महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की शिक्षा-दीक्षा स्थली मथुरा नगरी में लाखों आर्य नर-नारियों ने अत्यन्त श्रद्धा, उत्साह और उमंग से महर्षि की जन्म शताब्दी मनाई थी। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी से फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, संवत् 1981 (15 से 21 फरवरी 1925) तक मनाया गया यह समारोह आर्यसमाज के निरंतर होते विस्तार एवं वैदिक विचारधारा की लोकप्रियता का प्रमाण था। इस समारोह में लगभग 4 लाख आर्यजन सम्मिलित हुए। यह वह सुवर्ण-युग था जब महर्षि दयानन्द द्वारा दीक्षित अनेकानेक संन्यासी विद्वान, नेता और नरेश उस सम्मेलन में सम्मिलित होकर महर्षि के चरणों में श्रद्धांजलि प्रस्तुत कर रहे थे। इस अवसर पर तीन दिनों में 18 महान् नेताओं के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाषण हुए थे।

महात्मा नारायण स्वामी

मुझे प्रसन्नता है कि आप लोग प्रेम सूत्र में बँधे हुए यहाँ पर शताब्दी मना रहे हैं। क्या आपको स्वामी जी के कार्यारम्भ करने से पहले भारत की दशा का पता है? यूरोप के लोग हिन्दुओं को ईसाई बनाने की चेष्टा करते थे। सन् 1616 ई० के लगभग एक पोर्चुगीज़ पादरी आया था। वह ईसाईयत का प्रचार करने के अभिप्राय से आया था। यदि तब लोगों के अन्तःकरणों में वेदों के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम होता तो संभव नहीं था कि वह अपने कार्य में सफलीभूत होता। उसने एक यजुर्वेद नामक पुस्तक बनाई और ब्रह्मचारी के वेष में प्रचार करना आरम्भ कर दिया। चूँकि लोग वेद की महिमा से अनभिज्ञ थे इस कारण उसे इस प्रकार से सहज ही में सफलता प्राप्त हो गई। लोग वेद के नाम पर अन्धे हो गए। 50० आदमी बलात्कार ईसाई बनाए गए और बाद में इनकी संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई। ईसाई लोग कई प्रकार से उन्नति करते रहे हैं। हिन्दू स्त्रियाँ ईसाइयों के पास जाती थीं और उन्हें नवजात बालक अर्पण करने की उनसे प्रतिज्ञा कर आती थीं। दयानन्द की शिक्षा ने जमाने की लहर को पलट दिया।
स्वामी दयानन्द ने बतलाया कि धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं, प्रत्युत सहायक हैं। इनमें ‘किस प्रकार’ और ‘क्यों’ का मार्ग है। साइन्स ‘किस प्रकार?’ का उत्तर देती है और धर्म ‘क्यों?’ का उत्तर देता है। जब तक ये दोनों न मिलें। इस प्रश्नों का उत्तर देना असम्भव है। दयानन्द ने समस्त यूरोप में यह आन्दोलन चलाया कि विज्ञान और धर्म भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं।
एक धार्मिक कान्फ्रेन्स में प्रश्न उपस्थित किया गया और एक लेख पढ़ा गया, जिसका आशय यह था कि ऐसा धर्म या मत वाञ्छनीय है जो ईश्वर और मनुष्य के बीच सीधा सम्बन्ध कराए और मार्फत की आवश्यकता न पड़े। हारवर्ड यूनिवर्सिटी के चान्सलर ने कहा कि समस्त मतों में एक ऐसे व्यक्ति की सत्ता है
जो ईश्वर और मनुष्य के साथ होती है। दयानन्द ने यह बतलाया कि आत्मा का परमात्मा के साथ सीधा सम्बन्ध होना चाहिए। यही वेदों में लिखा है। बाहर से अन्दर आओ न कि अन्दर से बाहर जाओ। नारहोन जो कि अमेरिका का एक बड़ा दार्शनिक था नित्यप्रति प्रातःकाल उठकर कहा करता था – “मैं गीतारूपी नदी में प्रतिदिन स्नान किया करता हूँ। जब यह जंगल में रहता था तब किसी प्रकार का भय नहीं था। इसने अहिंसा का साधन किया। इसकी बैलडन नामक पुस्तक पढ़िए, इसमें लिखा है कि वेद ही पढ़ने योग्य पुस्तक है। वस्तुतः दयानन्द के विचारों का संसार में साम्राज्य है। दयानन्द की शिक्षा का प्रभाव भारत के बाहर के देशों पर भी पड़ा। विदेशों में आर्यसमाजों की स्थापना हो गई है। स्वामी जी ने बाइबिल की त्रुटियों को दर्शाया। अमेरिका के पादरियों ने सन् 1934 में निर्णय करके कहा कि बाइबिल ईश्वरीय नहीं है। न्यूयार्क के लार्ड कैशन ने लिखा है कि मसीह खुदा का बेटा नहीं था। आज ईसाई लोग बाइबिल का भिन्न- 2 प्रकार से उल्था करते हैं। दयानन्द के किए हुए काम का यह प्रत्यज्ञ फल है।
अमेरिका में संस्कृत के चार बड़े प्रेस खुले हैं। दुनिया वेग के साथ आपकी ओर बढ़ रही है। आपको उनका सहर्ष स्वागत करना चाहिए। यहाँ से अधिक संख्या में इंग्लैण्ड और अन्य देशों में उपदेशक भेजने चाहिए | स्वराज्य – प्राप्ति के लिए प्रयत्न इतना फलवान नहीं हो सकता जितना कि विदेशियों की पब्लिक ओपीनियन बनाने के लिए। लाखों रुपया भारत के विरुद्ध अनेकानेक किम्बदन्तियाँ उड़ाने में व्यय किया जाता है। अच्छा हो कि हम वैदिक धर्म के कार्य को शीघ्रातिशीघ्र हाथ में ले लेवें। सभाएँ करें और लाखों पुस्तकें प्रकाशित की जावें। पुस्तकें ऐसी हों जिनमें प्रत्येक विषय पर सविस्तार बहस की गई हो। आपके पास “सत्यार्थप्रकाश” के अतिरिक्त विदेश में भेजने योग्य अन्य कोई पुस्तक नहीं है। आपने स्वामी जी की सेवा के लिए क्या त्याग किया है? जरा विचारिए तो सही। हे राम और कृष्ण की सन्तान ! वेदों के मानने वालो ! जागो। आज 40 वर्ष व्यतीत हो गए हैं। आपने कुछ भी नहीं किया। यों ही जय-जय की ध्वनि करने का क्या अर्थ है? अपने जीवन इस मिशन पर बलिदान कर दो। देखना, एक संन्यासी के शब्द यों ही न जाएँ।

