महर्षि दयानन्द की विशेषताएँ
स्वामी दयानन्द 19वीं शताब्दी के सबसे बड़े वेद के विद्वान, धर्म प्रचारक, समाज-संशोधक, देशोद्धारक और सर्वतोमुखी सुधारक थे | उनकी विशेषतायें यह थीं –
धार्मिक सुधार
(1) वे वेद को सत्य विद्याओं का ग्रन्थ मानते थे | उनकी दृष्टि में वेद के सभी शब्द यौगिक और इसीलिए मानवी इतिहास शून्य और उनकी सभी शिक्षायें नित्योपयोगी हैं | इसी दृष्टिकोण से उनकी प्रचारित वेदार्थ्-शैली ने उन्हें सायण आदि वेद भाष्यकारों की कोटी से पृथक् कर यास्काचार्य आदि नैरुक्तों की श्रेणी में पहुंचा दिया था |
(2) उन्होंने शंकर, रामानुज आदि प्रायः सभी मध्यकालीन आचार्यों के संकोच की अवहेलना करते हुए वेद का द्वार मनुष्यमात्र के लिए खोल दिया और ‘यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः (यजुर्वेद 2/62)’ की घोषणा करते हुए स्त्रियों, शूद्रों और अतिशूद्रों को भी वेदाध्यन का अधिकारी ठहराया |
(3) उन्होंने वेदमात्र को स्वतः प्रमाण और वेदेतर सभी ग्रन्थों को परतः प्रमाण बतलाते हुए मूर्तिपूजा, मृतक-श्राद्धादि पौराणिक प्रथाओं को अवैदिक प्रकट करते हुए हेय ठहराया और घोषणा की कि वेद केवल निराकार ईश्वर की पूजा का विधान करते हैं |
(4) स्वामी दयानन्द के प्रादुर्भाव के समय देशवासी वेद के नाममात्र से परिचित थे, उन्हें यह मालूम नहीं था कि वेद की शिक्षा क्या है ?इसी कारण यह संभव हो सका कि एक पौर्तुगीज पादरी ने एक संस्कृत पुस्तक वेद के नाम से गढ़ कर उसमें ईसाई मत की शिक्षा अंकित की और उसके द्वारा मद्रास प्रान्त में अनेक लोगों को ईसाई बनाया परन्तु स्वामी जी ने इतने बल से वेद प्रतिपादित धर्म का प्रचार किया और उनकी शिक्षा के प्रकट करने के लिए ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिका, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की रचना की जिससे भविष्य में धोखे से हिदुओं को ईसाई बनाना सुगम नहीं रहा |
(5) जो लोग उपर्युक्त भांति या अन्य प्रकार से धर्मभ्रष्ट किये गये थे उनके लिये शुद्धि का द्वार खोलकर उन्हें फिर हिदु बनने की शिक्षा दी और एक जन्म के मुसलमान को देहरादून में शुद्ध करके शुद्धि का क्रियात्मक रूप भी जनता के सामने रखा |
(6) देश में हिन्दु धर्म के विरुद्ध साहित्य से वैदिक सभ्यता का मान घट रहा था और उसका स्थान अनेक उत्पातों की मूल पश्चिमी सभ्यता ले रही थी, प्राचीन संस्कृत साहित्य निकम्मा और वेद गडरियों के गीत कहे जाने लगे थे और देशवासी विशेषकर अंग्रेजी शिक्षित पुरुष, आंखे बन्द कर अंग्रेजी साहित्य और पश्चिमी रस्म-रिवाज पर मोहित होकर पश्चिमी लोगों के पीछे चलने में गौरव मानने लगे थे, इस परिस्थिति और देश में उपस्थित ऐसे वातावरण को बदलकर प्राचीन सभ्यता का मान उत्पन्न करके “वेद की और चलो” (Back to the Vedas) की ध्वनि को प्रतिध्वनित कर देना स्वामी दयानन्द के महान व्यक्तित्व, उनके अखण्ड ब्रह्मचर्य, उनके न्याय और तपस्या और उनके अपूर्व पाण्डित्य एवं निर्भीक्तापूर्ण सत्य उपदेशों का ही फल था |
हिन्दी प्रचार
(7) देश के नवयुवक मातृ(हिन्दी) भाषा को अंग्रेजी की वेदी पर बलिदान कर चुके थे और हिन्दी गन्दी कहलाने लगी थी, हिन्दी पुस्तक या हिन्दी अखबार पढ़ना फैशन के विरुद्ध समझा जाने लगा था, परन्तु स्वामी दयानन्द ने अपने जगत् प्रसिद्ध ग्रन्थों को हिन्दी में लिखकर, जबकि उनकी मातृभाषा गुजराती थी, इस बेढंगी चाल को भी बदल दिया | अब सभी जानते हैं कि हिन्दी राष्टृभाषा (Lingua Franca) समझी और मानी जाने लगी है और उसका प्रचार तथा साहित्य दिनदूनी और रात चौगुनी उन्नति कर रहा है | विश्वविद्यालयों में भी उसका मान नित्यप्रति बढ़ रहा है |
सामाजिक सुधार –
