ऋषि दयानन्द के प्राणहरण व अपमान की चेष्टाएँ
यह बात सर्वविदित है कि महर्षि दयानन्द सत्य के बड़े प्रबल उपासक एवं पोषक थे। जीवन भर उन्होंने बड़े से बड़े प्रलोभन को ठुकराकर सदैव सत्याचरण किया, सत्य का पालन किया। ऐसे में जिन पाखंडियों की आजीविका इस कारण बंद होने लगी तो उन्होंने महर्षि दयानन्द को अनेक प्रलोभनों आदि से रोकने की कोशिश की। जब महर्षि न रुके तो अनेक बार उनको डराने, धमकाने और अपमान करने का प्रयास किया गया। परन्तु सत्य के पुजारी महर्षि कहाँ रुकने वाले थे। फिर स्वामीजी के प्राणहरण की अनेक कुचेष्टा की गईं – चाहे वह विष द्वारा, चाहे विषधर फेंककर या ईंट-पत्थरों की वर्षा करके, लाठी-डण्डों के प्रहार द्वारा आदि-आदि।
महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द के यहाँ से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् ही समाज में फैली कुरीतियों, अन्धविश्वासों पाखण्डों के विरोध के साथ-साथ अनार्ष ग्रन्थों का भी विरोध प्रारम्भ किया था। अत: उनके प्राणहरण की चेष्टाएँ भी इस काल के बाद की ही हैं। स्वामीजी ने गुरु विरजानन्द की कुटिया अप्रैल 1863 में छोड़ी थी।
अप्रैल 1868 में स्वामीजी गडियाघाट (जो एटा जिले में सोरो के पास है) पहुँचे। वहाँ एकदिन एक उजड्डू ठाकुर अपने तीन साथियों के साथ तलवार एवं लाठी लेकर स्वामीजी को आघात पहुँचाने आये थे। कारण यह था कि सोरो चक्राङ्कितों का गढ़ था और महाराज उनका विरोध करते थे। उस समय बलदेव भक्त भी वहीं बैठे थे उन्होंने उसे रोका, परन्तु वह न माना और स्वामीजी के बराबर बैठ गया। स्वामीजी ने उसे समझाया पर वह न माना। स्वामीजी वहाँ से उठकर दूसरी मढी में जा बैठे। उस ठाकुर ने अपने आदमियों को संकेत किया कि वे बलदेव को पकड़ लें। जब वे लोग बलदेव गिरी की ओर लपके तो बलदेव (जो उण्डयेल जवान था) ने उनमें से एक का हाथ और एक का पैर पकड़कर वहीं गिरा दिया। इतने में अन्य लोग भी वहाँ आ गये और उन दुष्टों को पीटकर भगा दिया।
ज्येष्ठ सं० 1925 में स्वामीजी कर्णवास पधारे। कर्णवास के पास बरोली नाम का एक ग्राम है वहाँ के एक बडगूजर क्षत्रिय राव कर्णसिंह थे वे वृन्दावन के रङ्गाचारी के शिष्य थे, स्वामीजी द्वारा चक्राङ्कितों का विरोध करने पर कर्णसिंह स्वामीजी से अप्रसन्न हो गया और उसने स्वामीजी को मारने के लिये तलवार निकाल ली। महाराज ने उससे तलवार छीनकर पृथ्वी पर टेककर तोड़ दी और कहा कि कहे तो यह तलवार तेरे शरीर में घूँस दूँ। ठाकुर किशनसिंह भी वहीं उपस्थित थे और कहा कि अब यदि तूने महाराज के लिए एक शब्द भी कहा तो फौजदारी हो जायेगी। यदि तूने उपदेश नहीं सुनना है तो चला जा। कर्णसिंह घबराया और लज्जित होकर अपने डेरे पर चला गया।