स्वामी श्रद्धानन्द

वेदोपदेशदाता श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने, “व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्या सत्यमाप्यते।” मंत्र का पाठ कर इसी के आधार पर व्रत की महिमा बतलाई एवं ऋषि दयानन्द को आदर्श व्रती, दीक्षित, श्रद्धालु तथा सत्यनिष्ठ बतलाया। आपने कहा कि “जो व्यक्ति परमात्मा पर विश्वास करके और उसकी सहायता माँगकर कि, “अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि। हे भगवन् ! हमें व्रतों के पालन की शक्ति दो, इसी व्रत का अनुष्ठान ही सत्य पथ है जो कार्य करता है वही व्यक्ति धन्य है और उसी को गुरु दीक्षित करता है।
सच्चा व्रती हमारा आदर्श गुरु दयानन्द, स्वा० विरजानन्द ही से दीक्षित हुआ। भाग्य से जब मनुष्य उत्तम दीक्षा प्राप्त कर लेता है तब ही सच्चे पथ- प्रदर्शक को पा लेता है। उसको परमात्मा की सहायता मिल जाती है और तब वह दाक्षण हो जाता है। उसे कौशल प्राप्त हो जाता है और वह बड़ा प्रवीण हो जाता है। अपनी कुशलता से सब कुछ सुखकर बना लेता है। जिस व्यक्ति को दक्षता प्राप्त हो जाती है उसी को श्रद्धा मिला करती है। आत्मविश्वास तब ही होता है, जब मनुष्य दक्ष होता है। दक्षिणा से उस श्रद्धा के मिलने पर जिसकी महिमा उपनिषदों और गीता में सर्वत्र गाई है, “श्रद्धयावान् लभते ज्ञानम्”, श्रद्धालु ही ज्ञान प्राप्त करता है, ज्ञान ही अमृतत्व है, उस ज्ञान को प्राप्त करता है। वही उस परमतत्व सत्य स्वरूप अखिल जगन्नियन्ता के ज्ञान का अधिकारी होता है जो श्रद्धावान् होता है। अतः इस श्रद्धा द्वारा वह सत्य को प्राप्त कर लेता है। इसको प्राप्त करके सर्वदा उसकी विजय होती रहती है। कभी पराजय नहीं होती। आत्मविश्वासी जीवनसंग्राम में कभी पराजित नहीं होता। ऋषि का दृढ़ आत्मविश्वास उसको ‘सत्यमेव जयते नानृतम्’ के सिद्धान्त पर लगाए हुए था जिसके बल से वह कभी भयभीत न हुआ। लाख विरोध हुए। यह आत्मविश्वास, यह श्रद्धा उस अद्भुत कुशलता और योग्यता का फल थी जिसे ऋषि ने वीतराग विरजानन्द की दीक्षा से प्राप्त किया था और उस दीक्षा की योग्यता उस समय आई जब ऋषि का जीवन तपश्चर्या का और व्रतों का जीवन बन गया था।
हे आर्य पुरुषो! इस व्रत की महिमा को समझो और इस पर आचरण करो, व्रती बनो, दीक्षा प्राप्त करो, दक्षिणा प्राप्त करो। श्रद्धा प्राप्त करके सत्य लाभ करो।

