महर्षि दयानन्द के हस्तलिखित पत्र
महर्षि दयानन्द के पत्र व्यवहार इतिहास का अंग हैं। महर्षि दयानन्द के पत्रों से कहीं पर नये तथ्य प्रकाश में आते हैं तो कहीं पर पुरातन बातों की पुष्टि होती है। साथ ही महर्षि दयानन्द के बहुआयामी व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है। इन पत्रों से महर्षि दयानन्द की कार्य प्रणाली एवं योजना पद्धति का भान होता है। इन पत्रों के संकलन का कार्य स्वामी श्रद्धानंद, पं चमूपति, पं भगवद्दत, पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, श्री मामराज खतौली एवं पं युधिष्ठिर मीमांसक सरीखे महामना मनीषियों ने किया। कुछ हस्तलिखित पत्र नमूने के लिए टंकण एवं अनुवाद सहित यहाँ पर प्रस्तुत हैं। उनके अन्य उपलब्ध पत्रों के लिए आर्य समाज द्वारा प्रकाशित पुस्तकें देखें।
लुधियाना
16 अप्रैल 1877
मेरे प्रिय बाबू !
मैं आपका 12 ता० का पत्र पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और महाशय शाम जी की तीन वर्ष के लिये इंगलैण्ड जाने की इच्छा को जानकर असीम आनन्द हुआ। मेरी सम्मति में यह शुभ सुअवसर है जिससे अवश्य लाभ उठाना चाहिये, जो वस्तुतः यह विचार दोनों देशवासियों की कई प्रकार की सफलताओं के लिये सर्वोत्तम सिद्ध होगा। इस विषय में आपकी प्रेरणा सर्वोत्तम होगी और जब सफल होकर लौटेगा तो अपने इस प्रशसनीय प्रयत्न के लिये इंगलैण्ड और भारत दोनों देशों की शिक्षित जनता द्वारा अत्यन्त सम्मानित होगा। क्या वे अपनी पत्नी को भी साथ ले जायेंगे। इनके श्वशुर सेठ छबीलदास जी इस सम्मति से सहमत और सहयोगी क्यों नहीं हैं ? कृपया इस विषय में आगे मुझे सूचित करें और इस समय अपनी सम्मति व्यक्त करता हुआ मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं कि शाम जी यदि इसे स्वीकार नहीं करेंगे तो यह उन की बुद्धिमत्ता न होगी।
मैं 19 अप्रैल 1877 को लुधियाना से लाहौर को प्रस्थान करूंगा और वहां रत्नचन्द दाढ़ीवाला के बाग में ठहरूंगा। कृपया अगली सूचना मिलने तक सब पत्र उपर्युक्त पते पर भेजें।
मेरा शुभ आशीर्वाद स्वीकार करें।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
सेवा में श्री बाबू हरिश्चन्द्र चिन्तामणि बम्बई।
Loodhiana
16th April 1877
My dear Baboo
I am extremely happy to read yours of the 12th inst and am over (glad) to learn the delightful intention of Mr. Shamji to visit England for three ye(ars) in my opinion this is the exampled opportunity for him (to) grasp it without fail which will prove mutually best indeed for both countrymen for their success in many ways. Your Inducement to him in this respect will be considered as first rate and he will be crowned with high honours by all educated people both in England and India for his such a praiseworthy attempt, when returned successtully. Will he take his wife with him? Why his father-in-law Seth Chhabil Dass does not coincide with and join your common opinion! Please give me further information again on this matter and I am very glad to express my best opinion this time that Mr. Shamji would not be considered a wise man if he turned his foot backward from this illustrious undertaking.’
Now I will leave Ludhiana for Lahore on 19th of April 1877 and will stop there in the garden of Ratan Chand Darhiwala. Please send all your letters to the above address till further information.
Accept my best ashirvad
Swami Dayanand Saraswati
Sd. दयानन्द सरस्वती
To Baboo Harish Chander Chintamani Bombay
लाहौर 6 जून 1877
प्रिय महोदय !
मैं आपका गत 30 ता० का पत्र पढ़कर बहुत प्रसन्न हुआ और मेरी आत्मा को शांति मिली। सन्मार्ग में आपकी निर्भीकता अपरिमेय है तथा आप के प्रयत्न भारत के कल्याण की दृष्टि से अकथनीय हैं। प्रकृति के नियमों के अनुसार आप पुरस्करणीय हैं, शीघ्र आपकी समृद्धि उत्तरोत्तर बढ़ेगी।
मैं आपकी सम्मति के अनुसार चलने के लिये सहमत हूं और जैसी कि आपकी इच्छा है, शुक्ल यजुर्वेद का भाष्य करने को तैयार हूं। किन्तु ऐसी स्थिति में मुझे दो अन्य पण्डितों की आवश्यकता होगी और प्रतिमास कार्य के द्विगुणित हो जाने से मुद्रण व्यय भी बढ़ जायगा। अतः आप स्वयं इस विषय पर उचित रूप से विचार कर लें और अपनी अन्तिम सम्मति से मुझे सूचित करें जिससे मैं दो लेखक और रख सकूं जिससे निश्चित रूप से भाष्य का कार्य आरम्भ हो जावे। मेरा पूर्ण विश्वास है कि यदि देश में सभ्यता का सूर्य चमके और वेदों का सत्य ज्ञान फैले तो अज्ञानी भारत का अन्धकार जिसने जनता को ऐसी अधोगति में डाल दिया है, एक दिन अवश्य दूर हो जायगा।
आप और आपके साथियों जैसे भद्र और उच्च भावना वाले पुरुषों के सहयोग से ही जनहित के लिए इस महान् कार्य को हाथ में लेने की आशा की जा सकती है और यद्यपि ऐसी आत्माएँ संख्या में कम हैं परन्तु उनकी न्यूनता उनकी अधिकता से अच्छी है।
मैं चाहता हूं कि ऑक्सफोर्ड के लिये प्रस्थान करने से पहले शाम जी कृष्ण वर्मा थोड़े समय के लिए मेरे पास आ जावें। मैं वेदों के विषय में उनको कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संकेत देना चाहता हूं जो उनके लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। उन्हें व्यय वा अन्य किसी वस्तु की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। मैं उनकी सब आवश्यकताओं की पूर्ति कर दूंगा। मेरी सम्मति में उनका इंगलैण्ड जाना उनके लिये बहुत उपयोगी है, परन्तु इस विषय में आप अपनी सम्मति से मुझे सूचित करें। मैं सीधा उनके पासभी पत्र लिखूंगा। मेरे पास महानिर्वाण तन्त्र की कोई प्रति नहीं है, किन्तु यह कलकत्ता से प्राप्य है। आशा है आप कुशल होंगे। कृपया मेरे प्रश्नों के विषय में शाम जी कृष्ण वर्मा के उत्तर से अवगत करावें और आशीर्वाद स्वीकार करें।
आपका शुभचिन्तक
पण्डित स्वामी दयानन्द सरस्वती
Lahore 6th June 1877
Dear Sir
I am exceedingly glad to read yours of the 30th ult. which refreshed my soul very much. Your boldness in virtuous path is beyond measure and your excutions in Indian’s welfare are unspeakable. By the laws of nature you are deserving good reward from heaven. Your prosperity will grow higher and higher rapidly.