यही कर्णसिंह शरद पूर्णिमा पर पुनः गङ्गा-स्नान को आया। पहली बार असफल होने पर इस बार उसने कुछ बैरागियों को उकसा दिया, परन्तु वे घबरा गये। अब उसने अपने सेवकों को तैयार किया। एकदिन रात्रि को कर्णसिंह के तीन सेवक स्वामीजी को मारने के लिए गये। आहट होने से स्वामीजी जाग गये। वे लोग डरकर भाग आये। कर्णसिंह ने फिर दुबारा भेजा इसबार फिर स्वामीजी जाग गये और उनकी हुङ्कार सुनकर घातक स्वामीजी के पैरों में गिर पड़े। इसी बीच कैथलसिंह जो स्वामीजी की सेवा के लिये नियुक्त था, बहुत से ठाकुरों के बुला लाया। ठाकुर किशनसिंह ने कर्णसिंह को ललकारा पर वह सामने नहीं आया। उसके ससुर ने भी कर्णसिंह को कहा कि यदि तुम्हारे दिन अच्छे हैं तो तुरन्त यहाँ से चले जाओ। वह अपने ससुर की बात मानकर वहाँ से चला गया।
कर्णवास से स्वामीजी शहबाजपुर गये। वहाँ दो बैरागी एक ठाकुर के पास तलवार माँगने आये कि इस गप्पाष्टक (स्वामीजी) का मूँड (सिर) काटेंगे। ठाकुर ने उन्हें धमकाया। ठाकुर गङ्गासिंह ने, जो कई गाँवों के जमींदार थे, ने भी उन लोगों को धमकाया।
फर्रुखाबाद में एक ज्वालाप्रसाद नामक मद्य एवं मांसाहारी ब्राह्मण था। एकदिन एक वाममार्गी उसे पालकी में डालकर स्वामीजी के पास ले गया। वह स्वामीजी के सम्मुख कुर्सी पर बैठकर उन्हें दुर्वचन कहने लगा। उसके व्यवहार से भक्त लोग दु:खी हुये और उसे पीट दिया। स्वामीजी को यह बात अच्छी नहीं लगी। इस घटना का पता लगने पर ज्वालाप्रसाद का सम्बन्धी 20-25 लठैतों को लेकर स्वामीजी को मारने को आया, परन्तु स्वामीजी के दर्शन करते ही उसका इरादा बदल गया। फर्रुखाबाद के लाला जगन्नाथ ने स्वामीजी को एक सुरक्षित स्थान पर रहने की सलाह दी। स्वामीजी ने कहा यहाँ तो आप मेरी रक्षा कर लेंगे, परन्तु अन्यत्र कौन करेगा। मैंने आज तक अकेले भ्रमण किया है, आगे भी करूँगा। कई बार मेरे प्राणहरण की चेष्टा की गई, परन्तु सर्वरक्षक परमात्मा ने सर्वत्र मेरी रक्षा की है भविष्य में भी वही करेगा, आप चिन्ता न करें।
फर्रुखाबाद में ही एक परसाद नायी गुजराती ब्राह्मण वहाँ के नामी गुण्डों में एक था। कुछ द्वेषी लोगों ने पैसों के लालच से उसे स्वामीजी को पीटने भेजा। वह मोटा लट्ठ लेकर स्वामीजी के पास गया। स्वामीजी के वार्तालाप से वह बड़ा प्रभावित हुआ और फिर आजीवन एक सदाचारी ब्राह्मण की तरह रहा।
एक दिन महाराज विश्रान्त घाट पर जल में पैर लटकाये बैठे थे कि कुछ शरारती लड़कों ने रेत के गोले बनाकर स्वामीजी को मारने शुरु किये, परन्तु वे चुपचाप गोले खाते रहे और लड़कों से कुछ नहीं कहा। अन्त में जब आँख में कुछ रेत पड़ गई तो वहाँ से उठकर अन्यत्र चले गये। (सम्भवतः यह पूर्वनियोजित चेष्टा नहीं थी)।
काशी में एक बार महाराज गङ्गा तट पर अर्द्ध निमलित चक्षु होकर बैठे बड़े मधुर कण्ठ से सामगान गा रहे थे। तभी वहाँ मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या एक अध्यापक के साथ पहुँच गये। थोड़ी देर पश्चात् स्वामीजी ने पण्ड्याजी एवं अध्यापक महोदय को वहाँ से चले जाने को कहा कि यहाँ उपद्रव होनेवाला है। वे जाने को ही थे कि कुछ लोग लाठी-ढेले लिये हुये वहाँ आ गये और महाराज पर ढेले फेंकने लगे। एक व्यक्ति ने आगे बढ़कर उनपर लाठी का प्रहार किया। स्वामीजी ने उसकी लाठी पकड़ ली और उसे गङ्गा में धकेल दिया।