स्वामी अच्युतानन्द

तमीडत प्रथमं यज्ञसाधं विश आरीराहुतमृञज्सानम्
अर्जः पुत्रं भरतं सृप्रदानुं देवा अग्निं धारयन् द्रविणोदाम्
ऋ० 1।96।3
यह मंत्र पढ़ने के बाद स्वामी जी ने कहा कि ये कैसे प्रिय शब्द हैं? वे सिखाते हैं कि परस्पर प्रेम करो, वैर विरोध मत करो। आपस में मित्रता का व्यवहार करो एवं शान्ति से, भगवान् जो सबको उत्पन्न करने वाला है, जिसने हमारा पालन-पोषण किया है और जितने जीव उत्पन्न होते जाएँगे उन सबका पालन-पोषण करेगा, ऐसा जो परमात्मा है, उसका गुणानुवाद करो। वही परमात्मा धन वैभव एवं आरोग्यता का देने वाला है। ” आपके धर्म की रक्षा हो और वृद्धि हो” ऐसा ऋग्वेद-संहिता का मन्त्र बतलाता है। यह कहता है कि हज़ारों मिलकर परमात्मा की स्तुति करें। हमारे ऋषि-मुनि एकान्त में बैठकर विचार किया करते थे तथा वन में बैठकर शान्ति पूर्वक ईश – चिन्तन किया करते थे, इसीलिए वेद में लिखा है कि 10०-50 भी इकट्ठे होकर परमात्मा का भजन किया करें। निषुक व्यापक भगवान का नाम है आप उसके कर्मों को देखें। जिस भगवान ने चन्द्र सूर्य को स्थिर किया उसकी आराधना अवश्य होनी चाहिए। जब हमारा परमात्मा से प्रेम हो जाए तब ही हमारा कल्याण है। सामवेद में लिखा है कि यदि सच्चा लीडर है तो केवल परमात्मा है और वही प्रभु सच्चा अर्थ बतलाने वाला है। इस युग में यदि कोई ऋषि हुआ तो वह स्वामी दयानन्द था। (हर्षध्वनि) सच्चे वेद का प्रकाश करने वाला दयानन्द है। वही हमारा लीडर है। कुछ वर्ष पहले वेदों का अर्थ समझना कठिन था परन्तु स्वामी दयानन्द वेद का अर्थ जानने वाला था और उसी ने प्रकाश डाला है कि आज हम वेदों के अर्थ को धड़ाधड़ समझ रहे हैं। मनुष्य कैसा ही संयमी हो परन्तु वह चलायमान हो जाता है। बोम्बे मेल (Bombay Mail) भी 10 मिनट लेट हो जाती है परन्तु परमात्मा की घड़ी कभी लेट नहीं हो सकती। वेदों को पढ़कर परमात्मा की भक्ति किया करो। सारे कष्टों दूर करने वाला वही एकमात्र परमात्मा है। हम इतने दुःखी हैं तो अवश्य ही स्वदुःख निवारणार्थ हमें परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। यदि हम सुखी हैं तब भी परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए।
अतः वेद भगवान ने लिखा है कि उस भगवान के मित्र बन जाओ। जिस प्रकार मित्र रक्षा करता है उसी प्रकार वह परमात्मा भी तुम्हारी रक्षा करेगा।
धर्म और धन क्या है? ज्ञान धर्म है। आचरण धन है। इसलिए यदि आप सब प्रकार के धन चाहते हैं तो स्वामी जी के आदेश का पालन करें। ब्रह्मचर्य पालन करें जिससे आपके शरीर में बल आए और आप अपनी रक्षा कर सकें। यह न हो कि हमारे भाइयों और बहिनों का अपमान होता रहे और हम उसे देखते रहें। ब्रह्मचर्य के साधन से परमात्मा भी प्राप्त हो सकता है। भगवान ने कहा है “तुम ब्रह्मचारी बनो जिससे यदि घर में मृत्यु भी आए तो तुम उसको बाहर निकालने में समर्थ हो।” इसलिए बल के लिए परमात्मा की प्रार्थना करो। वह परमात्मा सर्वशक्तिमान है। वही सब कुछ देने वाला है। वेद में लिखा है कि वेद को सुनकर परमात्मा बड़ा प्रसन्न होता है। यदि आप दुष्कर्म करेंगे तो वह अप्रसन्न होगा। आप जानते हैं कि यदि पुत्र-पुत्री सुकर्म करते हैं तो माता-पिता प्रसन्न होते हैं। विपरीत इसके कुकर्म करने पर उन्हें दुःख होता है। उसी प्रकार माता-पिता परमात्मा है। हमारे यहाँ लिखा है कि परमात्मा ही माता और पिता है। ईसाइयों के यहाँ परमात्मा को माता नहीं मानते हैं। परमात्मा के ज्ञान से हमारा लाभ हो सकता है। इसीलिए भगवान की भक्ति करके उसको प्राप्त करो। इसीलिए हमारे पूज्यपाद स्वामी जी ने कहा है कि वेद का पढ़ना और पढ़ाना हमारा धर्म है। समस्त संसार में वेदों का प्रचार करने के लिए हमको भरसक प्रयत्न करना चाहिए। हम समस्त संसार के रक्षक हों न कि भक्षक। सज्जनो ! इसलिए नित्यप्रति वेद पाठ किया करो। मनुष्य प्रार्थना करता है कि उसके सब संताप दूर हो जाएँ। असली तापों को दूर करने वाला वेद है। अतः वेद मन्त्रों को पढ़ो तथा दूसरों को पढ़ाओ, यही हमारा मुख्य धर्म है। यह आपका धर्म है कि वेदों को पढ़कर, उन्हीं के अनुकूल अपना वैदिक जीवन बनाएँ इसी में आपका हित है। वेद का कभी भी परित्याग न करो। यदि ऐसा करोगे तो अशुद्ध हो जाओगे। लिखा है कि यज्ञ, तप, दान आदि जितने कर्म हैं उनमें वेद का ज्ञान सबसे प्रधान है। अतः वेद का प्रचार करो। सबसे मुख्य बात यह है कि इसका अर्थ हमको ज्ञात हो जाना चाहिए। ज्ञान सर्वोत्तम है। अतः ज्ञान की अधिक महिमा लिखी है। ऐसा न हो कि कर्म करते – 2 ज्ञानहीन हो जाएँ। भाइयो! जो वेद जानेगा वही परमात्मा को समझ सकेगा।
इसलिए महर्षि ने कहा है कि वेद का पढ़ना-पढ़ाना आर्यों का मुख्य धर्म है। इस पर उन्होंने अधिक जोर दिया है। सच्चा धर्मात्मा वही है जो वेद का पठन पाठनकरता है।
हिंदू जाति मर रही है। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं हो रहा, कभी पुत्र तोकभी पुत्रियों को कष्ट होता है। आप चाहें तो संयम से 10० वर्ष तक जी सकते हैं। परन्तु आज सब 60-70 वर्ष की आयु के बाद ही खटियों पर पड़ जाते हैं। बाल-विवाह हो रहा है। वृद्ध-विवाह हो रहा है। बहुत-सी बातें हैं। मैं क्या कहूँ? इसलिए आप सच्चे आर्यसमाजी बनकर समाज की महिमा बढ़ाते हुए इन सब बातों पर आचरण करें।
यह शताब्दी स्वामी दयानन्द का स्मारक है। उनका स्मारक क्या हो सकता है? संन्यासी लोग बैठकर काम करें। कन्या पाठशालाएँ स्थापित की जाएँ। वेद पढ़ें तथा दूसरों को पढ़ावें। संन्यासाश्रमों को स्थापित करना संन्यासियों का धर्म है। इसलिए लिखा है कि वेद का धर्म परम धर्म हैं। स्वामी जी ने कहा है कि कोई आश्रम बुरा नहीं है। अतः भाइयों ! प्रतिदिन वेदाध्ययन किया करो। आर्यसमाज में प्रति दिवस वेद का पाठ होता रहे। जिस प्रकार भोजन करने की प्रतिदिन आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार वेद पाठ करने की भी प्रतिदिन आवश्यकता पड़नी चाहिए। जहाँ-जहाँ इस प्रकार की संस्थाएँ विद्यमान हैं वहाँ-वहाँ वेद पढ़ने वाले नियुक्त किए जाएँ। वेद में लिखा है “हे परमात्मा ! हमारे समीप जो महात्मा रहें उनको धैर्य प्रदान करो। उनका दैनिक सत्संग परमावश्यक है, नित्य प्रतिवेद पाठ होना चाहिए।” सांसारिक कार्य सम्पादन करते हुए भी आप लोग इसके लिए 1 घंटा प्रतिदिन निकाल लें। मैं अन्त में कहूँगा कि जितने आर्य पुरुष एवं आर्य ललनाएँ इस समय यहाँ उपस्थित हैं वे सब प्रतिज्ञा करें कि हम वेद पढ़ा करेंगे तथा अपने जीवन को वैदिक जीवन बनाएँगे। अपना जीवन पवित्र बनाएँगे और आर्य जाति की रक्षा करेंगे। मैं उस परम शक्तिशाली परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि हे परमात्मन्! आप इन आर्य पुत्र-पुत्रियों को शक्ति दें, बल दें, एवं सबको सुखी करें।
ओ3म् शान्ति ! ओ3म् शान्ति !! ओ3म् शान्ति !!!
(स्वामी दयानन्द की जय ! ऋर्षि दयानन्द की जय !)

