महर्षि दयानन्द का धर्मोपदेश
1. ‘अग्नि’ शब्द की व्युत्पत्ति से जिन-जिन गुणों का वह वाचक है वह गुण परमेश्वर में हैं, अतः ‘अग्नि’ परमेश्वर का वाचक है ।
2. प्रथम तो किसी प्रामाणिक ग्रन्थ में ‘त्रिकाल सन्ध्या’ का विधान नहीं पाया जाता । दूसरे, सन्ध्या के अर्थों से भी सिद्ध होता है कि दो ही काल करनी चाहिए । यदि मध्याह्न की सन्ध्या मानी जावे तो फिर अर्ध रात्रि की चौथी भी माननी चाहिए और फिर प्रहर-प्रहर, घड़ी-घड़ी की भी माननी उचित है । इस प्रकार तो कोई समय रहता ही नहीं, हर समय सन्ध्या ही करते रहना चाहिए । सन्ध्या दो ही समय की है और यही ऋषि-मुनियों का सिद्धान्त है ।
3. मूर्त्तिपूजा का खण्डन मैं नहीं करता, वरन् तुम (मूर्त्तिपूजक लोग) करते हो ! तुम देवता को घण्टा आदि दिखाकर नैवेद्य आदि स्वयं चट कर जाते हो । इस कारण तुम वास्तव में ‘पूजारि’ (पूजा के अरि अर्थात् शत्रु) हो ! तुम देवता से कहते हो – ‘इमां घण्टां त्वं गृहाण भोजनमहं गृह्णामि’ अर्थात् तू तो यह घण्टा ले, भोजन मैं लेता हूं ।
4. (मुक्ति अनन्त है या सान्त) इस विषय पर हमने बहुत विचार किया है और सांख्य शास्त्र के प्रमाणानुसार हमें मुक्ति सान्त ही माननी पड़ी । जब जीव का ज्ञान परिमित है तो मुक्ति, जो उसका फल है, अपरिमित वा अनन्त कैसे हो सकती है ?
5. मेरा उद्देश्य सबको ऐसे आपस में मिलाना है जैसे जुड़े हुए हाथ । मैं कोल से ब्राह्मण तक में जातीयता की ज्योति जगाना चाहता हूं । मेरा खण्डन हित और सुधार के लिए है ।
6. यदि आर्य अकेला हो तो स्वाध्याय करें, दो हो तो आपस में प्रश्नोत्तर और संवाद करें और तीन वा अधिक हो तो परस्पर सत्संग और किसी धार्मिक ग्रन्थ का पाठ करें ।
7. मैं ब्रह्मसमाजियों की भांति समाज के जातीय जीवन से अलग होना नहीं चाहता । समाज में रह कर ही उसका संशोधन करना श्रेयस्कर है ।
8. आपका यह कहना ‘मैं किसी मत को नहीं मानता’ – यह अर्थ रखता है कि यही (किसी मत को नहीं मानना) आपका मत है ।
9. मुक्ति का नित्य (अनन्त) होना असम्भव है और जीव का परमेश्वर में मिल जाना भी असम्भव है । जीव अल्पज्ञ है और परमेश्वर सर्वज्ञ । दोनों के गुण पृथक् हैं, अतः दोनों एक दूसरे में मिल कर एक नहीं हो सकते ।
10. आप मद्य मांस का सेवन करते हुए योगाभ्यास का सेवन नहीं कर सकते । यदि आप इन वस्तुओं का त्याग कर दें और नियम पालन करते हुए योगाभ्यास करें तो सफल हो सकते हैं ।
11. मैं गुरुआई की प्रथा को अच्छा नहीं समझता, परन्तु यदि तुम मेरे चेले बनना चाहते हो तो संस्कृत पढ़ो और जब प्राप्त-वयस्क हो जाओ तो वैदिक सच्चाइयों का प्रचार करो ।
12. शरीर के बल सम्पादन के लिए मांसाहार की कुछ भी आवश्यकता नहीं है । दाल, रोटी, शाक और दुग्ध आदि से शरीर में बल और बुद्धि दोनों का ही प्राचुर्य हो सकता है ।
13. पहले आर्यगण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके विद्योपार्जन करते थे इसलिए वे वलिष्ठ और दीर्घायु होते थे । अब के मनुष्य इन्द्रिय-दोष और पान-दोष में आसक्त होकर शारीरिक और मानसिक तेज से हीन हो गए हैं और अल्पायु भी हो गए हैं ।