फिर निकट के एक वृक्ष से एक शाखा तोड़कर प्रहार करनेवाले लोगों से बोले – आओ मित्रो, अब प्रहार करो। मुझे निरा साधु ही न मानना। उन्होंने कई पर प्रहार किया। वे लोग भाग गये। स्वामीजी गङ्गा में तैरने लगे। स्वामीजी कभी-कभी मालकाङ्गनी का तैल खाया करते थे और कहा करते थे कि इसे खाकर जल में बहुत देर तक रहा जा सकता है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इसे गोले के साथ खाने से स्मरण शक्ति बहुत बढ़ जाती है। ईंट फेंकनेवालों में पं० सूर्यकुमार शर्मा रईस, पुराना कानपुर भी था। वे हलधर के शास्त्रार्थ में स्वामीजी पर ईंट फेंककर आये थे। उनका स्वामीजी के प्रति द्वेष इतना बढ़ा था कि वे उनके (स्वामीजी) नाम से भी जलते थे। उनकी पुस्तकें जहाँ पाते फाड़ देते थे। मार्गशीर्ष सं० 1939 में उनका छोटा भाई स्वामीजी की कुछ पुस्तकें खरीद लाया। पण्डितजी उन्हें फड़वाना चाहते थे पर उनकी सुन्दरता देखकर उनका मन उन्हें पढ़ने को ललचा गया। मेला चाँदापुर का वृत्तान्त पढ़कर उनकी बुद्धि से अज्ञान का पर्दा उठ गया और वे स्वामीजी की युक्तियों से अत्यन्त प्रभावित हुये। सं० 1940 में आर्यसमाज की स्थापना जब उनके नगर में हुई तो वे उसके सभासद बने और अन्त तक स्वामीजी के प्रति श्रद्धालु बने रहे।।
कार्त्तिक शुल्क 12 सं० 1926 तदनुसार 16 नवम्बर 1869 को काशी का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ। विपक्षी पण्डितों ने काशी नरेश की शह पाकर हल्ला-गुल्ला मचा दिया और “दयानन्दः पराजितः ” कहते हुए काशी नरेश भी सभा से उठ गये। फिर क्या था, सारी सभा अनियन्त्रित हो गयी और स्वामीजी पर ढेले, गोबर, मिट्टी आदि की वर्षा कर दी। सारा आर्यजगत् काशी के तत्कालीन कोतवाल पं० रघुनाथप्रसाद का आभारी है जिन्होंने अपने कर्त्तव्य का पालनकर स्वामीजी की रक्षा की। यद्यपि वह मूर्त्ति – पूजक थे, परन्तु कर्त्तव्यपरायण, न्यायप्रिय भी थे। जब स्वामीजी पर गुण्डे ढेले, गोबर, ईंट आदि फेंक रहे थे, तब स्वामीजी ने पं० जवाहरदास उदासी को कहा कि आप निश्चिन्त रहें। ईश्वर मेरे साथ है मेरा कोई कुछ नहीं कर सकता।
महाराज वेद विरुद्ध सभी मतों का खण्डन करते थे। उनमें इस्लाम भी था। मुसलमान उनसे चिढ़ गये। एकदिन महाराज अकेले गङ्गा तट पर बैठे थे कि कुछ मुसलमानों की टोली टहलते-टहलते स्वामीजी के निकट पहुँच गई। उनमें से एक ने स्वामीजी को पहचान लिया और कहा कि यही वह बाबा है जो दीन इस्लाम के खिलाफ बोला करता है। इसपर दो व्यक्ति आगे आये और महाराज को अगल-बगल से उठाकर गङ्गा में फेंकने की चेष्टा करने लगे। महाराज उनके दुष्ट सङ्कल्प को जान गये। उन्होंने अपनी दोनों भुजाएँ इसप्रकार चिपका लीं कि दोनों युवकों के हाथ मानो शिकञ्जे में कस गये। उन दोनों को बगल में दबाये हुये ही स्वामीजी गङ्गा में कूद गये। वे चाहते तो दोनों को जलमग्न कर देते पर दया करके उन्हें छोड़ दिया और स्वयं जल में नीचे-नीचे तैरते बहुत दूर निकल गये। वे दोनों किसी प्रकार जल से बाहर आये और हाथों में ईंट लेकर स्वामीजी के जल से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगे। बहुत देर तक स्वामीजी नहीं आये तो उन्होंने समझा कि बाबा जल में डूब गया और चले गये। स्वामीजी महाराज रात्रि होने पर अपने स्थान पर आ गये।
काशी में ही एकदिन एक मनुष्य भोजन लेकर स्वामीजी के पास आया और भक्तिभाव का प्रदर्शन करके स्वामीजी से भोजन पाने की प्रार्थना की। स्वामीजी ने कहा कि मैं तो भोजन कर चुका आप करिये। वह व्यक्ति बोला अच्छा तो पान ही खालो। महाराज ने पान लिया खोलकर देखा तो व्यक्ति झटपट भाग गया। पीछे ज्ञात हुआ कि पान में विष था। इस घटना का वर्णन स्वामीजी ने अप्रैल 1878 में मुलतान में एक बङ्गाली सज्जन बाबू शरच्चन्द्र चौधरी से भी किया था।
स्वामीजी का शरीर बड़ा बलिष्ठ था वे 10- 15 गुण्डों के लिये अकेले ही पर्याप्त थे। एकदिन एक गुण्डा स्वामीजी के पीछे चला आ रहा था उसके इरादे अच्छे नहीं थे। स्वामीजी ने पीछे लौटकर हुङ्कार लगाई तो वह भयभीत होकर भाग गया।
मिर्जापुर में बूढ़े महादेव का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। उसका पुजारी छोटू गिरि बड़ा हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति था। मूर्त्ति पूजा के कारण वह स्वामीजी से द्वेष मानता था। एकदिन वह दुष्ट स्वामीजी के पास आया और उनसे बोला- बच्चा अभी तू कुछ पढ़ा नहीं है कुछ पढ़। वह स्वामीजी से दुष्टता करने लगा और बोला बच्चा हम तेरे गुरु हैं आज तुझे सब पता लग जायेगा। इसपर स्वामीजी खड़े हो गये और सिरहाने का पत्थर उठाकर बोले मूर्ख मुझे भय दिखता है यदि मैं ऐसे भयभीत होता तो देश-देश घूमकर कैसे खण्डन करता। इसके बाद जिला मजिस्ट्रेट ने स्वयं ही अथवा किसी सज्जन के अनुरोध पर स्वामीजी की रक्षा के निमित्त एक व्यक्ति को स्वामीजी के निवास स्थान पर पहरा देने के लिये नियत कर दिया।
मिर्जापुर में एक ओझा ठहरा हुआ था। उसने डींग मारी कि यदि कोई मुझसे मारण का पुरश्चरण कराये तो इक्कीसवें दिन दयानन्द की मृत्यु हो जायेगी। मूर्त्ति – पूजकों में मूर्खों की कमी नहीं थी। उनमें से एक धनी सेठ बोला चाहे जितना पैसा लो और पुरश्चरण करो। अभी तीन चार दिन ही हुये थे कि दैवयोग से सेठजी के गले में फोड़ा निकल आया। उसने ऐसा भयङ्कर रूप धारण कर लिया कि सेठजी का खाना-पीना, बोलना – चालना दूभर हो गया। सेठजी की पीड़ा बढ़ रही थी, ओझाजी की कढ़ाई चढ़ रही थी। एक दिन ओझा सेठजी से बोला कि बलि की सामग्री प्रस्तुत कराओ इधर मैं बलि दूँगा उधर दयानन्द की गर्दन गिर जायेगी। सेठजी बोले दयानन्द की गर्दन गिरे या नहीं मेरी जरूर गिर जायेगी तुम पुरश्चरण बन्द करो।