स्वामी गंगागिरी

गीता में आता है कि जब-जब धर्म की ग्लानि होती है तब कोई-न-कोई पुरुष ऐसा आता है जो उसको उठाता है। धार्मिक भाव भारत से उठ चुके थे, धर्म का पहला साधन वेद-प्रचार भारत से दूर हो चुका था, धर्म का दूसरा मूल कारण आश्रम-व्यवस्था एक प्रकार से भारत से उठ गई थी, इसी प्रकार वर्ण-व्यवस्था भी नष्ट हो चुकी थी। देव पूजन, ईश्वरोपासन के भाव भी मिट चुके थे। लोगों के मनगढ़न्त ईश्वर कायम हो चुके थे। इन्हीं समस्त बुराइयों को दूर करने के लिए महर्षि दयानन्द का जन्म हुआ था।
मनु जी महाराज ने धर्म की चार कसौटियाँ बतलाई हैं। जो व्यक्ति इन चारों पर ठीक उतरे उसी को धार्मिक व्यक्ति समझना चाहिए। विद्या धार्मिक पुरुष में ही पाई जाती है। विद्वान होने के साथ-ही-साथ वह सदाचारी भी होता है। जो व्यक्ति मन, वचन और कर्म में समान हो उसी को सदाचारी समझना चाहिए। स्वामी दयानन्द इस कसौटी पर पूरे उतरे। आज हम 10 पुरुषों के विरुद्ध बोलने का साहस नहीं कर सकते परन्तु स्वामी जी को पद – पद पर शत्रुओं का सामना करना पड़ा और उन सब पर वे विजयी ही रहे। वे सच्चाई पर दृढ़ थे। उनमें अभिमान का लेषमात्र भी भाव न था। अमृतसर में संस्कृत बोल रहे थे, मुख से एक अशुद्ध शब्द निकल गया। एक लड़के ने कहा- “महाराज ! आपने इस शब्द का अशुद्ध प्रयोग किया है।” इस पर स्वामी जी उत्तर देते हैं, “भद्र ! हाँ, यह मुझसे भूल हुई है।” अहा ! तनिक भी अभिमान नहीं ! यह शताब्दी ऐसे ऋषि की है जिसकी भारत को बड़ी आवश्यकता थी। यह उसी का पुण्य, तप और तेज है कि लोग खिंचे चले आ रहे हैं। हमें समस्त संसार में इस ऋषि का सन्देश पहुँचाना है। यह ऋषि सब कसौटियों पर पक्का उतरा हुआ ऋषि था। आपका और हमारा कर्तव्य है कि इस महान आत्मा के दिए हुए उपदेशों को देश-देश, दिशा-दिशा में ले जावें। स्वामी जी ने हमें एक ईश्वर का पूजन बताया। माता- -पिता, गुरु और विद्वानों को देव बताकर उनके पूजन का उपदेश किया। वेद के सच्चे अर्थों का प्रकाश किया। धर्म के सच्चे अंग वर्णाश्रमों की उचित व्यवस्था की। अनाथों और विधवाओं की पुकार सुनी। अतः आप लोग उनके मन्तव्य को देश – देश में ले जाएँ।

स्वामी मुनीश्वरानन्द

सज्जनो !
आप लोग छोटी-छोटी बातों के लिए इतने परेशान हैं। उस ऋषि की महत्ताएवं दूरदर्शिता पर तो विचार करें कि वह कैसा स्पष्ट प्रश्न हमारे सामने रखता है। “विवाह माता-पिता के अधीन हो वा वर-वधू के?” उत्तर- “वर-वधू के, माता पिता की सम्मति से।” इसी प्रकार ऋषि ने समस्त शुभ बातों का विधान हमारे सम्मुख रख दिया है। दयानन्द के उपकारों और सुधारों का अनुमान इससे ही हो सकता है कि आप लोग उस सुधारक से पहले की गिरी हुई दशा का विचार करें। स्थान-स्थान पर बलिदान दिए जाते थे, देखिए और विचारिए ! ये कैसे भयानक होते थे। परन्तु उस वीर ने निर्भयतापूर्वक उनका खण्डन किया। उनका पहला शास्त्रार्थ घर पर अपने पूज्य पिता जी से ही होता है। उसमें पिता जी निरुत्तर हो गए और उनकी हार हुई। वे पिता जी के समान सबको हराते हुए चले गए। उन्होंने आर्यों से विशेष रूपेण कहा, “मांस न खाओ, मद्यमांस का त्याग करो। वेदों की शिक्षा घर-घर फैलाओ।” वेदोपदेश में हिंसा की बू नहीं। स्वयं ऋषि का जीवन एक आदर्श जीवन था। वह मरते-मरते भी पाठ पढ़ा गए। उन्होंने बतलाया कि किस प्रकार जीना चाहिए और किस प्रकार मरना चाहिए। पहला वीर जिसने इनकी शिक्षा को ग्रहण किया तथा कार्य में परिणत किया लेखराम था। वह आर्य वीरों की मौत मरा। एक वह मरना है। मरते-मरते कहते हैं- “अल्ला बचाओ!” एक वह मरना है। वह मरते-मरते कहता है- “ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।”
शोक का स्थान है कि उसी के शिष्य आपस में लड़ते और उसकी शिक्षा के विरुद्ध आचरण करते हैं। बाल ब्रह्मचारी पाखण्ड का खण्डन करने वाले दयानन्द बतला गए हैं, “जो संन्यासी होकर भी पाखण्ड का खण्डन और सत्य का मण्डन न करे वह संन्यासी ही नहीं है बल्कि पृथ्वी के लिए भार रूप है।” सच्चे संन्यासीने ऐसा कहा ही नहीं बल्कि किया भी था।
महाराज जोधपुर के दरबार में उसने बेधड़क होकर कहा- “शेर, शेरनी से समागम करके शेर पैदा किया करते हैं, अब शेर कुतिया से कुत्ते पैदा करेंगे।” यही एक शब्द पीछे उनका घातक बना। परन्तु वह जानबूझकर एक पग भी पीछे न हटा। आज स्वामी दयानन्द का नाम लेने वाले वेश्याओं का नाच देखते हैं, ऐसा भविष्य में कोई न करें। और स्वामी दयानन्द की जय के साथ आपके मुख से समस्त दोष निकल जावें।
स्वयंवर के विषय में बोलते समय म० राजेन्द्रपाल की इस आपत्ति पर “स्वामी जी पहले उस समय को तो लाइए जब माता-पिता की आज्ञा की आवश्यकता न रहे।” स्वामी जी ने कहा – “वह शुभ समय आ गया है।”
रात्रि बहुत हो गई थी इस कारण लोगों के सुनने के लिए तैयार होते हुए भी स्वामी जी ने जय ध्वनि के बीच अपना व्याख्यान समाप्त किया।

स्वामी सत्यानन्द

देवियो व आर्य सज्जनो !
अपने अन्त:करण को शुद्धि के लिए भगवान की भक्ति की आवश्यकता है। जब तक मन पवित्र नहीं होता तब तक इसमें बल नहीं आता ! जीवन-संग्राम में विजय पाने के लिए शारीरिक बल ही नहीं, मानसिक बल की भी परमावश्यकता है। भगवान दयानन्द ने मानसिक बल का ही उपार्जन किया था। आज 4 लाख के लगभग नर-नारी दयानन्द के शारीरिक बल के द्वारा ही नहीं, प्रत्युत उसके अलौकिक मानसिक बल और दिव्य ज्ञान – ज्योति के द्वारा ही द्वारा ही यहाँ आकर्षित हो रहे हैं। उसने ईश-भक्ति के द्वारा अपने अन्तःकरण को बलि बना लिया था। उसका मन पवित्र था।
मनुष्य को मनोबल प्राप्त्यर्थ और विचारों की निर्मलता के लिए सदैव यत्न- शील होना चाहिए। विचार – शक्ति से पारस्परिक ऐक्य एवं व्यक्तिगत आन्तरिक सौहार्द का जन्म होता है। हृदय – तन्त्री एक सुरीला राग गाती है। आनन्द का उद्वेग होता है। धारणा के द्वारा मनुष्य को इस आनन्द को प्राप्त करना होगा। धारणा अपने भीतर ही होती है। धारणा की प्राप्ति चित्त वृत्तियों की एकाग्रता पर निर्भर होती है। इससे नीति एवं विनयशीलता की प्राप्ति होती है। ये ही दोनों जय के साधन हैं। आज आप ‘दयानन्द की जय’ के नारे लगाते हैं, परन्तु जय के लिए इन दोनों की प्राप्ति परमावश्यक है। दयानन्द की वास्तविक ‘जय’ वेद – रक्षा और आर्य संस्कृति रक्षा के अन्तर्गत है।
हमारे जीवन का लक्ष्य सदा उच्च होना चाहिए। हमारा जीवन प्रभु की उपासना द्वारा बुद्धि की शुद्धि के लिए है। हमारी सभ्यता में बुद्धि का स्थान उच्चतम है। इसी से जय होती है। गायत्री मन्त्र में बुद्धि की शुद्धि और पवित्रता ही माँगी गई है। इसी के द्वारा दयानन्द ने विजय पाई थी। पूजा वा उपासना का दूसरा फल सत्क्रियाओं का विकास है। मनुष्य शुभ कर्म करने के लिए ही उत्पन्न हुआ है। इसका तीसरा फल श्रुति – रक्षा है| वेद के गूढ़ातिगूढ़ तत्वों का उसे ही ज्ञान होता है जो विषयों से परे भगवद्-भक्ति में लवलीन है। इसका चतुर्थ फल दृष्टि की रक्षा है। नेत्र शक्ति का इससे विकास होता है। “श्रुताय च दृशाय च” के मूल सिद्धान्तों को जो भगवान की उपासना से प्राप्त करता है वही सफल होता है। इस उच्च लक्ष्य की पूर्ति करो और अपने जीवन को पवित्र बनाओ।
आज आप यहाँ शताब्दी मनाने की खातिर जमा हुए हैं और यहाँ से आपको कोई प्रसाद लेकर जाना चाहिए। स्वामी जी की शिक्षा का भाव प्रबल रूप से धारण करके जाना चाहिए। महापुरुष जातियों को पैदा करने की खातिर आया करते हैं। महाराज ने हम पर बड़ा उपकार किया है जो हमारे सामने एक उद्देश्य रखा है। आर्यसमाज का हिन्दू धर्म में जो संगठन हुआ है उसकी एक विशेषता यह है कि उसमें क्रिया को धर्म रूप में माना गया है। कोई कह सकता है कि वैष्णव आचार्य भी ऐसी ही शिक्षा देते हैं। परन्तु उनकी शिक्षा में वह पवित्रता न रही। अगर प्रीति विलास का रूप धारण कर ले तो वह अपवित्र हो जाती है। उन्होंने जिस प्रेम का प्रचार किया है वह विलास के कीचड़ में पड़कर गन्दा हो गया है। ऐसे प्रेम ने हिन्दू जाति को क्या शिक्षा देनी थी, हिन्दुओं को इसने क्या जीवन देना था? ऐतिहासिक सज्जन इस बात को जानते हैं कि यह प्रेम हिन्दू जाति को हर तरह गिराने वाला साबित हुआ है। क्षात्र धर्म क्यों गिरा ? क्योंकि क्षत्रियों में से कर्म-धर्म मिटते चले गए। मैं समझता हूँ कि बौद्ध फिलासफी ने भी हिन्दू जाति को बहुत कुछ नुकसान पहुँचाया है। स्वामी जी ने बतलाया है कि इहलोक और परलोक दोनों को बनाने वाला धर्म ही है। वेद जो प्रेरणा करता है वही धर्म है और उसी से मुक्ति मिलती है। महाराज के उपदेशों और शिक्षाओं में यह विशेषता है कि उन्होंने पुराने धर्म को पुनर्जीवित कर दिया है। वेद मुक्ति, कल्याण सब कर्मों को मानता है और वेद के मानने से ही आर्य जाति का कल्याण है।

स्वामी स्वतन्त्रतानन्द

आपने कहा कि ‘मोक्ष’ के दो ही मार्ग हैं। एक ज्ञान का, दूसरा कर्म का। वेदानुसार दोनों समन्वित साधन है। काशी के अजामेध यज्ञ में बाल शास्त्री भी सम्मिलित थे, भले ही उन्होंने मांस नहीं खाया, परन्तु लोग इसे ही उनकी मृत्यु का कारण ठहराते हैं। इसी प्रकार यदि कोई मन्तव्य तो रखता हो परन्तु कर्त्तव्य न करता हो तो फलभागी नहीं हो सकता है। मनु ने पाँच प्रकार के चांडाल बतलाएहैं।हिंसक, मद्यप चोर, व्यभिचारी तथा इनसे सम्बन्ध रखने वाला। भाइयो, केवल प्रार्थना करने वाला और तदनुसार कर्म न करने वाला भांड होता है। अतः कर्मशील होना चाहिए।

