हमें वेदों के अध्ययन को प्रबल प्रोत्साहन देने और यह सिद्ध करने में कि मूर्तिपूजा वेद-सम्मत नहीं है, स्वामी दयानन्द के महान् उपकार को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। आर्यसमाज के प्रवर्त्तक वर्तमान जाति की मूर्खता और उसकी हानियों के विरुद्ध अपने अनुयायियों को तैयार करने के अतिरिक्त यदि और कुछ भी न करते, तो भी वर्त्तमान भारत के बड़े नेता के रूप में अवश्य सम्मान पा जाते।