छोटू गिरि स्वामीजी से अपमानित होकर लौटा था उसके मन में द्वेष की ज्वाला जल रही थी। एकदिन उसने दो गुण्डे पुनः स्वामीजी के पास भेजे। स्वामीजी किन्हीं सज्जन से वार्तालाप कर रहे थे। गुण्डे बीच-बीच में व्यंग करते रहे व व्यवधान डालते रहे। स्वामीजी ने उन्हें डपटा। वे इतने भयभीत हुये कि उनका मल-मूत्र निकल गया और वे बेहोश हो गये। जल का छींटा देकर उन्हें होश में लाया गया।
जब स्वामीजी अनूपशहर में थे तब एक ब्राह्मण ने स्वामीजी के मूर्त्ति पूजा के खण्डन से रुष्ट होकर उन्हें पान में विष दे दिया। स्वामीजी को पता लगने से न्योली क्रिया द्वारा उसे अपने शरीर से बाहर निकाल दिया एवं स्वस्थ हो गये। वहाँ के मुसलमान तहसीलदार सैयद मुहम्मद को जो स्वामीजी का भक्त था इस घटना का पता चला तो उस ब्राह्मण को पकड़कर कैद में डाल दिया। स्वामीजी को जब इस घटना का पता चला तो बोले कि उस ब्राह्मण को छोड़ दो मैं संसार को कैद कराने नहीं, अपितु कैद से छुड़ाने आया हूँ। क्या ऐसा अनुपम एवं अनुकरणीय उदाहरण आपने अपने जीवन में कहीं दूसरा देखा है ?
एक दिन स्वामीजी ने अपने पूर्व परिचित भक्त बाबू रजनीकान्त से कहा कि एक दिन जब हम ध्यानावस्थित थे तो एक विपक्षी तलवार लेकर हमारा वध करने आया था परन्तु जब स्वामीजी ने हुङ्कार किया तो वह उठकर भाग गया।
कानपुर में जब स्वामीजी 20 अक्तूबर 1873 को आये तो वहाँ का शहर कोतवाल सुलतान अहमद स्वामीजी के व्याख्यान में बाधक बना। वह नहीं चाहता था कि स्वामीजी के व्याख्यान हों। उसके बढ़ावा देने पर मौलवी अण्ड-बण्ड बकने लगे। पण्डितों ने ईंट-पत्थर फेंककर स्वामीजी के प्राणहरण की चेष्टा की। इसमें कोतवाल का पूरा हाथ था, परन्तु तभी अंग्रेज पुलिस कप्तान वहाँ आ गये और आदेश दिया कि स्वामीजी के व्याख्यान यथापूर्व चलेंगे। हम स्वयं उपस्थित रहेंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि कोतवाल के कुकृत्य के विषय में पुलिस कप्तान को कुछ सन्देह हो गया।
अलीगढ़ में एक भङ्गेड़ी साधु स्वामीजी को गाली देने लगा। स्वामीजी ने पूछा कि गले में क्या पहने हो। उसने कहा रुद्राक्ष है। स्वामीजी ने पूछा कि क्या तुम रुद्र की आँख निकाल लाये हो। वह निरक्षर भट्टाचार्य क्या समझता कि रुद्राक्ष का क्या अर्थ है क्रोध में भरकर महाराज को गालियाँ देता रहा। कुछ देर बकझक कर चला गया।
वृन्दावन में एक मुंशी हरगोविन्द कट्टर पौराणिक था। वह उदण्ड एवं झगड़ालू प्रवृत्ति का था। उसने स्वामीजी के उपर खूब धूल डाली। स्वामीजी की सहनशीलता देखिये उन्होंने उसे कुछ नहीं कहा।
वृन्दावन में ही एक वैरागी ने स्वामीजी के प्राणहरण के लिये कुछ गुण्डों को 10००/- रूपये का लालच देकर यह कुकर्म करवाना चाहा, परन्तु सफल नहीं हुआ।
