महाप्रतिभा मंडित महापुरुष दयानंद
उन्नीसवीं शताब्दी के परार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन चरित्र महापुरुष अलग अलग उत्तरदायित्व लेकर इस समय इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती भी उन्हीं में एक महाप्रतिभा मंडित महापुरुष हैं। शासन बदला ,अंग्रेज आये, संसार की सभ्यता एक नए प्रभाव से बही, बड़े बड़े पंडित, विश्व साहित्य, विश्व ज्ञान विश्व मैत्री की आवाज उठाने लगे। पर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के मायाजाल में भूला रहा। इस समय ज्ञान स्पर्धा के लिए समय को फिर आवश्यकता हुई। और महर्षि दयानंद का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञान राशि के आधार स्तम्भ स्वरूप अकेले बड़े-2 पंडितों का सामना करते है। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगांतर साहित्य में इसी साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम है, यही जनसंख्या में बढ़ी हुई हैं।
चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज में प्राप्त होते हैं। उसका लेश-मात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा असंभूत नहीं, पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि जो लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकता। जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है। महर्षि दयानंद सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खंडन है। महर्षि दयानंद जी से बढ़कर भी मनुष्य होता है। इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान कि मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। यही आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है।
हमें अपने सुधार के लिए क्या क्या करना चाहिए। हमारे सामाजिक उन्नयन में क्या क्या और कहां कहां रुकावटें हैं। हमें मुक्ति के लिए कौन सा मार्ग ग्रहण करना चाहिए। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्यसमाज की प्रतिष्ठा उसकी प्रगति एक दिव्य स्फूर्ति की प्रगति है। देश में महिलाओं, पतितों तथा ब्राह्मणेतर जातियों के अधिकार के लिए महर्षि दयानंद तथा आर्यसमाज से बढ़कर इन नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जागरण भारत में देख पड़ता है। इसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्यसमाज को है। स्वधर्म में दीक्षित करने का यहां इसी समाज से श्री गणेश हुआ है। भिन्न जाति वाले बंधुओं को उठाने तथा ब्राह्मण क्षत्रियों के प्रहारों से बचाने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहर, जिले-जिले कस्बे-कस्बे में इसी उदारता के कारण आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्र भाषा हिंदी के भी स्वामी जी एक प्रवर्तक हैं, और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। शिक्षण के लिए गुरुकुल जैसी संस्था निर्मित हो गई। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा। हमें ऋषियों की संतान होने का सौभाग्य प्राप्त हैं, और इसके लिए हम गर्व करते हैं। तो कहना होगा कि ऋषि दयानंद से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया, जिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित कर दिया।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला