श्रीमद्दयानन्दप्रकाश
अपनी वाणी और लेखनी के द्वारा अदभुत रस सृष्टि करने वाले स्वामी सत्यानन्द की एक ही कृति ऋषि दयानन्द का जीवनचरित- श्रीमदयानन्दप्रकाश उनके कृतित्व को अमर बनाने के लिए पर्याप्त थी। इसका प्रथम संस्करण महाशय राजपाल (अध्यक्ष, आर्य पुस्तकालय लाहौर) द्वारा 1975 वि. 1918 ई. में प्रकाशित हुआ।
इस जीवनचरित में जहाँ विषय प्रतिपादन में उत्कृष्ता देखी जाती है वहां रसपूर्ण भाषा और अभिव्यक्ति की मनोज छटा पाठकों के आकर्षण की प्रमुख वस्तु बनाई है। उनका गद्य काव्य की भांति रसपूर्ण है तथा सहृदय पाठकों में आनन्दमृत की वर्षा करता है। संस्कृत में तो गद्य को काव्य की कसौटी कहा गया है और स्वामी सत्यानन्द ने अपनी इस कृति के द्वारा ‘गद्यंकवीना निकषं वदन्ति’ की सूक्ति को चरितार्थ किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने जिस प्रकार अपने रामचरित मानस के द्वारा रघुनाथ गाथा को (भाष निबंधमंजुलमातनोति) सरस अवधी में निबद्ध किया उसी प्रकार स्वामी सत्यानन्द ने धीर प्रशान्त नायक ऋषिवर दयानन्द के जीवन कृत्त को अपनी भक्ति भाव पूरित लेखन शैली से अमर कर दिया। घटनाओं के चित्रण का कौशल तथा आलंकारिक भाषा एवं चमत्कापूर्ण शैली में लिखा यह ग्रन्थ स्वामी दयानन्द के भक्तों और अनुयायियों का कण्ठद्वार बना हुआ है। दयानन्दप्रकाश को पाठक समुदाय ने उत्साहपूर्वक अपनाया। परिणाम स्वरूप राजपाल एण्ड सन्स के अतिरिक्त अन्य प्रकाशकों ने इस कालजयी ग्रन्थ के अनेक संस्करण प्रकाशित किये।
9 अक्टूबर 1927 को जब आप महाशय राजपाल (प्रसिद्ध आर्य ग्रन्थ प्रकाशक) की लाहौर के अनारकली बाजार स्थित दूकान पर बैठे थे तो अब्दुल अजीज नामक एक मतान्ध मुसलमान ने इन्हें ‘रंगीला रसूल’ का प्रकाशक महाशय राजपाल समझ कर इन पर छूरे से हमला किया। स्वामीजी बच तो गये किन्तु उन्हें पर्याप्त समय तक चिकित्सा के अधीन रहना पड़ा।
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