मथुरा में पं० देवीप्रसाद डिप्टी कलेक्टर ने स्वामीजी से कहा कि आप आज ठहर जाईये आज शास्त्रार्थ होगा। स्वामीजी ठहर गये। शास्त्रार्थ तो नहीं हुआ हाँ, चार-पाँच सौ चौबे लाठियाँ लेकर स्वामीजी को मारने आये। हल्ला सुनकर ठाकुर भूयालसिंह रिसालदार घबरा गये उन्होंने उस बाग़ का फाटक बन्द कर दिया जहाँ स्वामीजी ठहरे थे, परन्तु स्वामीजी तनिक भी नहीं घबराये। स्वामीजी के कुछ अनुयायी क्षत्रियगण भी संयोग से तभी आ गये। किसी भी चौबे का भीतर घुसने का साहस नहीं हुआ। पण्डित देवीप्रसाद के आने पर तो सभी भाग गये।
स्वामीजी के मुम्बई प्रवास (दिसम्बर 1874) के दौरान वल्लभ सम्प्रदाय के लोग स्वामीजी के परम शत्रु हो गये थे। एकदिन गोस्वामीजी ने स्वामीजी के पाक बलदेव को बुलाकर कहा कि तुम स्वामीजी की हत्या कर दो तो हम तुम्हें 10००/- रुपये देंगे। उसे तुरन्त पाँच रुपये और पाँच सेर मिठाई दे दी और 10००/- रुपये का रुक्का लिख दिया। अभी बलदेव जीवनी गुसाईं के पास ही खड़ा था। किसी ने स्वामीजी को सूचना दी कि आपका पाचक जीवनी के पास खड़ा है। जब वह लौटकर आया तो स्वामीजी ने सारा वृत्तान्त पूछा। पाचक ने सब बातें सत्य-सत्य बता दी। स्वामीजी ने कहा कि मुझे कई बार विष दिया है मैं मरा नहीं अब भी नहीं मरूँगा। बलदेव ने क्षमा माँग ली। स्वामीजी ने मिठाई फिंकवा दी, चिट्ठी फड़वा दी और उसे भविष्य में उनके यहाँ न जाने की हिदायत दी।
इसी प्रसङ्ग में एकदिन गोकुलिये गुसाईयों ने अपने अनुयायी कच्छी बनियों की बीस मनुष्यों की टोली स्वामीजी को पीटने के उद्देश्य से बालकेश्वर भेजी, परन्तु वे सफल नहीं हो सके।
कुछ दुष्टों ने स्वामीजी के वध के लिये घातकों को तय किया। वे बालकेश्वर में मौके की तलाश में रहते थे। स्वामीजी बलदेव को साथ लेकर समुद्र तट पर टहलने जाया करते थे। घातक लोग स्वामीजी का पीछा करते थे। एकदिन स्वामीजी की उनसे मुठभेड़ हो गई। स्वामीजी ने कहा कहो क्या इरादा है तुम हमें मारना चाहते हो। उत्तर में वे कुछ नहीं बोले और उन्होंने इसके बाद स्वामीजी का पीछा करना छोड़ दिया। स्वामीजी पूर्ववत् उसी सड़क पर टहलने जाते रहे।
वल्लभ सम्प्रदायवालों ने एकबार पुनः स्वामीजी के वध का यत्न किया। उन्होंने दो गुण्डों को दो सौ रुपये दिये। एकदिन वे दोनों रात्रि के समय स्वामीजी के कमरे में घुस गये। उस समय सेठ सेवकलाल स्वामीजी के पास बैठे थे। उन्होंने घातकों को पकड़ लिया। पूछने पर उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें स्वामीजी के वध के लिये दो सौ रु० दिये गये थे।
स्वामीजी के सूरत प्रवास में पण्डित इच्छाशङ्कर और कुछ अन्य शास्त्री स्वामीजी से शास्त्रार्थ करने के अभिप्राय से आगे आये, परन्तु स्वामी ने उन्हें निरुत्तर कर दिया। इतने में अन्धेरा होने लगा। सभा में दो-चार ईंटें आकर गिरीं। यह सब गेलाभाई एवं कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने स्वामीजी को अपमानित करने का सङ्कल्प किया था और उनकी योजना से ही ईंटें फेंकीं गईं थीं।
