ने वेदों की सर्वथा उपेक्षा की। ब्रिटिश राज होने पर यूरोप में जो संस्कृत और वेदों के सम्बन्ध में वृद्धि और अध्ययन प्रारम्भ हुए, उनका मुख्य उद्देश्य वेदों के सिद्धान्तों को इस प्रकार से विकृत और दूषित करके जनता के सामने रखना था कि इनके सम्बन्ध में घृणा का वातावरण पैदा हो और ईसाइयत की ओर झुकाव हो। इनका मुखिया था, मैक्समूलर।

अकस्मात् एक तेजस्वी महान् नक्षत्र विद्याकाश में चमका वह था ऋषि दयानन्द। उसने वेदों का उद्धार किया। विश्व के सामने उसके सच्चे स्वरूप को रखा, जो शुद्ध वैज्ञानिक था, अन्तर्मानववाद का पोषक था।

हमें ऋषि के वेद विषयक दृष्टिकोण को समझना चाहिये। आपने अपने ग्रन्थों में वेद के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। ऋषि के समय भारत के विद्वानों में कुछ भ्रम थे। जैसे कि ब्राह्मण (उपनिषद् आरण्यक) भी वेद ही हैं, वेदों के पढ़ने का अधिकार स्त्री, शूद्र को नहीं है, वेद चतुष्टय कर्मकाण्ड के ग्रन्थ हैं आदि-आदि। पाश्चात्य विद्वानों ने कुछ भ्रम फैलाये थे। जैसे कि वेद ईसा से कुछ सौ वर्ष पहले बने हैं, पहले तीन ‘वेद’ थे, अथर्ववेद पीछे से जोड़ा गया, अथर्ववेद में जादू-टोना है आदि-आदि। ऋषि दयानन्द ने इन सबका खण्डन किया। साथ ही श्री सायण, उव्वट, महीधर आदि के विकृत भाष्यों का सप्रमाण खण्डन कर वेद का शुद्ध स्वरूप विश्व के सामने रखा। नीचे उनके ग्रन्थों से वेद-विषय में ऋषि के विचारों को सक्रम उपस्थित किया जाता है।

ज्ञान का आदिस्रोत, स्वतःप्रमाण वेद

“ऋग्, यजु:, साम, अथर्व नाम से प्रसिद्ध जो ईश्वरोक्त सत्य विद्याधर्मयुक्त वेदचतुष्टय (संहिता मात्र मन्त्रभाग) है, वह निर्भ्रान्त नित्य स्वतः प्रमाण (ऋ. भू. 77) हैं।” इसके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। इससे मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता है, ये सत्यार्थप्रकाशक हैं (ऋ. भू. 698)। सूर्य व प्रदीप के स्वरूपतः स्वतः प्रकाशक व अन्य पृथिवी आदि पदार्थों के प्रकाशक होने की तरह ये स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं (स्व. म. 2, आ. उ. र. 65, स. प्र. 7 स. 266, ऋ. भू. 689, ऋ. भू. 77, स. प्र. 84-85, ऋ. द. पत्र. विज्ञा. 211-212,218)। क्योंकि-

(1) उनमें प्रतिपादित सब सिद्धान्त सार्वभौम, सार्वजनिक और सर्वकालिक हैं। वे किसी देश काल विशेष में मानव जाति के किसी विशिष्ट समुदाय के निमित्त प्रकाशित नहीं किए गए (स. प्र. 266, 7 समु.)।

(2) मनुष्य के सर्वतोमुख विकास के साधनों के द्योतक हैं।

(3) इनमें वर्णित कोई भी सिद्धान्त, बुद्धि विज्ञान व अनुभव के विरुद्ध नहीं। ये पक्षपातशून्य भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं (भ्रान्तिनि. शता. सं. 877)। वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं (स. प्र. अनुभू. 363)।

(4) इनमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्त और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कोई कथन नहीं (स. प्र., ऋ. भू.)।

(5) इनमें ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के अनुकूल वर्णन है (स. प्र. 260, 7 समु.)।

(6) सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त ब्रह्मा, मनु, व्यास, जैमिनी, दयानन्द आदि भी आप्त होते आये हैं, वे सब वेदों को नित्य सर्वविद्यामय अर्थात् सब विद्याओं के बीज और प्रामाणिक मानते चले आये हैं।