पं० बुद्धदेव विद्यालङ्कार

सभ्य महोदयी, देवियो तथा भद्र पुरुषो!
मैं आज अपने हृदय के अन्दर उठने वाले भावों का वर्णन नहीं कर सकता। जिस विषय पर मुझे कहना है उसे ही कहूँगा। आज एक वृहत् यज्ञ का आरम्भ होता है। इसलिए यज्ञ पर महर्षि ने जो उपकार किया है उसे ही मुझे वर्णन करना है। आज सभाओं में विचार किया जाता है कि स्कूलों और कॉलिजों की शिक्षा- प्रणाली को बदल दिया जाए क्योंकि इसने हमारी सन्तानों को ईसाई बना दिया। परन्तु यह हमारा ही दोष है कि हमने उनको शिक्षा नहीं दी और फिर उनको दूसरों ने जैसा सिखाया वे उसे ही मान गए। यदि झूठ बात को भी सब चिल्लाकर दोहराने लग जाएँ तो सब उस पर विश्वास करने लग जाते हैं। यदि चार आदमी बैठकर किसी को पागल बनाना चाहते हैं तो वे चार कोनों पर बैठ जाते हैं और उसे पागल बना देते हैं। कहते हैं कि एक बार लड़कों ने सलाह की कि स्कूल से छुट्टी ले लेवें। जब मास्टर साहब आए, उन्होंने कहा, “क्यों मास्टर साहिब ! आज चेहरा क्यों उदास है?” दूसरे ने कहा, “घर में कुशल तो है न?” इसी प्रकार तीसरे, चौथे ने कहा, और मास्टर साहिब ने तंग आकर छुट्टी दे दी। इसी तरह यदि हम लोग किसी को पागल बनाना चाहें तो उसे पागल बना सकते हैं। भारतवर्ष के नवयुवकों के साथ ऐसा ही व्यवहार हुआ। पहिले ही दिन उन्होंने पढ़ा कि प्राचीन लोग यज्ञ किया करते थे और उनमें पशुओं की बलि देते थे। और वही भाव लेकर वे कहते हैं कि हम अपराधी कैसे? तो क्या यूरोप के विद्वान इनके अपराधी थे जिन्होंने वेद के आशय को पढ़ाया ? यूरोपियन विद्वानों ने वेद का अनुसन्धान करके पढ़ा था। उन्होंने वेद का उल्टा अर्थ लगाया कैसे ? आप अपने भाष्यों को देखिये। उनका अंग्रेजों ने अनुवाद किया और हमारे बच्चों ने उसे पढ़ा। परन्तु ऋषि ने कैसा परिवर्तन किया है? वह हमको कैसी स्वच्छ अवस्था में लाया है? आज मैं उसी का वर्णन करता हूँ।
कैसी घोर अवस्था हो गई थी ! यूरोपियन विद्वानों का क्या दोष है? ब्रह्मवैवर्त पुराण को उठाकर देखिए, कहने में संकोच होता है, ने परन्तु संकोच करना गुरु ने सिखाया नहीं। एक राजा के यज्ञ में करोड़ गौएँ मारी गईं। यह ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है। एक राजा के यज्ञ लिखा है। यह तो यज्ञ के नाम पर होता था। इसलिए आज कहते हैं कि हरिद्वार में गंगा पलट गई। अधर्म की जो घटायें घिरी थीं उनको महर्षि ने छिन्न-भिन्न कर दिया। आज मैं बतलाऊँगा कि वेदों का जो अर्थ किया गया है वह अशुद्ध है। उनके ठीक अर्थों को समयाभाव के कारण मैं नहीं बतला सकूँगा।
सबसे पहले मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि वेद का अर्थ कुछ का कुछ हुआ। आज वेद की मीमांसा करने का दिन है। इसलिए ऋषि दयानन्द ने यज्ञ की क्या विधि बतलाई है उसका वर्णन किए बिना नहीं रहा जा सकता। मैं जब छोटा बालक था तब मैं गुरुकुल में पढ़ने गया। मैं यू०पी० का रहने वाला था और मेरे संगी साथी पंजाब के रहने वाले। मैंने कहा, “भाइयो! आज तो कुकड़ी चबाने को मन करता है।” जितने पंजाबी साथी थे सब-के-सब यह सुनकर मुझसे लिपट गए और कहने लगे, ये क्या अनर्थ है? तुम कहाँ पैदा हुए हो कि यह भ्रष्ट शब्द मुख से निकाल रहे हो। मैंने कहा- “आजकल कुकड़ी का मौसम है। इसमें आश्चर्य ही क्या है?” पंजाबी भाई बड़े रुष्ट हुए। परन्तु जब मैंने यह बतलाया कियह कुकड़ी का मौसम है उसमें दाने होते हैं इत्यादि। तब वे समझे कि छल्ली को कुकड़ी कहते हैं। इसी तरह एक यू०पी० वाला पंजाब में चला गया। कोई बैगन बेचता था। यू०पी० वाले ने पूछा, “यह क्या है?” पंजाबी ने उत्तर दिया, “बताऊँ”। इस पर यू०पी० वाले ने कहा, “बताओ भाई, बताओ” ऐसे ही 3-4 बार होता रहा। एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। वही “कुकड़ी और बताऊँ” का मसला वेदों के साथ हुआ है। और उस अनर्थ को लोगों ने बढ़ाया। ऋग्वेद में लिखा है, “गौओं के चमड़े को अलग किया और सबको उसमें पीसा और सारा अन्न पीसा एवं उसके भीतर उसके बच्चों को मिला दिया और धनुषबाण लेकर रखवाली की और बड़े मजबूत हो गए।” यह मन्त्र पढ़ा गया और कहा गया कि प्राचीन लोग शिकार करते थे। भाइयो! जब तक कुकड़ी का अर्थ नहीं समझे थे वह मुर्गी थी, परन्तु जब उसका भेद बतलाया गया तो उसका अर्थ और हो गया। गो शब्द का अर्थ वाणी, पृथ्वी और गाय होता है। अच्छा भाई यहाँ गाय के स्थान में पृथ्वी रखिए। वर्षा ऋतु में जल पड़ने से मिट्टी जम गई। हल लाकर उसे जोता तो उसके ढेले-ढेले अलग हो गए। खेती पैदा हुई। उसे खाया-पिया तो हट्टे- कट्टे हो गए। यह एक नमूना है। एक दूसरा नमूना आपको बतलाता हूँ। दूसरे नमूने में रन्तिदेव के नाम पर दो हज़ार गौओं का वध हुआ था। जब जरा इतिहास की ओर चलें। जैसे गो शब्द के साथ अनर्थ हुआ वैसे ही बहुत-से शब्दों के साथ हुआ है। अब ‘मांस’ शब्द को ले लीजिए। संस्कृत में मांस शब्द के भी अनेक अर्थ हैं। उदाहरणार्थ, फल के छिलके को त्वचा कहते हैं। हड्डी को गुठली कहते हैं और गुद्दे को मज्जा कहते हैं। आम का फल देखने से उसमें केसर, मांस, मज्जा और गुठली सब अलग-अलग दिखलाई पड़ते हैं। अथर्ववेद में रोहित औषधि का वर्णन किया गया है। हमारी चर्बी से तुम्हारी चर्बी ठीक हो, मांस से मांस ठीक हो और रुधिर से रुधिर ठीक हो। इसने बड़ा भ्रम डाला है। यदि आप किसी देशी रियासत में चले जाएँ और किसी व्यक्ति से चार आने का गोश्त मोल लाने के लिए कहें तो प्रश्न होगा कि किस पशु का गोश्त लाना चाहिए, परन्तु उससे गोमांस नहीं समझा जाएगा। यदि ब्रिटिश राज्य में चले जाएँ तो गोमांस भी समझा जाएगा। वहाँ (देशी राज्य में) गोहत्या कानून की दृष्टि से निषिद्ध है। इसी प्रकार वेद की आज्ञा है कि जो मनुष्य, मनुष्य को मारकर अपना शरीर पुष्ट करे अथवा घोड़े को वा किसी अन्य पशु को वा गौ को जिसे वह “गौ माता” के नाम से पुकारता है, मारकर व्यवहार करे, यहाँ तक कि वह गौ – दुग्ध को अनुचित रूपेण प्रयोग में लाए तो राजा को अधिकार है कि उसे प्राणदण्ड दे दे। जिस प्रकार देशी राज्यों में ‘मांस’ शब्द से गोमांस का बोध नहीं होता, उसी प्रकार वेद में ‘मांस’ शब्द का अर्थ गोश्त नहीं समझा जा सकता। हमारे भाइयों का कथन है कि वेद मांस खाने का निषेध करते हैं परन्तु यज्ञ कार्यों में उसका विधान करते हैं।