मुरादाबाद में नवम्बर 1876 ई० में स्वामीजी का मूर्त्ति – पूजा खण्डन पर व्याख्यान सुनकर एक टीका नामक ब्राह्मण इतना आवेश में आया कि स्वामीजी को गाली देने लगा और यह कहता हुआ कि यह दुष्ट हमारे देवताओं की निन्दा करता है, इसका मुख भी नहीं देखना चाहिए, चला गया। स्वामीजी ने उसकी गालियों पर कोई भी ध्यान नहीं दिया।
मार्च 1877 ई० में चाँदापुर में स्वामीजी ने बख्शीराम व मुंशी इन्द्रमणि को एक आपबीती व्यथा सुनाई थी। जब स्वामीजी एकाकी घूमते थे तो एकबार वे ऐसे स्थान पर पहुँच गये जहाँ सब शाक्त बसते थे। उन्होंने स्वामीजी की बड़ी सेवा सुश्रूषा की। कई दिन के बाद जब स्वामीजी चलने को हुये तो उन्हें आग्रहपूर्वक ठहरा लिया गया। स्वामीजी ने समझा ये ऐसा भक्तिभाव से कर रहे हैं।
एक दिन उनका पर्व आया। उस दिन सब लोग मन्दिर में गये। स्वामीजी को भी साथ ले गये। स्वामीजी की बहुत अनुनय-विनय की कि आप हमारे मन्दिर में चलो चाहे मूर्त्ति को नमस्कार मत करना। वह मन्दिर नगर से बाहर उजाड़ स्थान पर था। स्वामीजी जब मन्दिर में गये तो वहाँ एक बलिष्ठ व्यक्ति को नङ्गी तलवार हाथ में लिये खड़ा देखा। मन्दिर का पुजारी स्वामीजी से बोला कि महात्माजी दुर्गा माता के सामने शीश झुकाकर नमस्कार करो। स्वामीजी के मना करने पर पुजारी बलपूर्वक स्वामीजी की गर्दन को झुकाने लगा। स्वामीजी उसके इस बर्ताव से चौंके और समझ गये कि दाल में कुछ काला है। उन्होंने झपटकर उस व्यक्ति से तलवार छीन ली पुजारी को धक्का दिया तो वह मन्दिर की दीवार से जा लगा। स्वामीजी जब बाहर आये तो देखा कि मन्दिर के आङ्गन में लोग छुरी-कुल्हाड़ी आदि शस्त्र लेकर स्वामीजी पर टूट पड़े। द्वार पर ताला लगा हुआ था। स्वामीजी उछल कर दीवार पर चढ़ गये और कूद कर भाग निकले। दिनभर किसी सुरक्षित स्थान पर छिपे रहे। रात होने पर बचते-बचते किसी ग्राम में पहुँचे। उस दिन से स्वामीजी ने शाक्त लोगों पर कभी विश्वास नहीं किया।
काशी प्रवास के दौरान स्वामीजी एक पर्णकुटी में निवास करते थे। समीप ही कुछ साधुओं का भी डेरा था। वे साधु स्वामीजी से अकारण ही वैर रखते थे। एकदिन रात्रि के घोर अन्धकार में वे लोग स्वामीजी की पर्णकुटी के पास आये और स्वामीजी का वध करने का परामर्श करने लगे। स्वामीजी ने उनकी बातें सुनली। थोड़ी देर बाद उन लोगों ने कुटिया में आग लगा दी। जब वह जलने लगी तो स्वामीजी छप्पर उठाकर बाहर निकल आये।
एक दिन स्वामीजी महाराज काशी में व्याख्यान दे रहे थे कि एक ब्राह्मण ने उन्हें पान लाकर दिया। उन्होंने सरल स्वभाव से लेकर खा लिया। खाते ही उन्हें ज्ञात हो गया कि पान में विष था। तब उन्होंने वमन द्वारा विष को शरीर से बाहर निकाला दयानन्द प्रकाश के अनुसार उपरोक्त दोनों घटानाएँ स्वामीजी ने लाहौर में डॉक्टर रहीम खाँ की कोठी में लोगों को सुनाई थीं।