14. हम स्त्रियों में व्याख्यान देना पसन्द नहीं करते । उनके पति आदि हमारा व्याख्यान सुन जावें और उन्हें जाकर बतला देवें ।
15. मैंने तो सब संसार से सम्बन्ध त्याग दिया है । किसी का मरना और जीना मेरे लिए एक-सा है । मैं किसी से शोक वा हर्ष नहीं करता, न मेरा कुछ सम्बन्ध है । मेरा सम्बन्ध को केवल उपदेश और धर्म से है, शेष किसी वस्तु से नहीं ।
16. (एक ईसाई पादरी से वार्तालाप करते हुए) सत्य वेदोक्त धर्म में ईश्वर के अवलम्बन से ही मोक्ष होता है । महाभारत में लिखा है कि शुक्राचार्य ने संजीविनी विद्या से मृत पुरुषों को जिलाया था ! अब हम शुक्राचार्य को ईश्वर का अवतार मानें वा उन्हें ईश्वर का भेजा हुआ मानें ? यदि उत्तम उपदेश देने से ही ईसा को परित्राता कहते हो तो बाइबिल की अपेक्षा भगवद्गीता में अधिक उत्तम उपदेश हैं, इसलिए भगवद्गीता के वक्ता श्रीकृष्ण भी परित्राता हैं । यदि कहते हो को ईसा इसलिए परित्राता थे कि उन्होंने उत्तम कर्म किये थे, तो शंकराचार्य अपेक्षाकृत उत्तमोत्तम कर्म कर गए हैं, इसलिए शंकराचार्य भी परित्राता हैं ।
17. भारतवासियों को आर्य भाषा (हिन्दी) का सीख लेना कुछ कठिन नहीं है । जो इस देश में जन्म लेकर अपनी भाषा के सीखने का परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है ?
18. प्रथम तो मुझे ही विचार हुआ था कि मूर्त्तिपूजन केवल अविद्या अन्धकार है, परन्तु गुरुवर्य स्वामी विरजानन्द जी भी उसका खण्डन किया करते थे और कहा करते थे कि कोई हमारा शिष्य ऐसा हो जो इस अन्धकार को देश से दूर करे । उनके आदेश से मैंने वैदिक धर्म प्रचार का कार्य अपने ऊपर लिया है ।
19. तीर्थों की जो वर्त्तमान दशा है उसकी प्रयोजनीयता मैं कुछ नहीं देखता हूं । यह तो केवल जीविकोपार्जन के निमित्त पण्डों ने एक ठाठ खड़ा कर रक्खा है ।
20. सुख-दुःख के भोग का नाम कर्मफल है । जिस भोग का हेतु इस जन्म में ज्ञात न हो उसे पूर्वजन्मकृत कर्म का फ्ल मानना चाहिए । आर्यों का धर्म शास्त्र यही बताता है और यही युक्ति से भी सिद्ध है ।
21. जब कोई श्रोता किसी वक्ता का व्याख्यान सुने तो उस पर खूब मनन करके यह जानने का यत्न करना चाहिए कि उसके कथन में कितना सत्य है और कितना असत्य । यह जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिए ।
22. मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं यह नहीं चाहता कि जो कुछ मैं कहूं आप उस पर आंखें मीच कर चलने लगें । आप उस पर विचार करें, उसे जांचें और परखें । यदि वह आपको सत्य जान पड़े तो उस पर चलें और यदि वह असत्य जान पड़े तो उस पर कोई ध्यान न दें । यह अन्ध विश्वास ही हमारे नाश का मूल है । संस्कृत पुस्तकों में ज्ञान का बृहत् कोष भरा हुआ है । उन्हें पढ़ो और देखो कि उनमें क्या है । ऐसा मत कहो कि कोई बात केवल इसलिए माननीय या त्याज्य है कि दयानन्द सरस्वती ऐसा कहता है ।
संकलनकर्ता : भावेश मेरजा