भारत भूमि में रचित वेद भिन्न साहित्य आर्ष (ऋषि प्रणीत, आप्तोपदिष्ट) व अनार्ष (स्वार्थी धूर्त्तजन विरचित) दो प्रकार का है। (ब्रह्मा-मनु, जैमिनी से लेकर दयानन्द ऋषि पर्यन्त) अप्तोपदिष्ट (वेदों के व्याख्यान रूप) आर्षग्रन्थों का आर्ष परम्परानुसार वेदानुकूलतया ही प्रमाण है। ये सब ग्रन्थ पौरुषेय होने से परतः प्रमाण हैं। इनमें यदि कहीं वेद-विरुद्ध वचन हैं, तो वे अप्रमाण हैं (स्व. म. 2, स. प्र. 84, 3 समु., ऋ. द. प. व्य. वि. 1 प. सं. 24, 42, भ्रमो. शताब्दी सं. 858, ऋ. भू. 59)।

मान्य ग्रन्थ- सबसे अधिक प्रामाणिक और मानने योग्य धर्मशास्त्र तो चार वेद हैं, उनके विरुद्ध वचन चाहे किसी भी पुस्तक में पाये जायें वे मनाने योग्य नहीं हो सकते। वेद-बाह्य कुत्सित पुरुषों के ग्रन्थ त्याज्य हैं। वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है अतः ब्रह्मा, मनु, जैमिनी, याज्ञवल्क्य से लेकर दयानन्द महर्षि पर्यन्त का मत है कि वेद विरुद्ध को न मानना और वेदानुकूल ही का आचरण करना धर्म है (स. प्र. 419, 11 समु., भ्रमोच्छे. 558-560, ऋ. भू. 73, ऋ. द. प. व्य. वि. 1 प. सं. 16-17)।

प्रक्षेप

समय-समय पर पुराने ऋषियों के नाम से स्वार्थान्ध लोगों ने आर्ष ग्रन्थों में बहुत प्रक्षेप के दिये हैं, बहुत भाग निकाल भी दिये हैं और मिथ्यावादों से पूर्ण नये ग्रन्थ रच डाले हैं। इन प्रक्षिप्त भागों व ऐसे कपोलकल्पित अनर्थगाथा युक्त नवीन ग्रन्थों का त्यागना ही श्रेष्ठ है (ऋ. भू. 698, स. प्र. 843, 7 समु., स. प्र. 351, 11 समु.)। ब्रह्मवैवर्त्तादि अष्टादश पुराण विषमिश्रित अन्नवत् त्याज्य हैं।

एतद्भिन्न (आर्ष व आप्तोपदिष्ट) विश्वसाहित्य को सृष्टि के आरम्भ में पढ़ने और पढ़ाने की कुछ भी व्यवस्था नहीं थी और न कोई विद्या का ग्रन्थ ही था, इसलिये ईश्वर का वेदों का ज्ञान देना आवश्यक था।
यह ईश्वर की विद्या है। विद्या का गुण स्वार्थ और परार्थ दोनों सिद्ध करता है। परमेश्वर हमारे माता-पिता के समान हैं, हम उसकी प्रजा हैं। वह हम पर नित्य कृपा दृष्टि रखता है, सदैव करुणा धारण करता है कि सब प्रकार से हम सुख पावें। इससे ही उसने वेदों का उपदेश हमें दिया है और अपनी विद्या के परोपकार गुण की सफलता सिद्ध की है। जो परमेश्वर अपनी वेद विद्या का उपदेश मनुष्यों के लिये न करता तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि किसी को यथावत् प्राप्त न होती, उसके बिना परम आनन्द भी किसी को न होता। जैसे उस परम कृपालु ईश्वर ने प्रजा के सुख के लिये कन्द-मूल फल और घास आदि छोटे-छोटे भी पदार्थ रचे हैं, वैसे ही सब सुखों का प्रकाश करने वाली, सब सत्य विद्याओं से युक्त वेद विद्या का उपदेश भी प्रजा के सुख के लिये वह क्यों न करता?

परतःप्रमाण
(वैदिक साहित्य अथवा आर्ष-वाङ्मय)

चारों वेदों के 4 ब्राह्मण, 6 अङ्ग, 6 उपांङ्ग, चार उपवेद और ग्यारह सौ सत्ताइस (1127) वेदों की शाखायें जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, वे परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इनमें वेद विरुद्ध वचन हैं, वे अप्रमाण हैं, (स्व. म. 2)। (ऐसे ग्रन्थों का परिगणन स. प्र. 3 समु. तथा ऋ. भू. 389 में द्रष्टव्य है) जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकूल आप्त ग्रन्थों का अपमान करे, उसको श्रेष्ठ लोग जातिबाह्य कर दें। क्योंकि जो वेद की निन्दा करता है, वही नास्तिक कहाता है (स. प्र. 10 स., 344) तथा द्र. उप. म.10-156 पृ. से आगे।