13 जनवरी 1878 ई० को स्वामीजी पञ्जाब राज्य के गुजराल शहर में पहुँचे। यहाँ एक नामी बदमाश जिसे लोग ” अन्धी का पुत्तर” (अन्धी का पुत्र) कहते थे स्वामीजी को बहुत अपशब्द कहता था। वह खुल्लम-खुल्ला कहता था कि मैं या तो दयानन्द को मार डालूँगा या उसकी नाक काट लूँगा। वह स्वामीजी पर बड़े अनर्गल आरोप लगाता था। पुलिस ने भी उसे डाँटा नहीं। मेहता ज्ञानचन्द और उनके साथियों को भय हुआ कि कहीं वह दुष्ट स्वामीजी का कुछ अनिष्ट न कर दे। अतः उन्होंने स्वामीजी को सावधान किया। स्वामीजी ने कहा कि तुम मेरा सोटा देखते हो मुझपर कोई आक्रमण नहीं कर सकता। मैं अकेला दस-बारह व्यक्तियों पर भारी हूँ। एकदिन स्वामीजी महाराज व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान के दौरान ही कुछ ईंटें मेज पर आकर गिरीं। स्वामीजी किञ्चित् भी विचलित न हुये और व्याख्यान देते रहे। व्याख्यान की समाप्ति पर अपने स्थान लौट आये।
एकदिन एक मनुष्य ने महाराज पर ईंट फेंकी, परन्तु वह स्वामीजी को लगी नहीं। पुलिसमैन उसको पकड़ लाया। उसने ईंट फेंकने से मना ही की। स्वामीजी ने उसे क्षमा कर दिया। स्वामीजी ने कहा कि हमारे साथ यह कोई नई घटना नहीं है। ऐसे लोगों को क्षमा कर दो और इन्हें सदुपदेश दो।
मैडम ब्लैवेट्स्की ने अपनी पुस्तक From the Caves and Jungles of Hindostan में लिखा है कि एक बार महाराज बङ्गाल में एक छोटे से ग्राम में शैवमत का खण्डन कर रहे थे। एक शैव ने काला नाग स्वामीजी के नंगे पैरों पर फेंका और कहा कि अब वासुकी देवता स्वयं ही प्रकट कर देगा कि कौन सच्चा है। सर्प उनकी टाँग पर लिपट गया। स्वामीजी ने झटके से उसे फेंककर अपनी एड़ी से कुचल डाला और शैव से कहा कि तुम्हारा देवता तो शिथिल रहा, मैंने ही इस विवाद का निर्णय कर दिया।
स्वामीजी ने एकबार मौलवी इमदाद हुसैन को बताया था कि एक दिन मैं (स्वामीजी) शौच करने बैठा था कि एक मनुष्य नंगी तलवार लिये मेरे पीछे आ खड़ा हुआ। मैंने उससे कहा कि मैं शौच से निवृत्त हो लूँ तब मेरा सिर काट डालना। इस पर वह राजी हो गया। जब मैं निवृत्त हो गया तब मैंने अपनी गर्दन उसके आगे झुका दी। इससे वह इतना प्रभावित हुआ कि बिना कुछ कहे ही मुझे छोड़कर चला गया।
19 अगस्त से 8 सितम्बर 1881 तक स्वामीजी रायपुर में थे। वहाँ के ठाकुर हरिसिंह जब स्वामीजी से मिलने आये तो स्वामीजी ने पूछा कि आपका मन्त्री कौन है। ठाकुर के यह बताने पर कि शेखबख्श इलाही है। स्वामीजी ने कहा कि आर्यपुरुषों को उचित है कि यवनों को राजमन्त्री न बनाएँ ये तो दासीपुत्र हैं। इसे सुनकर शेख का भतीजा करीम बख्श और अन्य 5-7 मुसलमान क्रोधित हो गये और स्वामीजी पर हमले का पड्यन्त्र करने लगे। बाद में स्वामीजी द्वारा समझाने पर यह मामला शान्त हो गया।
29 सितम्बर 1883 को स्वामीजी को जोधपुर में रात्रि के समय स्वामीजी के रसोइये धौड़ मिश्र ने स्वामीजी को दूध में विष मिलाकर दे दिया। यह विष स्वामीजी के लिये प्राणघातक सिद्ध हुआ और अन्ततः महर्षि दयानन्द 30 अक्तूबर 1883 मङ्गलवार को प्रभु की इच्छा व्यवस्था के अनुसार महाप्रयाण कर गये।