I am willing to follow your advice, and ready to translate shukle Yajur Veda as you wish. But in this case I will need of two Pandits more and the Printing Charges will also get increases for the double issue of the work every month. Therefore you can yourself think over the matter properly and inform me then of your final opinion on the matter so that I may employ two writers more and begin to translate the work certainly, I have every reason to believe that the darkness of ignorant India-which they seem and still careless will one day be banished away, if the sun of civilization shone over and the true knowledge of Vedas, diffused over the country.
Noble and high spirited person like you and your companion only can be expected to undertake this mighty work for the public good and though such souls are few in number but their rarity is better than their abundance.
I wish that Shamji Krishna Varma should come to me for some time before starting for Oxford. I wish to give him some of the most important hints on Vedas which are necessarily required for him. He must not care for his expenses or anything else and i will furnish him with all necessities indeed. In my opinion his going to England is very useful for him but let me know what is your opinion about the matters. I will also write directly to him. I have got no copy of Maha Nirwana Tantra with me but it is procurable from Calcutta. Hoping you are well. Please let me know Shamji K. Verma’s answer about my enquiry and accept my Asheervaad
Yours will wisher
Pandit S. Dayanand Saraswati
रावलपिण्डी
28 नवम्बर, 1877
प्रिय पण्डित !
साथ में वेदभाष्य का (जो शीघ्र ही आरम्भ तथा प्रकाशित होने वाला है) नमूना भेज रहा हूं जिसमें पाठकों की सुविधा के लिए वेदों के भाष्य के विभाग की पद्धति विचित्र ढंग से दिखलाई गई है। सभी कठिन स्थलों को सरल संस्कृत तथा देवनागरी में खोलने का शक्ति भर यत्न करूंगा। जिससे अल्प ज्ञान वाले बच्चे भी विना किसी सहायता के उसे समझ सकेंगे। कृपा करके पहले इसे स्वयं देखिए, फिर इसे जनता की सम्मति और अनुमोदन के लिये अहमदाबाद और बम्बई आदि में प्रचारित कीजिए। मैं आशा करता हूं कि आप ऐसा करने और पद्धति को रखने वा इसे और अच्छी बनाने के लिये परिवर्तन के विषय में अपनी अन्तिम सम्मति देने में विलम्ब न करेंगे।
वेदभाष्य का कार्य आरम्भ हो चुका है और प्रतिदिन लेखन कार्य चल रहा है, अतः आप तथा मोरेश्वर कण्टे जैसे अन्य व्यक्तियों के सम्मति सूचक उत्तर में विलम्ब उचित नहीं। मेरा पता – ‘ द्वारा पोस्ट मास्टर रावलपिण्डी’ केवल इतना ही लिखिए। अगले वर्ष 1878 से ऋग् और यजुः दो अंक निकालने के विषय में ग्राहकों की स्वीकृत्यर्थ इच्छा जानने के लिए इस मास की अपनी भूमिका भाग 9 में एक सूचना निकाली है और दूसरी सूचना चन्दा निश्चित करने के लिए, जैसा निश्चित होगा पुन: अगले मास में प्रकाशित की जाएगी। कृपया मेरे अन्य पत्र का भी उत्तर दीजिए और आशीर्वाद स्वीकार कीजिए। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आप बम्बई आर्यसमाज में हर पक्ष में जाकर जनता के हित की दृष्टि से विभिन्न विषयों पर सुन्दर व्याख्यान देते हैं। आशा है आप आनन्द सकुशल होंगे।
आपका शुभचिन्तक
ह० दयानन्द सरस्वती
सेवा में –
आर आर गोपाल राव०हरि
देशमुख, तोरमाण
Rawalpindi
28th November, 1877
Dear Pandit,
The accompaying is a specimen of my Veda Bhashya (which is to be commenced and published soon) showing the style and mode of dividing the interpretation of the texts into peculiar ways for the facility of its readers. I will do my best to disclose all the most difficult points into plain Sanskrit and Devanagari so that even the boys of insufficient knowledge will be able to understand them without any help.
Please see it yourself first and then circulate it in Ahmedabad and Bombay etc., for approval of the people.
I hope you loose no time in doing so and will be communicating your final opinion to me either to keep the style or change into another better one.
The work of text Bhashya has been set up and is under my pen every day so the delay in answer expressive of your and others opinions like that of Moreshwar Kunte is not advisable. Address me Rawalpindi to the care of post master only. I have also given a notice on my Veda’s Bhoomika Part No. 9 for the present month regarding the two issues of Riga and Yaju from the next year 1878 for learning the subscribers wishes for their acceptance and another notice for fixing subscription etc. and as settled will be published again in the next month. Please reply my other letter too and accept my best Asheerbad. I am very glad to hear that you visit Bombay A Samaj every fortnight and deliver a beautiful lecture there on different subjects with the view of public interest. Hoping you are well and rejoicing
Your well wisher
Pt. Swami Dayanand Saraswatti
दयानन्द सरस्वती
To
R. R. Gopal Rao, Hari
D. Mukh, Torman.
गुजरात
16 जनवरी 1878
प्रिय बाबू !
मुन्शी इन्द्रमणि (अरबी तथा फारसी के प्रसिद्ध विद्वान्) और उत्तर पश्चिम प्रान्त के अनुभवी व्यक्तियों की संयुक्त सम्मति और स्वीकृति से मैं आपको सूचना देने की आवश्यकता अनुभव करता हूं कि सम्पूर्ण होने से पूर्व वेदभाष्य का अनुवाद अंग्रेजी वा वर्नाक्यूलर में नहीं करना चाहिए।
क्योंकि यदि अंग्रेजी वा उर्दू में अनुवाद किया गया, तो इससे लोग संस्कृत और भाषा के अध्ययन में निरुत्साह हो जावेंगे, क्योंकि वे सोचेंगे संस्कृत और भाषा के विना ही अंग्रेजी वा उर्दू के द्वारा ही हम अपना उद्देश्य प्राप्त कर लेंगे। ऐसी स्थिति में हमें ग्रन्थ के अंग्रेजी वा उर्दू में अनुवाद करने के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं। जिससे सुपरिणाम के स्थान पर अन्त में दुष्परिणाम प्राप्त हो। पहले केवल शुद्ध संस्कृत और भाषा में पूर्ण हो जाने दीजिए, पश्चात् अन्य भाषाओं में अनुवाद करना आवश्यक समझा गया, तो आप सब अपनी इच्छानुसार संसार में जनहित की दृष्टि से कार्य करने में स्वतन्त्र होंगे।
कुछ समय पूर्व शाम जी कृष्ण वर्मा ने मुझे कागज का नमूना भेजनेके लिए एक नई अच्छी दुकान बम्बई में चुनी तथा बताई है। जहां से 16 रुपया प्रति रिम के हिसाब से मिलेगा।
इस मामले को आप शीघ्र तय कर लीजिए। और छापने वालों के साथ उनके तथा पारस्परिक निश्चय के अनुसार जो शीघ्र ही स्टाम्प कागज पर लिखे होने चाहिएं, समझौता कर लीजिए।
यदि शाम जी कृष्ण वर्मा मेरे कार्य में लग गए, तो मैं मासिक व्यय में 10, 15 रुपयों वा न्यूनाधिक पर न विचार कर अतिरिक्त वेतन पर भी अपने काम पर प्रसन्नतापूर्वक लगा लूंगा। उन्हें पूछ लीजिएगा कि क्या वे ऐसा करना चाहते हैं ? और यदि सम्भव हो सके तो अपने मित्रों की एक सभा बुलाइये, जो वेदभाष्य के प्रकाशन के विषय में कोई और अच्छी योजना प्रस्तुत करें।
प्रथम वर्ष समाप्त हुआ और अब द्वितीय वर्ष फरवरी से आरम्भ होने वाला है। अतः मैं छापने वालों के साथ समझौते की प्राप्ति के पश्चात् चन्दा निश्चित करना चाहता हूं, और बतलाइये कि छपाई व्यय के अनुसार दोनों वेदों के अंकों के लिए क्या चन्दा रक्खा जावे ?
यदि अनुवाद संस्कृत भाग के साथ जोड़ कर बढ़ा दिया जाय, तो सम्भव है गाहक लोग अधिक चन्दा न देना चाहेंगे।
गुजरात फतेहगढ़ और वजीराबाद में गत दिसम्बर और जनवरी सन् 1878 में कुछ लोग आर्यसमाजी हो गए हैं। मेरा पता – द्वारा ” पोस्टमास्टर गुजरात सिटी” केवल इतना ही है, और [मेरा] आशीर्वाद स्वीकार करें।
आप का शुभचिन्तक
दयानन्द सरस्वती
सेवा में-
बी० एच० चिन्तामणि
Gujrat
16th January, 1878
Dear Baboo
With the consent and united opinion of Moonshi Inder Mani (a famous learned of Arabic and Persian) and other experienced persons of N W. provinces, I feel necessity to inform you that the Veda-Bhasya must not be translated into English or Vernacular before reaching its completion, because if translated into English or Urdu then it will weaken the hearts or the people to study Sanskrit, thinking that they would be able to gain their object either by English or Urdu without caring for Sanskrit and Bhasha. Under such circumstances, we need not try to translate the work into English or Urdu, which instead of producing any good result, will bring forth something bad in the end.
Let the Bhashya first be reached its completion in pure Sanskrit and Bhasha only, afterwards, if it would be thought proper to translate into other languages, you all would get liberty to work according to your wishes with the view of public benefit in the world.
Now better bookshop to send me sample of paper selected and suggested by Mr. Sham ji Krishana Verma some time ago to be procurable at Rs. 16 per ream in Bombay. Settle the matter soon get agreement of the printers for working according to their words and mutual fixed terms, which all should be entered on the stamped paper without longer delay.
If Sham ji Krishna Verma can work for me, I am very glad to engage him in my work even on extra pay and without caring for Rs. 10 or Rs. 15 more or less in the monthly account. Ask him if he likes to do so and hold a commitee of your friends for proposing some better scheme about the Veda Bhashya’s publication if possible.
The first year ended and the 2nd is to be commenced from February, so I wish to fix subscription on receipt of your settlement with the printers etc. end tell me what subscription should be kept for both the Vedas according to their printing expense. The buyers will be unwilling to pay high subscription if the translation be added and enlarged along with the Sanskrit one.
Gujrat, Futtehgurh and Wazeerabad have been blessed with Arya samajees in December last and January 1878, Adress me Gujrat city to the care of post master only and accept my Asheerbad
Your well wisher
Pt. Swami Dayanand Saraswatti
Sd. दयानन्द सरस्वती
To
B.H. Chinta Mani
Bombay