(😎सामाजिक सुधार के सम्बन्ध में भी ऋषि दयानन्द का ह्रदय बड़ा विशाल था और उन्होंने कुरीतियों को समाज से निकाल देने का प्रशंसनीय यत्न किया | उदाहरण के लिए कतिपय सुधारों का यहां उल्लेख किया जाता है |
(क) बालविवाह का प्रचार और ब्रह्मचर्य का लोप हो जाने से शारीरिक बल का ह्रास हो रहा था, इसलिए दूसरों की अपेक्षा हिन्दू जाति निर्बल समझी जाने लगी थी, इसी कारण उसे समय समय पर अपमानित भी होना पड़ा था | स्वामी दयानन्द नें इसके विरुद्ध प्रबल आवाज उठाई और ब्रह्मचर्य की महिमा अपने उपदेशों और अपने क्रियात्मक जीवन से प्रकट कर ब्रह्मचर्य का सिक्का लोगों के ह्रदय में जमा दिया | उसी का फल है कि देश में जगह जगह ब्रह्मचर्याश्रम खुले, सरकारी विश्व-विद्यालयों ने भी अनेक जगह नियम बना दिये कि हाई स्कूलों में विवाहित विद्यार्थियों का प्रवेश न हो और शारदा एक्ट भी बना |
(ख) इसी बालविवाह में वृद्ध-विवाह ने भी योग दे रखा था और दोनों का दुष्परिणाम यह था कि जाति में करोड़ों विधवाएं हो गयी थीं ,जिनमें लाखों बाल-विधवाएँ भी थीं और उनमें हजारों ऐसी भी विधवाएँ थीं जिनकी आयु एक एक दो दो वर्ष थी | भ्रूण-हत्या, गर्भपात, नवजात-बालवध आदि अनेक पातक हिन्दु जाति के लिए कलंक का कीड़ा बन रहे थे | इन दुःखित विधवाओं का दुःख ऋषि दयानन्द का दयालू ह्रदय किस प्रकार सह सकता था, इसीलिए विधवा विवाह को प्रचलित करके इनके दुःखों को दूर करने की भी चेष्टा की |
(ग) मातृशक्ति होते हुए भी स्त्रियों का जाति में अपमान था, वे शिक्षा से वंचित करके परदे में रखी जाती थी, उनके लिए वेद का द्वार बन्द था | उनको यदि श्रीमत् शंकराचार्य ने नरक का द्वार बतला रखा, तो दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास जी ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु-नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’ का ढोल पीट रहे थे, परन्तु ऋषि दयानन्द नें उनके लिए भी वेद का द्वार खोला, इन्हें शिक्षा की अधिकारिणी ठहराया, पर्दे से निकाला, उन्हें मातृ शक्ति के रूप में देखा और उनका इतना अधिक मान किया कि हम ऋषि दयानन्द को एक छोटी बालिका के आगे उदयपुर में नतमस्तक देखते हैं | उसी का फल है कि आज कन्याओं की ऊंची से ऊंची शिक्षा का प्रबन्ध हो रहा है |
(घ) जन्म की जाति प्रचलित हो जाने से चार वर्णों की जगह हिन्दू जाति हजारों कल्पित जातियों और उपजातियों में विभक्त हो रही थी | प्रत्येक का खानपान, शादी-ब्याह पृथक पृथक था | इन मामलों में जाति उपजाति का पारस्परिक सम्बन्ध न होने से हिन्दू जाति एक नहीं थी और न उसका कोई सम्मिलित उद्देश्य बाकी रहा था, न उस उद्देश्य की पूर्ति के सम्मिलित साधन उसके अधिकार में थे | ऋषि दयाननद ने इस जन्म की जाति को समूल नष्ट करने की शिक्षा दी थी, क्योंकि यह सर्वदा वेद विरुद्ध थी | उसी के फलस्वरूप अब हिन्दुओं में अन्तर्जातीय सहभोज और अन्तर्जातीय विवाह होने लगे और इनके प्रचारार्थ अनेक संस्थाएं बन गयीं |
(च) दलित जातियों के साथ उच्च जातियों का व्यवहार अत्यन्त आक्षेप के योग्य और उनके लिए असह्य भी था, उसी के दुशपरिणाम स्वरूप बहुसंख्या में दलित भाई ईसाई और मुसलमान बन रहे थे | ऋषि दयानन्द नें इसके विरुद्ध भी आवाज उठाई और उन्हें खानपान आदि सहित उन सभी अधिकारों के देने का निर्देश दिया जो उच्च जातियों को प्राप्त हैं | देश भर में ऋषि के इस निर्देश की पूर्ति के लिए जद्दोजहद हो रहा है और हिन्दुओं के मध्य से छूत-अछूत का भेद तथा छुआछूत का विचार ढीला पढ़ रहा है |
(छ) दान की व्यवस्था की ओर भी स्वामी दयानन्द ने ध्यान दिया, मनुष्य को निकम्मा बनाने के लिए दान देने की कुप्रथा प्रचलित थी, उसका बलपूर्वक खण्डन किया और उसके स्थान पर देश काल तथा पात्र को देखकर सात्विक दान देने की प्रथा प्रचलित की |
महात्मा नारायण स्वामी