पुराण- जो ब्रह्मादि के बनाये प्राचीन ऐतरेय, शतपथ, गोपथ और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ऋषि-मुनिकृत सत्यार्थ पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी कहते हैं, अन्य भागवतादि को नहीं (स्व. म. 23, आ. उ. र. 96, ऋ. भू. 689, स. प्र. 3 समु. 86) ये प्राचीन सत्य ग्रन्थ वेदों के अर्थ और इतिहासादि से युक्त बनाये गये हैं, परतः प्रमाण के योग्य हैं (ऋ. भू. 690)।

उपवेद- जो आयुर्वेद= वैद्यकशास्त्र, धनुर्वेद= शस्त्रास्त्र सम्बन्धी राजविद्या-राजधर्म, गान्धर्ववेद= गानविद्या और अर्थवेद= शिल्पशास्त्र हैं, इन चारों को उपवेद कहते हैं और ये भी वेदानुकूल होने से ही प्रमाण हैं (आ. उ. र. 96, ऋ. भू. 690, स. प्र. 3 समु.)।

वेदाङ्ग- जो शिक्षा= पाणिन्यादिमुनिकृत,
कल्प= मन्वादिकृत, मानव= कल्पसूत्रादि तथा आश्वलायनादिकृत श्रौत सूत्रादि,
व्याकरण= पाणिनि मुनिकृत अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और पतञ्जलि मुनिकृत महाभाष्य, ऋषि-दयानन्द कृत वेदांगप्रकाश, निरुक्त= यास्कमुनि कृत निरुक्त और निघण्टु, छन्द= पिङ्गलाचार्य कृत सूत्र भाष्य,
ज्योतिष= वसिष्ठादि ऋषिकृत रेखागणित और बीजगणित युक्त ज्योतिष।

ये छ: आर्ष सनातन शास्त्र हैं, इनको वेदांग कहते हैं। ये भी परत: प्रमाण के योग्य हैं (आ. उ. र. 98, ऋ. भू. 692)।

उपांग= जिनका नाम षट्शास्त्र भी है।
पहला- मीमांसा शास्त्र= व्यास मुनि आदिकृत भाष्यसहित, जैमिनी मुनिकृत पूर्व मीमांसा शास्त्र, जिसमें कर्मकाण्ड का विधान और धर्म तथा धर्मी दो पदार्थों से सब पदार्थों की व्याख्या की है।
दूसरा- वैशेषिक शास्त्र= यह विशेषतया धर्म-धर्मी का विधायक शास्त्र है, जो कि कणादमुनिकृत सूत्र और प्रशस्तपाद भाष्यादि व्याख्या सहित है। तीसरा- न्याय शास्त्र= यह पदार्थविद्या का विधायक शास्त्र है, जो कि गौतम मुनि कृत सूत्र और वात्स्यायनमुनि कृत भाष्य सहित है।
चौथा- योगशास्त्र= जिसके द्वारा उन पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होता है, जिनका मीमांसा, वैशेषिक तथा न्यायशास्त्र से श्रवण तथा मनन के द्वारा आनुमानिक निश्चय होता है, जो पतंजलि मुनिकृत सूत्र और व्यास मुनिकृत भाष्य सहित है।
पाँचवा- सांख्यशास्त्र= जिसके द्वारा प्रकृति आदि तत्त्वों की गणना होती है और उनका आत्मा से विवेक-ज्ञान होता है। जो कपिलमुनिकृत सूत्र और भागुरिमुनिकृत भाष्यसहित है।
छठा- वैदिकशास्त्र= जो कि ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दश उपनिषद् तथा व्यासमुनिकृत सूत्र जो कि बौधायनवृत्त्यादि व्याख्यासहित हैं। ये छ: वेदों के उपांग कहाते हैं और ये भी परतः प्रमाण के योग्य हैं (आ. उ. र. 99, ऋ. भू. 692-693, स. प्र. 3 समु.)।

स्मृति= वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र (स. प्र. 62, 3 समु. – 212, षष्ठ समु., स. प्र. 344, 10 समु. + स. प्र. 4 स. 152, 3 स – 85) द्र. उप. मं. 8-129-130। यह मनुस्मृति सृष्टि के आदि में बनी है (स. प्र. 11 समु.)।

अन्य आर्ष ग्रन्थ- वेदोद्धारक सत्यधर्म प्रचारक योगीश्वर परमहंस महर्षि दयानन्द विरचित समस्त ग्रन्थ भी सत्यार्थ के प्रकाशक होने से और वेदानुकूल होने से परत: प्रमाण के योग्य हैं। इनमें से सत्यार्थप्रकाश सर्वाधिक मान्य पुस्तक है, विश्वविद्याओं का भण्डार है, सन्मार्ग प्रदर्शक है।

वेदों के चार काण्ड

वेदों का मुख्य तात्पर्य परमेश्वर ही के प्राप्त कराने और प्रतिपादित करने में है (स. प्र. 83, ऋ. भू. 210)। इस लोक और परलोक के व्यवहारों के फलों की सिद्धि और यथावत् उपकार करने के लिए सब मनुष्यों को वेदों के विज्ञान, कर्म, उपासना और ज्ञान इन चार विषयों के अनुष्ठान में पुरुषार्थ करना (ऋ. भू. 261) चाहिये। क्योंकि इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है और यही मनुष्य-देह धारण करने का फल है (ऋ. भू. 98-99, 143)। उ. उप. मं. 4- पृ. 39, यहां तीन काण्ड लिखे हैं।

(1) विज्ञान काण्ड- उसको कहते हैं कि सब पदार्थों का यथार्थ जानना अर्थात् परमेश्वर से लेके तृणपर्यन्त पदार्थों का साक्षात् बोध होना और उनसे यथावत् उपयोग लेना व करना। यह विषय इन चारों में भी प्रधान है, क्योंकि इसी में वेदों का मुख्य तात्पर्य है। परिणामतः विज्ञान दो प्रकार का है-
(क) परमेश्वर का यथावत् ज्ञान और उसकी आज्ञा का बराबर पालन करना।
(ख) उसके रचे हुए सब पदार्थों (=प्राकृतिक वस्तुओं) के गुणों को यथावत् विचार करके उनसे कार्य सिद्ध करना अर्थात् कौन-कौन से पदार्थ किस-किस प्रयोजन के लिए रचे हैं, इसका जानना।

(2) कर्मकाण्ड- यह सब क्रिया प्रधान ही होता है। इसके बिना विद्याभ्यास और ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकते। क्योंकि बाह्य व्यवहार तथा मानस व्यवहार का सम्बन्ध बाहर और भीतर दोनों के साथ होता है (ऋ. भू. 10०-102, 141)। वह अनेक प्रकार का है, किन्तु उसके दो मुख्य भेद हैं-

एक- परमार्थ भाग। इससे परमार्थ की सिद्धि करनी होती है। इसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, उसकी आज्ञा पालन करना, न्यायाचरण अर्थात् धर्म का ज्ञान और अनुष्ठान यथावत् करना। मनुष्य इसके द्वारा मोक्ष-प्राप्ति में प्रवृत्त होता है।
जब मोक्ष अर्थात् केवल परमेश्वर की ही प्राप्ति के लिए धर्म से युक्त सब कर्मों का यथावत् पालन किया जाय तो यही निष्काम मार्ग है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की कामना नहीं की जाती। इसका फल सुखरूप और अक्षय होता है।
दूसरा मार्ग- लोकव्यवहार सिद्धि। इससे धर्म के द्वारा अर्थ, काम और उनकी सिद्धि करने वाले साधनों की प्राप्ति होती है। यह सकाम मार्ग है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की इच्छा से, धर्मानुसार अर्थ और काम का सम्पादन किया जाता है। इसलिए इसका फल नाशवान् होता है, जन्म-मरण का चक्र छूटता नहीं।
अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध (राष्ट्रसेवा, राष्ट्रपालन, देश-रक्षण, राष्ट्र-समृद्धि, राष्ट्रविस्तार) पर्यन्त यज्ञ आदि इसके अन्तर्गत हैं।
विहित और निषिद्ध रूप में कर्म दो प्रकार के होते हैं। वेद में कर्त्तव्यरूप से प्रतिपादित ब्रह्मचर्य सत्यभाषणादि विहित हैं, वेद में अकर्त्तव्यरूप से निर्दिष्ट व्यभिचार, हिंसा, मिथ्याभाषणादि निषिद्ध हैं। विहित का अनुष्ठान करना धर्म, उसका न करना अधर्म और निषिद्ध का करना अधर्म और न करना धर्म हैं (स. प्र. 417, 11 समु.)