श्रेष्ठ गुणों से युक्त, सत्य सनातन धर्म के प्रेमी, मिथ्या मत को छोड़ने पर उद्यत, एकेश्वर की उपासना के इच्छुक, बन्धुवर्ग, महाशय हैनरी एस. अलकाट प्रधान, और मैडम एच० पी० ब्लैवेत्सकी और थियोसोफिकल सोसाइटी के अन्य समस्त सम्मानित सदस्यों को दयानन्द सरस्वती की कल्याणदायक आशीष हो।
यहां आनन्द है, और वहां आपके आनन्द के इच्छुक हैं। आपने महाशय मूल जी ठाकरशी और हरिश्चन्द्र चिन्तामणि के द्वारा हमारे पास जो पत्र भेजा है, उसे देखकर हमें बहुत आनन्द हुआ। सर्वशक्तिमान्, सर्वत्र एकरस व्यापक, सच्चिदानन्द, अनन्त, अखंड, अजन्मा, निर्विकार, अविनाशी, न्यायकारी, दयालु, विज्ञानी, सृष्टि स्थिति प्रलय के मुख्य निमित्त कारण, और सत्य गुण कर्म स्वभाववाले, निर्भ्रम, अखिलविद्यायुक्त जगदीश्वर को असंख्य धन्यवाद है कि उसकी कृपा से लगभग पांच हजार वर्ष के पश्चात्, महाभाग्य के उदय होने से, हमारे प्रिय पातालदेश निवासी आपका (जिनका आपसी व्यवहार छूटा हुआ था), और हम आर्य्यावर्त निवासियों के फिर से आपसी प्रीति, उपकार, पत्रव्यवहार और प्रश्नोत्तर करने का समय आ गया। मैं आप से बड़े प्रेम से पत्र व्यवहार करना स्वीकार करता हूं। इसके पश्चात् आपकी जैसी इच्छा हो, पत्र लिखकरमूलजी ठाकरशी और हरिश्चन्द्र चिन्तामणि जी के द्वारा भेज दें। मैं भी उन्हीं के द्वारा आप सज्जनों के पास पत्र भेजता रहूंगा। जहां तक मेरा सामर्थ्य होगा, वहां तक मैं सहायता भी दूंगा। आपकी जैसी ईसाइयत आदि मतों के विषय में सम्मति है वैसी ही मेरी भी सम्मति है। जैसे ईश्वर एक है, वैसे ही सब मनुष्यों का एक मत होना चाहिये। और वह यह है कि एक ईश्वर की उपासना करना, उसकी आज्ञा का पालन, सबका उपकार करना, सनातन वेदविद्या से प्रतिपादित और आप्त विद्वानों द्वारा आचरित, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण के अनुकूल, सृष्टिक्रम के अनुकूल, न्याययुक्त तथा पक्षपात से रहित, धर्म से युक्त, आत्मा के लिये प्रीतिकर, और सब मतों द्वारा मान्य सत्य बोलना आदि लक्षणवाला, सबको सुख देने वाला है, और उसका पालन करना सब मनुष्यों के लिए आवश्यक है। इससे भिन्न क्षुद्रहृदयता, छल, अविद्या, स्वार्थसाधन तथा अधर्म से युक्त मनुष्यों द्वारा ईश्वर का जन्म लेना (अवतार होना), मृतकों को जिलाना, कोढ़ियों को चंगा करना, पर्वत उठाना, चन्द्रमा के टुकड़े करना आदि बातें प्रचलित कर रखी हैं- वे सब अधर्म हैं। उनसे परस्पर शत्रुता होती है, विरोध उत्पन्न होता है। सब प्रकार के सुख का नाश होता है, और सब प्रकार के दुःख उत्पन्न होते हैं यह हमने अच्छी प्रकार निश्चय कर लिया है। कब परमेश्वर की कृपा और मनुष्यों के प्रयत्न से इन बातों का नाश होकर सनातन आर्य्यो से सेवने योग्य, एक सत्यधर्म सब मनुष्यमात्र में प्रचलित होगा- हम ऐसी परमात्मा से प्रार्थना करते हैं। जब आप सज्जनों का पत्र आया था, तब मैं पञ्जाब देश के लाहौर नगर में था। उस स्थान पर भी आर्यसमाज के बहुत विद्वानों को आप सज्जनों के पत्र का अध्ययन करके अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ। मैं सदा एक स्थान पर नहीं रहता हूं इसलिये उसी पते से पत्र भेजना अच्छा होगा। यद्यपि काम की अधिकता के कारण मुझे अवकाश नहीं मिलता है, तो भी आप जैसे सत्यधर्म के बढ़ाने में प्रवृत्त तन-मन- धन से सबकी भलाई करने में स्थित, सत्यधर्म की उन्नति, और सब मनुष्यों को प्रेम करने में दृढ़ उत्साह से युक्त सज्जनों की इच्छा को पूर्ण करने के लिये मैंने अवश्य समय निकाल लिया है। ऐसा निश्चय जानकर परोपकार के लिये आप मेरे साथ और मैं आपके साथ पत्र व्यवहार सुख से करेंगे। बुद्धिमानों के लिये यही लेख पर्याप्त है।
श्री महाराजा विक्रम के सं० 1935, वैशाख कृष्ण 5, रविवार को यह पत्र लिखा ऐसा जानना चाहिये।
(दयानन्द सरस्वती)
[21.4.1878]
स्वस्ति श्रीयुतानवद्यगुणालङ्कृतेभ्यः सनातनसत्यधर्म्मप्रियेभ्यः पाखण्डमतनिवृत्तचित्तेभ्योऽद्वैतेश्वरो पासनमिच्छुभ्यो बन्धुवर्गेभ्यो महाशयेभ्यः श्रीयुतहेनरी एस् ओलकाटाख्यप्रधानादिभ्यः श्रीमन्मेडम एच् पी ब्लायाटस्क्याख्यमन्त्रिसहितेभ्यः थीयोजाफीकेलसोसाईट्याख्यसभासद्भयो दयानन्दसरस्वतीस्वामिन आशिषो भवन्तुतमाम्॥
शमत्रास्ति तत्र भवदीयं च नित्यमाशासे॥
यच्छ्रीमद्भिः श्रीमन्महाशयमूलजीठाकरशीहरिश्चन्द्रचिन्तामणितुलसीरामयादवज्याभिधानानां द्वारा पत्रं मन्निकटे सम्प्रेषितं तद्दृष्ट्वाऽत्यन्त आनन्दो जातः॥
अहो अनन्तधन्यवादाहैकस्य सर्वत्रैकरसव्यापकस्य सच्चिदानन्दानन्ताखण्डाजनिर्विकाराविनाशन्यायदयाविज्ञानादिगुणाकरस्य सृष्टिस्थितिप्रलयमुख्यनिमित्तस्य सत्यगुणकर्म्मस्वभावस्य निर्भ्रमाखिलविद्यस्य जगदीश्वरस्य कृपया पञ्चसहस्रावधिसंवत्सरप्रमितव्यतीतात् कालान्महाभाग्योदयेना समक्षव्यवहाराणामस्मत्प्रियाणां पातालदेशे निवसतां युष्माकमार्य्यावर्त्तनिवासिनामस्माकं च पुनः परस्परं प्रीत्युद्भवोपकारपत्रव्यवहारप्रश्नोत्तरकरणसमय आगतः। मया श्रीमद्भिः सहातिप्रेम्णा पत्रव्यवहारः कर्तुं स्वीक्रियते। अतः परं भवद्भिर्यथेष्टं पत्रप्रेषणं श्रीयुतमूलजीठाकरश्याख्यहरिश्चन्द्रचिन्तामण्यादिद्वारा मन्निकटे कार्य्यम्। अहमपि तद्द्वारा श्रीमतां समीपे प्रत्युत्तरपत्रं प्रेषयिष्यामि। यावन्मम सामर्थ्यमस्ति तावदहं साहाय्यमपि दास्यामि। भवतां यादृशं कृश्चीनाख्यादिसम्प्रदायेषु मतं वर्त्तते तत्र ममापि तादृशमेवास्ति। यथेश्वर एकोऽस्ति तथा सर्वैर्मनुष्यैरेकेनैव मतेन भवितव्यम्। तच्चैकेश्वरोपासनाकरणाज्ञापालनसर्वोपकारं सनातनवेदविद्याप्रतिपादितम् आप्तविद्वत्सेवितं प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धं सृष्टिक्रमाविरुद्धं न्यायपक्षपातरहितधर्म्मयुक्तमात्मप्रीतिकरं सर्वमताविरुद्धं सत्यभाषणादिलक्षणोज्ज्वलं सर्वेषां सुखदं सर्वमनुष्यैः सेवनीयं विज्ञेयम्। अतो भिन्नानि यानि क्षुद्राशयछलाविद्यास्वार्थसाधनाधर्म्मयुक्तैर्मनुष्यैरीश्वरजन्ममृतकजीवनकुष्ठादिरोगनिवारणपर्वतोत्थापनचन्द्रखण्डकरणादिचरित्रसहितानि प्रचारितानि सन्ति, तानि सर्वाण्यधर्म्ममयानि परस्परं विरोधोपयोगेन सर्वसुखनाशकत्वात् सकलदुःखोत्पादकानि सन्तीति निश्चयो मे। कदैवं परमेश्वरस्य कृपया मनुष्याणां प्रयत्नेनैषां नाशो भूत्वाऽऽय्यैः परम्परया सेवितमेकं सत्यधर्म्ममतं सर्वेषां मनुष्याणां मध्ये निश्चितं भविष्यतीति परमात्मानं प्रार्थयामि। यदा श्रीमतां पत्रमागतं तदाहं पञ्चालदेशमध्यवर्त्तिलवपुरे न्यवात्सम्। अत्राप्यार्य्यसमाजस्था बहवो विद्वांसः श्रीमतां पत्रमवलोक्यातीवा- ऽऽनन्दिता जाताः। नाहं सततमेकस्मिन् स्थाने निवसामि, तस्मात् पूर्वोक्तद्वारैव पत्रप्रेषणेन भद्रं भविष्यति॥ यद्यपि बहुकार्य्यवशान्ममावकाशो न विद्यते, तथापि भवादृशानां सत्यधर्म्मवर्धने प्रवर्त्तितशरीरात्ममनसां सर्वप्रियकरणे कृतैकनिष्ठानां सत्यधर्म्मोन्नत्या सर्वमनुष्यप्रियस्य कर्तृणां दृढोत्साहयुक्तानां श्रीमतामभीष्टकरणाय मयावश्यं समयो रक्षणीय:, इति निश्चित्य परोपकाराय भवन्तो मया सहाहं च श्रीमद्भिः सह सुखेन पत्रव्यहारं कुर्य्यामित्यलमतिविस्तरलेखेन बुद्धिमद्वरेषु॥
श्रीमन्महाराजविक्रमस्य पञ्चत्रिंशदुत्तरे एकोनविंशतितमे 1935 संवत्सरे वैशाख-कृष्णपक्ष 5 पञ्चम्यामादित्यवासरे पत्रमिदं लिखितमिति वेदितव्यम्॥
(दयानन्द सरस्वती)
नं० 130
पण्डित सुंदरलाल रामनारायण जी आनन्द रहो
विदित हो कि हमने ता० 25 मई को एक प्रूफशीट यहां से बंबई को भेजा था सो आज तक नहीं पहुंचा, यह गफलत पोस्ट आफिस की है और पहिले भी कई अंक वेदभाष्य के ग्राहकों के पास नहीं पहुंचाए ऐसा मालूम होता है कि यह काम चिट्ठीरसां आदि छोटे-2 आदमियों में से किसी-2 ने जो हमारी बात से चिड़ते हैं पक्षपात करके गुम कर दिये हैं अब प्रूफ भी ऐसे ही मारा गया और अब हम पोस्ट ऑफिस पर नालिश करेंगे, सो आपसे पूछते हैं कि तुम्हारी क्या सम्मति है और ऐसे प्रूफ वा बुकपोस्ट, और चिट्ठी आदि का पता पोष्ट ऑफिस में किस रजिस्टर में मिल सकता है और नालिश किस जगह करें बंबई में वा अमृतसर में, वा दोनों जगह से कहीं कर देवें, और हमारा नुकसान बहुत हुवा है कितने हर्जे की नालिश करें और क्या पैरवी करें जल्दी पत्र के देखते ही जवाब भेज दीजिये। और काशी के हिसाब-किताब के लिए चिट्ठी भेजी थी उसका क्या प्रबंध किया है॥
दयानन्द सरस्वती
अमृतसर
30 जू० [18]78
नं० 179
श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा, आनन्द रहो।
विदित हो कि हमने सुना है कि आपका इरादा संस्कृत पढ़ाने के लिये इंग्लैण्ड जाने का है, सो यह विचार बहुत अच्छा है। परन्तु आपको पहिले भी लिखा था, और अब भी लिखते हैं कि जो हमारे पास रहकर वेद और शास्त्र के मुख्य-2 विषय देख लेते तो अच्छा होता। अब आपको उचित है कि जब वहां जावें, तो जो आपने अध्य[य]न किया है, उसी में वार्तालाप करें। और कह देवें कि मैं कुल वेदशास्त्र नहीं पढ़ा, किन्तु मैं तो आर्य्यावर्त देश का एक छोटा विद्यार्थी हूं। और कोई बात वा काम ऐसा न हो कि जिससे अपने देश का ह्रास होवे, क्योंकि वे लोग संस्कृत पढ़ाने वाले की अत्यन्त इच्छा रखते हैं। इसलिये आपके पास सब तरह के पुरुष मिलने और बातचीत करने के कारण आवेंगे, सो जो कुछ उनके मध्य में आप कहैं, समझकर कहवें। और इस चिट्ठी का उत्तर हमारे पास भेज देवें। और श्री मोहनलाल, विष्णुलाल पंडित जी को हमारा आशीर्वाद कह दीजये। हम बहुत आनन्द में है।
हस्ताक्षर
दयानन्द सरस्वती
अमृतसर
15 जुलाई 1878
और पाद्री लोगों से भी बचे रहें, और अमरीका की चिट्ठी का नागरी में तर्जमा करके भेजा करें। इससे काम जल्दी चलेगा, और उनके पास आर्य्यसमाज बम्बई और पंजाब के नियमोपनियम का अंग्रेजी में तर्जमा करके भेज दीजये। जो कुछ आप बदलना मुनासिब समझें, बदल भी देवें, और हमको भी इत्तला दे दें।(पत्र में कटा हुआ है)
563
पण्डित श्यामजी कृष्णवर्म्मा आनन्द रहो।
विदित हो कि आपका पत्र मुम्बई से आया था, हाल मालूम हुआ। आपने वहां जाकर काम देखा ही होगा कि क्या प्रबन्ध है। और अब की वार भी वेदभाष्य के लिफाफे के ऊपर देवनागरी नहीं लिखी गई। जो कहीं ग्राम में अंग्रेजी पढ़ा न होगा तो अङ्क वहां कैसे पहुंचते होंगे और ग्रामों में देवनागरी पढ़े बहुत होते हैं इसलिये तुम बाबू हरिश्चन्द्र चिन्तामणि जी से कहो कि अभी इसी पत्र के देखते ही देवनागरी जानने वाला मुंशी रख लेवें कि जो काम ठीक ठीक हो, नहीं तो वेदभाष्य के लिफाफों पर किसी से रजिस्टर के अनुसार ग्राहकों का पता किसी देवनागरी [जानने] वाले से नागरी में लिखा कर टपास लिया करें। और तुम जाकर काम की खबरदारी करो कि वहां क्या हाल हो रहा है, और उनसे पुस्तकों का हिसाब भी जो कि अङ्क ग्राहकों के पास भेजे गये हों और जो उनके यहां मौजूद हों भिजवा दो। और बाबू साहब से कह दो कि जब वेद का प्रूफ भेजा करें तो उसके सा[थ] टाइटल पेज भी भेजा करें। और वहां के समाचार से बहुत जल्दी हम को पत्र द्वारा विदित कर दीजिये। मेरठ में आर्य्यसमाज हो गया है और हम 3 अक्टूबर को दिल्ली आ गये हैं। यहां पर कुशल है॥
हस्ताक्षर
दयानन्द सरस्वती
दिल्ली 7 अक्टू० [18]78
751
पंडित सुन्दरलाल रामनारायणजी आनंद रहो!