अब मैं दिखलाता हूँ कि यज्ञ में भी मांस की आज्ञा नहीं दी गई है। अथर्ववेद में एक मन्त्र आता है जिसका अर्थ है कि वह यजमान बड़ा मूर्ख है जो कि आशय को न समझ कर गो, कुत्ते आदि पशुओं के अंग काटकर यज्ञ में डालता है। इसी मन्त्र का अनुवाद ग्रीफिथ साहिब ने अंग्रेजी में किया है। वे कहते हैं कि इस मन्त्र ने बड़ा गड़बड़ मचाया है। और इसीलिए उन्होंने टिप्पणी में लिख दिया है कि यहाँ वेद का अर्थ अस्पष्ट है।
मनु महाराज भी मांस का निषेध करते हैं। वस्तुतः हिंसा की कहीं भी आज्ञा नहीं दी गई है। वेद में यह किसी स्थान पर नहीं बतलाया गया है कि मछली के मांस को पकाकर यज्ञ में डालो। प्रत्युत यह कहा गया है कि उसमें उत्तमोत्तम अन्न डाला करो। आज ऋषि दयानन्द पर यह आक्षेप लगाया जाता है कि ऋषि ने यह नई लहर कहाँ से चला दी ?
अब मैं उन वेदमन्त्रों को बतलाना चाहता हूँ जिनके आधार पर लोगों ने पशु-हिंसा करना आरम्भ किया। वेद में लिखा है कि गौ की यज्ञ में आहुति दो | इससे यज्ञ में गो-हिंसा का प्रतिपादन मान लिया गया। परन्तु जिस मन्त्र को पढ़कर आहुति दी जाती है उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उस मन्त्र में बतलाया गया है कि वह गाय शत्रुओं का नाश करने वाली है। उससे अन्न भी उत्पन्न होता है। वह वरुण की जिह्वा भी है। भाइयो! जब कुकड़ी का प्रभाव बतलाया गया था तो वह साफ ज्ञात हो गया था। उसी प्रकार जब आपने इस गाय का बयान पढ़ लिया कि इसमें शत्रुओं के मुँह बन्द करने की शक्ति है, यह वरुण की जिह्वा है एवं वरुण के पेट में घुसी हुई है, यहीं नहीं, इसकी महिमा पृथ्वी और आकाश में व्याप्त है, इससे सब प्रकार के पौधे उत्पन्न होते हैं, तब इन सब बातों से प्रकट है कि इस प्रकार की गाय कोई साधारण गाय नहीं है। मुझे लम्बी यात्रा अल्प समय में ही समाप्त करनी है, नहीं तो मैं इस सूक्त की पूरी व्याख्या सुनाता, जिसको सुनकर आपका अश्रुपात हो जाता।
यह गाय वन्ध्या गाय है। फिर वेद ने किस प्रयोजन से यह कहा कि वन्ध्या गाय राजा का खज़ाना है? इस गौ में शक्ति नहीं कि शत्रुओं का मुख बन्द कर सके, परन्तु राजा के खजाने में मुख बन्द करने की शक्ति है। इस गौ के पेट में वरुण घुसे हुए हैं तथा राजा के खज़ाने का अध्यक्ष भी ब्राह्मण ही हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि उसे राजा का कोष न कहकर वन्ध्या गौ क्यों कहते हैं? आइए, वेद के गौरव को देखिए कि उसमें कैसा विलक्षण, कितना गहरा उपदेश भरा हुआ है। वेद कहता है “हे राजन् ! तुम्हारे हाथ में प्रजा का खज़ाना है परन्तु यह तुम्हारे पास धरोहर रूप में है। तुम इसके स्वामी नहीं।” देखिए, वह गाय कैसी है? लिखा है वह गाय वन्ध्या है | दूध नहीं देती है परन्तु सहस्त्रों दुहने वाले खड़े हैं। कैसी सुन्दर बातें हैं! हे राजन् ! तुम सहस्रों प्रजाओं से टैक्स लेकर खज़ाना बनाते हो, परन्तु तुम्हारे लिए तो वह वन्ध्या गौ है। यदि तुम इसमें से हिस्सा लोगे तो तुम्हें वैसा ही पाप होगा जैसा गौ का अंग काटने से होता है (हर्षध्वनि और तालियाँ)। इससे उत्तम क्या उपदेश दिया जा सकता है? यह गौ राजा का खज़ाना है परन्तु हे राजन् ! तुम्हारे लिए नहीं। तुम्हारे लिए तो गौ वन्ध्या है। वन्ध्या गाय के अन्दर से दूध लेने का धर्म भी नहीं होता। अतः प्रजा का जो धन है, वह प्रजा के लिए है।
आपको एक और छोटी सी बात सुना दूँ। उसी सूक्त में एक मन्त्र आता है और उसी मन्त्र के आधार पर कहा जता है कि गोहत्या करनी चाहिए यह सिद्ध हो गया। इस मन्त्र में लिखा है कि ” हे गौ ! जो तेरा पकाने वाला है” इत्यादि। अब यहाँ ‘पकाने’ का शब्द आ गया तो यही शब्द पकड़ लिया। परन्तु इसी मन्त्र में आगे लिखा है, “डरो मत, हिफ़ाज़त करो। ” ये सब ऐसी ही बातें हैं जैसे कोई मिरासी बैठा था, उससे मौलवी साहिब ने कहा- “नमाज पढ़ो !” उसने उत्तर दिया, कुरान शरीफ में नहीं लिखा है और निकालकर भी दिखला दिया। उसमें लिखा था- “मत पढ़ो कुरान शरीफ।” जब मौलबी साहिब ने सारे वाक्य को पढ़कर सुनाया- “मत पढ़ो कुरान शरीफ जब नापाक हो।” तब मिरासी ने कहा- “तो क्या सम्पूर्ण कुरान मेरे ही लिए है?” ये लोग यह नहीं आगे पढ़ते कि हे देवी ! डरो मत! तुम्हारी रक्षा करें !
वेद में यह बतलाया गया है कि राजा की रक्षा के लिए तीन प्रकार के अफसर होने चाहिए। सबसे पहला ‘समीता’ वह है जो खज़ाने की आय को देखता है। वह देखता है कि राज्य के खज़ाने में जो आता है उसमें एक पैसा भी छोटे को सताकर तो नहीं आता। अतः उसका नाम ‘समीता’। दूसरा ‘पकीता’। वह रुपये का हिसाब रखता है। अब ” पकाने ” का शब्द आया। उनसे पूछना चाहिए कि किसी दिन गुरु जी आपसे प्रसन्न हो जाएँ और कहें कि तुम बड़े पक्के हो, तो क्या आप हांडी में पक गए? तो ‘पकीता’ देखता है कि जो कुछ आया, वह हिसाब में आया कि नहीं? यह देखना उसका धर्म है। तीसरा है ‘नेता’ जो गाइड करता है। मन्त्र में लिखा है कि वे तानों ब्राह्मण हैं। जब यह बन्ध्या गौ उत्पन्न हुई तब संसार थर-थर काँप उठा परन्तु ब्राह्मण लोग नहीं काँपे। उन्होंने इस दौलत को चकनाचूर कर दिया। इसके दो लातें होती हैं। एक लात आने के समय कमर में देती है और एक लात विदा होते समय गुद्दी पर मारती है। इसी लिए इसका नाम दौलत है। अरे लोगों! अपने को लक्ष्मीपात्र मत कहो। मदान्ध हाथियों को कमल की नाल से नहीं बाँध सकते।
संसार में कोई बन्धन ऐसा नहीं था जिसने ऋषियों पर आक्रमण न किया हो। परन्तु ऋषि ब्राह्मणों की शक्ति की समानता कोई नहीं कर सका। ब्राह्मणों और क्षत्रियों की शक्तियों को देखिए। क्षत्रियों ने ऐसी शक्ति दिखलाई जिसको संसार याद करेगा। वह बिखरा हुआ भारतवर्ष, सहस्रों टुकड़ों में बिखरा हुआ भारत, कृष्ण की चतुर नीति से एक सूत्र में बँधा हुआ दीख पड़ता है। (हर्षध्वनि) क्षत्रियों की शक्ति का यही नियम है। क्षत्रिय इस सिद्धान्त पर चलते हैं कि “जैसा राजा होगा वैसी ही प्रजा होगी।” परन्तु ब्राह्मणों का मन्त्र इससे भिन्न है। “यदि राजा पापात्मा होगा तो धर्मात्मा प्रजा धर्म कर सकती है। पापी राजा, प्रजा पर एक क्षण भी राज्य नहीं कर सकता है।” यह है ब्राह्मणशक्ति ! वे कहते हैं कि जिस दिन प्रजा धर्मात्मा होगी, उसी दिन राजा को धर्मात्मा होकर चलना पड़ेगा। 5 हजार वर्ष पहले मुरली के अन्दर वह बात नहीं थी, जो आज हज़ारों वर्षों के बाद उस ऋषि – वीणा में थी, जिसने भारत को गुंजायमान कर दिया।
बोलो ऋषि दयानन्द की जय!