(3) उपासना काण्ड- जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, उनको वैसा जान अपने को वैसा करना, योगाभ्यास द्वारा इनका साक्षात् करना, जिससे परमेश्वर के ही आनन्दस्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं।
यह कोई यान्त्रिक व ज्ञानरहित क्रिया नहीं, जैसे बिना समझे किसी शब्द का या वाक्य का बार-बार जप करना।

(4) ज्ञान काण्ड- वस्तुओं के साधारण परिचय को ज्ञान कहते हैं (स. प्र. 44, 2 समु.)
(क) उपासना- काण्ड, ज्ञान-काण्ड तथा कर्मकाण्ड के निष्काम भाग में भी परमेश्वर ही इष्टदेव, स्तुति, प्रार्थना, पूजा और उपासना करने के योग्य है। कर्मकाण्ड के निष्काम भाग में तो सीधे परमात्मा की प्राप्ति की ही प्रार्थना की जाती है परन्तु उसके सकाम भाग में अभीष्ट विषय के भोग की प्राप्ति के लिये परमात्मा की प्रार्थना की जाती है।

अपरा विद्या, परा विद्या

वेदों में दो विद्या हैं अपरा और परा। जिससे पृथिवी और तृण से ले के प्रकृति, जीव और ब्रह्मपर्यन्त सब पदार्थों के गुणों के ज्ञान से ठीक-ठीक कार्य सिद्ध करना होता है वह ‘अपरा’ और जिससे सर्वशक्तिमान् ब्रह्म की प्राप्ति होती है वह ‘परा’ विद्या है। इनमें ‘परा’ विद्या ‘अपरा’ विद्या से अत्यन्त उत्तम है, क्योंकि ‘अपरा’ विद्या का ही उत्तम फल ‘परा’ विद्या है।

धर्मशास्त्र

वस्तुतः ये ईश्वरोक्त सत्यविद्यामय चारों वेद ही सब मनुष्यों के पवित्र आदि धर्मग्रन्थ और सच्चे विद्या पुस्तक (आ. वि. 40, ऋ. भू. 797) (और सर्वोच्च धर्मशास्त्र ग्र. क.) हैं। इनकी शिक्षाओं पर आचरण करना मनुष्य मात्र का परम कर्त्तव्य है। ‘ईश्वर की आज्ञा है कि विद्वान् लोग देश-देश और घर-घर जाके सब मनुष्यों को इनकी सत्यविद्या का उपदेश करें (ऋ. भू. 661)।’ क्योंकि जो ग्रन्थ सत्यविद्याओं के प्रतिपादक हों, जिनसे मनुष्यों को सत्य-शिक्षा और सत्यासत्य का ज्ञान होता हो, ऐसे शास्त्रों के स्वाध्याय एवं तदनुकूल आचरण से शरीर, मन, आत्मा शुद्ध होते हैं (आ. उ. र. 94)।

सत्यासत्य के निर्णायक साधन

धर्माधर्म के ज्ञान अर्थात् सत्यासत्य के निर्णय के लिए चार साधन हैं।

1. सबसे मुख्य वेद (अर्थात् श्रुति), ये ईश्वरकृत होने से स्वतः प्रमाण हैं।

2. दूसरा स्मृति अर्थात् वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि (स. प्र. 10, स. 344) धर्मशास्त्र, इनका प्रमाण वेदाधीन है, वेद के साथ विरोध होने पर ये अप्रमाण ठहरते हैं।

3. तीसरा सदाचार अर्थात् सज्जन धर्मात्मा आप्तजनों का सृष्टि के आदि से चला आ रहा वेदोक्त आचरण (=सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वर प्रतिपादित कर्म (स. प्र. 3 स. , 62) धर्मानुरागी पूर्वजों का धर्म शिक्षानूकूल बर्त्ताव। उप. मं. 9/143 तथा 12/180)। जो सत्पुरुष हो चुके हैं, उन्हीं का अनुकरण मनुष्य लोग करें (य. आ. भा. 12/11)।

4. चौथा अपने आत्मा का साक्षित्व (=प्रियता) है, अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है, जैसा कि सत्य भाषण (स. प्र. 62-64, 3 स., 11 स., 503, ऋ. भू. 214)।

ऊपर मुख्य-मुख्य विषयों पर ऋषि दयानन्द का अभिप्राय लिखा है। वेदार्थ कितने प्रकार है, वेदार्थ के मुख्य साधन, ऋषि, देवता, छन्द, स्वर आदि के सम्बन्ध में ऋषि का अपना स्पष्ट मत है। -आर्योदय, वेदांक, मार्च 1966 से साभार

- पं० मदनमोहन विद्यासागर [स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का अप्रैल द्वितीय 2019 का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]