विदित हो कि पत्र आपका 20 नवम्बर का लिखा पुस्तकों की विल्टी सहित पहुंचा, और आज पुस्तकों का संदूक रेल पर से आ गया है, सो उसमें से नीचे लिखी पोथियां निकलीं, जो कि आप के नाम पर जमा कियी गईं।
संस्कारविधि – – 30
वेदभाष्यभूमिका मंत्रभाष्यसहित – – 20
सत्यार्थप्रकाश – – 15
आर्य्याभिविनय – – 20
वेदांतिध्वांतनिवारण – – 11
वेदविरुद्धमतखंडन – – 38
सत्यासत्यविचार – – 50
संध्योपासन – – 10०
आप खातिर जमा रक्खें, औ[र] सव प्रकार से कुशल है।
और आपने जो 15 सत्यार्थप्रकाश भेजे हैं, ये आप के पास कहां से आये हैं सो लिखिये। और आपने ये क्यों भेज दिये। इनकी विकरी तो हो ही नहीं सकती क्योंकि ये पूरे नहीं हैं। उत्तर भेजिये।
हस्ताक्षर
दयानन्द सरस्वती
अजमेर
27 नवम्बर 1878
937
पण्डित श्याम जी कृष्ण वर्म्मा आनन्द रहो!
विदित हो कि आप के पास एक पत्र पहिले भेजा गया है पहुंचा होगा, आज फिर लिखा जाता है कि तुम लिखो कि चौथा अङ्क वेदभाष्य का अब तक क्यों नहीं निकला और छापेखाने में आज कल क्या काम हो रहा है और बाबू साहब क्या करते हैं। दो दो महीने हो जाते हैं कि अङ्क नहीं निकलता, ग्राहक लोग बहुत तकाजा करते हैं। इस लिये तुम को लिखा है कि जल्दी लिख कर भेजो कि चौथे अङ्क के निकलने में क्या देरी है, हम कल दिल्ली से मेरठ आ गए हैं, यहां पर आठ नव दिन ठहरेंगे, फिर मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, रुरकी होते हुए चैत्र मास में हरिद्वार पहुंचेंगे सो जानना॥
उत्तर शीघ्र भेजो, हम बहुत आनन्द में हैं॥
मेरठ
17 जन० [18]79
हस्ताक्षर
दयानन्द सरस्वती
942
पण्डित श्यामजी कृष्ण वर्म्मा आनन्द रहो।
विदित हो कि 17 जन० को तुम्हारे पास एक पत्र भेजा गया है पहुंचा होगा, आज फिर लिखा जाता है कि तुम जल्दी वहां का हाल तलाश करके लिखो कि अङ्क हरिश्चन्द्र ने छपवाया है वा नहीं, वा छपवा कर रख छोड़ा है और हानि करना चाहते हैं इसका ब्योरा जल्दी लिख भेजो। और बाबू जी की प्रतिज्ञानुसार माघ महीना पूरा होने वाला है इसलिए तुम उन से अब वेदभाष्य का काम ले लो और पांचवां अङ्क तुम ही निकालो, और छापे वालों से इकरार लिखा लो कि हमारा काम मितीवार निकला करे और हम रुपया दूसरे महीने और हद तीसरे महीने तक चुकाते रहेंगे, और तुम रुपये पैसे का कुछ संदेह न करो, हम इसका प्रबन्ध ठीक ठीक कर देंगे और तुम विस्तारपूर्वक लिखो कि 150० वा 20०० कापी के छापने में कितना खर्च कम होगा, बाबू जी लिखते हैं कि 150० के छपाई में कुल 10०) कम होगा जिस में से 77॥) तो कागज ही के कम हुए फिर छपाई और बंधाई वगैरे का कुछ भी कम नहीं होता, इससे यह हिसाब तुम तलाश करके विस्तारपूर्वक लिखो। जो तुम को हजार काम भी हों तो उनको छोड़ कर इस पत्र के प्रत्येक [अ]क्षर का उत्तर लिखकर बहुत जल्दी भेजो॥ 2 और यहां मेरठ में कई एक धनाढ्य छापाखा[ना] कि [या] चाहते हैं, इसलिये इसका निश्चय करके लिखो कि टैप आदि के लेने में कितने रुपैये लगेंगे।
हस्ताक्षर
दयानन्द सरस्वती
मेरठ, 19 जनवरी [18]79
जिसे तुम ने मेरठ में फोटोग्राफ खींचने को कहा था, उस ने तैयार कर लिया है 5) भेज कर मंगा लो॥
राजा शिवप्रसाद जी आनन्दित रहो !
आपका पत्र मेरे पास आया, देखकर अभिप्राय जान लिया। इस के देख[ने] से मुझ को निश्चित हुआ कि आपने वेदों से लेके पूर्वमीमांसा पर्यन्त विद्या पुस्तकों के मध्य में से किसी भी पुस्तक के शब्दार्थ सम्बं[धों] को नहीं जाना है। इसलिये आपको मेरी बनाई भूमिका का अर्थ भी ठीक- 2 विदित न हुआ, जो आप मेरे पास आके समझते तो कुछ- 2 समझ सकते। परन्तु जो आपको अपने प्रश्नों के प्रत्युत्तर सुनने की इच्छा हो तो स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती वा बालशास्त्री जी को खड़ा करके सुनियेगा तो भी आप कुछ-2 समझ लेंगे। [क्योंकि वे आप को समझावेंगे तो कुछ आशा है समझ जायेंगे।] भला विचार तो कीजिये कि आप उन पुस्तकों के पढ़े विना वेद और ब्राह्म[ण] पुस्तकों का कैसा आपस में सम्बन्ध, क्या-2 उन में हैं और स्वत: प्रमाण तथा ईश्वरोक्त वेद और परतः प्रमाण और ऋषि मुनि कृत ब्राह्मण पुस्तक हैं इन हेतुओं से क्या – 2 सिद्धान्त सिद्ध होते और ऐसे हुए विना क्या – 2 हानि होती है इन विद्यारहस्य की बातों को जाने विना आप कभी नहीं समझ सकते।
सं० 1936 [1937] मि० वै० व० 7 सप्तमी शनिवार
दयानन्द सरस्वती
ता० 14 जुलाई सन् 1880
श्रीयुत प्रियवर एच् एस् करनेल ओलकाट साहेब तथा एच् पी ब्लेवस्तिकी जी आनन्दित रहो। नमस्ते। अब मेरा शरीर नीरोग हो के स्वस्थानन्द में है। आशा है कि आप लोग भी आनन्द में होंगे। सुना था कि आप लोग लंका अर्थात् सिलौन की यात्रा के लिये गये थे। वहां क्या-क्या आनन्द की बातें हुईं और कुशल क्षेम आए ही होंगे। मैं इस समय मेरठ में ठहरा हूं। एक मास भर रहूंगा। जैसा दृढ़ता से वेदों को परम पवित्र सनातन ईश्वरोक्त सब का हितकारी आप ने अपने नागरी पत्र में लिखकर काशी को मेरे पास भेजा था उस को देख मैं और समस्त विद्वान् लोग बहुत प्रसन्न हुए। सत्य है कि अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति जो धर्मात्मा विद्वान् पुरुष हैं वे जिस धर्म की बात को ग्रहण करते हैं उस को कभी नहीं छोड़ते। अब मैं जो थियोसोफीकल सुसायटी में वैदिकी शाखा है वह आर्य्यसमाज और थियोसोफीकल सुसायटी की भी शाखा है। न आर्य्यसमाज थियोसोफीकल सुसायटी की शाखा और न थियोसोफीकल सुसायटी आर्य्यसमाज की शाखा है; किन्तु जो इन दो समाजों के धर्म के सम्बन्धार्थ प्रेम का निमित्त वैदिकी शाखा है वही परस्पर सम्बन्ध का हेतु है। इत्यादि बातों की प्रसिद्धि जैसी आर्य्यसमाजों में मैं करूंगा वैसी प्रसिद्धि थियोसोफीकल सुसायटी में भी आप अवश्य करेंगे। इस बात का गुप्त रहना ठीक नहीं। क्योंकि आगे आर्यसमाज वैदिकी शाखा और थियोसोफीकल सुसायटी के सभासदों को, जैसा पूर्वोक्त सम्बन्ध है वैसा ही जानना, मानना, कहना और प्रसिद्धि करना सर्वदा उचित होगा, अन्यथा नहीं। ऐसी प्रसिद्धि हुए पर किसी को कुछ भ्रम न रहकर सुनिश्चय से सब को आनन्द होता जायेगा। और जो मैंने सिनट साहेब से कहा था वह ठीक है। क्योंकि मैं इन तमाशे की बातों को देखना दिखलाना उचित नहीं समझता। चाहे वे हाथ की चालाकी से हो चाहें योग की रीति से हों।
क्योंकि योग के किए कराये विना किसी को भी योग का महत्त्व वा इसमें सत्य प्रेम कभी नहीं हो सकता, वरन् सन्देह और आश्चर्य में पड़ कर उसी तमाशे दिखलाने वाले की परीक्षा और सब सुधार की बातों को छोड़ तमाशे देखने को सब दिन चाहते हैं, और उसके साधन करना स्वीकार नहीं करते। जैसे सिनट साहेब को मैंने न दिखलाया और न दिखलाना चाहता हूं, चाहे वे राजी रहें चाहे नाराज हों क्योंकि जो मैं इस में प्रवृत्त होऊं तो सब मूर्ख और पण्डित मुझ से यही कहेंगे कि हम को भी कुछ योग के आश्चर्य काम दिखलाइये, जैसा उसको आपने दिखलाया, ऐसी संसार की तमाशे की लीला मेरे साथ भी लग जाती जैसी मैडम एच् पी ब्लेवस्तिकी के पीछे लगी है। अब जो इनको विद्या धर्मात्मता की बातें हैं कि जिनसे मनुष्यों के आत्मा पवित्र हो आनन्द को प्राप्त हो सकते हैं उन का पूछना और ग्रहण करने से दूर रहते हैं। किन्तु जो कोई आता है मेडम साहेब आप हम को भी कुछ तमाशा दिखलाइये। इत्यादि कारणों से इन बातों में प्रवृत्ति नहीं करता न कराता हूं। किन्तु कोई चाहे तो उस को योग रीति सिखला सकता हूं कि जिस का अनुष्ठान करने से वह स्वयं सिद्धि को प्राप्त हो जाय।’ इस से उत्तम बात दूसरी कोई भी नहीं। मैं बहुत प्रसन्नता से आप लोगों को लिखता हूं कि जो आप ने ईसाई आदि आधुनिक मत छोड़, परम पवित्र सनातन ईश्वरोक्त वेदमत का स्वीकार कर, इसके प्रचार में तन मन और धन भी लगाते हो। और उस बात से अति प्रसन्नता मुझको हुई कि जो आपने यह लिखा कि कभी आप भी वेदों को छोड़ दें तो भी हम लोग उन को न छोड़ेंगे। क्या यह बात छोटी है ? यह परमात्मा की परम कृपा का फल है कि जिसने हम और आप लोगों को अपने वेदोक्त मार्ग में निश्चय पूर्वक प्रवृत्त किया है। उस को कोटि-कोटि धन्यवाद देना भी थोड़े हैं। जैसी उस ने हम और आप लोगों पर करुणा की है, वैसी ही कृपा सब पर शीघ्र करे कि जिससे सब लोग सत्य मत में चलें और झूठ मतों को छोड़ देवें। कि जैसा अपना आत्मा अत्यन्त आनन्दित है वैसे सब के आत्मा हों। और एक आनन्द की बात सूचना भी करता हूं कि जिस को सुन आप लोग बहुत आनन्दित होंगे। सो यह है कि एक वसीयतनामा 1- अठारह पुरुष जिन में अर्थात् एक आप और दूसरी ब्लेवस्तिकी और सोलह पुरुष आर्य्यावर्त्तीय आर्य्यसमाज के प्रतिष्ठित पुरुष हैं। इन आप सब लोगों के नाम पर पत्र और नियम लिख रजिष्टरी कराके आप और सब लोगों के पास शीघ्र पत्र भेजूंगा कि जिससे पश्चात् किसी प्रकार की गड़बड़ न होकर मेरे सर्वस्व पदार्थ परोपकार में आप लोग लगाया करें और मेरी प्रतिनिधि यह सभा समझ जावेगी।
इसलिए उस पत्र को आप लोग बहुत अच्छी प्रकार रखियेगा कि वह पत्र आगे बड़े बड़े कामों में आवेगा। किमधिलेखेन प्रियवरविद्वद्विचक्षणेषु।
सं० 1937 मि० श्रावण बदी 6 मंगलवार।
ता० 14 जुलाई सन् 1880।
(दयानन्द सरस्वती)
सेठ निर्भयराम जी आनन्दित रहो।
यह पत्र आपको आवश्यक समझकर इसलिये लिखा जाता है कि आप इसको उपसभा में सब लोगों को सुना देवें। मुंशी कालीचरण रामचरणजी के पत्र से विदित हुआ कि आप लोगों की पाठशाला मेंआर्य्यभाषा संस्कृत का प्रचार बहुत कम और अन्य भाषा अङ्गरेजी वा उर्दू फारसी अधिक पढ़ाई जाती है। इससे वह अभीष्ट जिसके लिये यह शाला खोली गई है सिद्ध होता नहीं दीखता। वरन आपका यह हजारहा मुद्रा का व्यय संस्कृत की ओर से निष्फल होता भासता है। हम ने कभी परीक्षा के कागजात वा आज तक की पढ़ाई का फल कुछ नहीं देखा। आप लोग देखते हैं कि बहुत काल से आर्य्यावर्त में संस्कृत का अभाव हो रहा है। वरन संस्कृतरूपी मातृभाषा की जगह अङ्गरेजी लोगों की मातृभाषा हो चली है। अङ्गरेजी का प्रचार तो जगह-जगह सम्राट् की ओर से जिनकी यह मातृभाषा है भले प्रकार हो रहा है। अब इसकी वृद्धि में हम तुम को इतनी आवश्यकता नहीं दीखती। और न सम्राट् के सामने कुछ कर सकते हैं। हां, हमारी अति प्राचीन मातृभाषा संस्कृत जिसका सहायक वर्तमान में कोई नहीं है। और यही व्यवस्था देखकर संस्कृत के प्रचारार्थ आप लोगों ने यह पाठशाला स्थापित की है। तो यह भी उचित कर्तव्य अवश्य है कि सदैव पूर्व इष्ट के सिद्धि पर दृष्टि रक्खी जावै। अब इसके साधनार्थ यह होना चाहिये कि कुल पठन पाठन समय के छः घण्टों में 3 घण्टे संस्कृत 2 घण्टे अङ्गरेजी और 1 घण्टा उर्दू फारसी पढ़ाई जाया करे। और प्रति मास संस्कृत की परीक्षा अन्य पण्डितों के द्वारा हुआ करे। और वे प्रश्नोत्तरों के कागजात हमारे पास भेजे जाया करें। अभी तक कुछ फल संस्कृत में इस शाला से नहीं लगा। सो इसलिये ऊपर जो कुछ लिखा गया उसको वर्ताव में लाओ तो अपने अभीष्ट के सिद्धि होने की आशा कर सकते हैं। किमधिकं सुज्ञेषु।
आजकल हम ऐसे देश में हैं जहां पर इस ऋतु के श्रेष्ठ फल अर्थात्आम पके तो दरकिनार कच्चे भी नहीं मिलते। उस ओर इसकी फसल कैसी हुई है। यदि वहां आम फले हों तो एक बार मुम्बईआम अथवा और प्रकार के जो तुम्हारी समझ में अच्छे हों दो सौ तीन सौ रेल द्वारा प्रबन्ध करके भेज दो। परन्तु वहां से गद्दर आम रवाने करना जिससे यहां [पर] ठीक-2 आन पहुंचें। यदि डाक गाड़ी में रख दोगे तो शायद ठीक रहेगा। हमारे पास जयपुर के मुकाम पर चूरू के सेठों के सरपंच का पत्र आया कि आप यहां पधारें। और लिखा है कि सांभर के रेलघर पर रथ, बहल और ऊंट इत्यादि सवारी भेज देवें अभी तो हमने उनको यही उत्तर लिख दिया है कि एक अच्छी वर्षा होने पर हम अजमेर से कहीं को रवाना हो सकेंगे। क्योंकि उदयपुर मेवाड़ की तरफ भी कुछ हमारे बुलाने का विचार हो रहा है। यदि उदयपुर को गये तो वह भी आप लोगों को विदित किया जायेगा। शायद इन दोनों स्थानों को जाने में आप से सवारी लेने की आवश्यकता नहीं दीखती। जब जरूरत होगी आपको लिखा जायेगा। पत्र का उत्तर देना। किमधिकम्।
हस्ताक्षर
दयानन्द सरस्वती
अजमेर
ज्येष्ठ कृष्णा 11 सं० 1938।
ता० 23 मई 1881 ई०।
[17 जनवरी 1883 ई०]
ओ3म्
संख्या 1॥
पंडित गौरीशंकर जी आनंदित रहो॥
पत्र आया समाचार जाना। जो तुमने लिखा सो ठीक है। कायस्थ और कारीगर लोग जो मन्त्रोपदेश चाहेते हों उनको (विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव) इस मन्त्र का उपदेश कर दिया करें। वेदों का अधिकार सब को है और जो उच्चारण करने में असमर्थ हों उनके लिये (नमः परमेश्वराय) इतना ही उपदेश कर देना॥
पहिले से हमको यह सन्देह था कि जितनी राजनीति वेदशास्त्रों के अनुकूल हम जानते हैं सो कदाचित् शरीर के साथ ही न जावे। सो इसका जानना अब सफल हुआ और हमारा चित्त भी सन्तुष्ट हुवा। यहां श्री दरबार महाराणा जी सब राजनीति को पढ़ते सुनते और आचरण भी यथोचित करते हैं॥
तुम्हारे समाज की अच्छी उन्नति सुनकर बड़ा आनन्द हुवा। शेष समाचार लिखने योग्य पश्चात् लिखा जावेगा। सब से हमारा आशीर्वाद कह देना॥
मिति पोष शुदी 10 बुधवार॥ संवत् 1939
(दयानन्द सरस्वती)
पूर्वोक्त पत्र श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज के हस्ताक्षरांकित पंडित गौरीशंकर निवास स्थान सूर्य्यपुर परगना बागपत जिला मेरठ के पास हमने अपने नेत्रों से देखा है॥ गौरीशंकरशर्म्मा॥