कुंवर चांदकरण शारदा

माननीय उपस्थित सज्जनो ! मेरी माताओ, बहनो और प्यारे भाइयो!
मेरे व्याख्यान का विषय ‘महर्षि दयानन्द का सन्देश’ वा Message of Maharishi Dayananda है। आज देश – देशान्तर से आर्य भाई यहाँ योगीश्वर कृष्ण की जन्मभूमि (मथुरा) में दयानन्द भगवान की जन्म शताब्दी मनाने के लिए एकत्रित हुए हैं। सारे मत-मतान्तरों के अन्धकार को मिटाने वाला एवं वेद की ज्योति को जगाने वाला वही ऋषि दयानन्द था जिसने भारत को उठाया है। आप में से प्रत्येक जानता है कि महर्षि के सन्देश ने कितना काम किया है। आप में से प्रत्येक सज्जन और प्रत्येक माता जानती है कि महर्षि ने वह ज्योति जगाई है जिस ज्योति से लाखों आदमी अपने जीवन में नवीन जीवन धारण कर रहे हैं। उसी महर्षि की जन्म शताब्दी मनाने के लिए आप सब एकत्रित हुए हैं और चाहते हैं कि यहाँ से एक ऐसी वस्तु लेकर जाएँ जिससे हमारा आगामी प्रोग्राम और जीवन सुख, शान्ति और आनन्द से व्यतीत हो सके। साथ ही साथ महर्षि विरजानन्द जी द्वारा महर्षि दयानन्द को इसी नगरी मथुरा में दिए हुए उपदेश को कार्य में परिणत कर सकें। इस पाश्चात्य सभ्यता युग अब से 10० वर्ष पूर्व जब बालक दयानन्द गुजरात में ब्रह्मानन्द प्राप्ति के लिए अपने हृदय के उद्गारों को निकाल रहा था उसी समय इंग्लैंड में स्टीफेन्सन ने दूर-दूर की वस्तुओं को निकट लाने के लिए एक नई कल का आविष्कार किया था। आज जितने रेल, तार और जहाज दीख पड़ते हैं वे सब इसी प्रसिद्ध पुरुष के आविष्कार के फल हैं। उसी प्रकार महर्षि दयानन्द ने (Spiritualism) अध्यात्मवाद की जो नवीन ज्योति संसार में प्रज्वलित की उसी का फल है कि आज हम अन्य बहुत-सी ज्योतियाँ संसार में देख रहे हैं। प्रिय भाइयो ! उस नवीन ज्योति से क्या असर पड़ा है? महर्षि दयानन्द तीन पदार्थों को अनादि बतला गए हैं। ईश्वर, जीव और तत्त्व (God, Soul & Matter) इन्हें बड़े – बड़े तत्त्ववेत्ता भी अनादि मानते हैं। उन तीन बातों को हरबर्ट स्पेन्सर ने तीन नामों से पुकारा है: 1. Revolution 2.Evolution 3.Destruction.यह संसार कैसे बना? मनुष्य इस संसार में क्या करता है? इत्यादि जिन प्रश्नों को आर्य मुनियों ने हल किया था उसको आज पाश्चात्य विद्वान समझने का यत्न कर रहे हैं। एमर्सन (Emerson ) गीता को पढ़ता है और पाल रिचर्ड ( Paul Richard) जैसे विद्वान यहाँ आते हैं। वे आपके सामने बतलाते हैं कि अब आपने जीवन ही बदल लिया है। अब नवयुग आ गया है। अन्धकार दूर हो गया। अब इस 20वीं शताब्दी में वह युग आएगा जो प्राचीन अन्धकार में फँसे हुए लोगों पर अध्यात्मवाद (Spiritualism) का प्रभाव ढालेगा। भारतवर्ष के अन्दर भी जितने धर्म हैं वे सब धार्मिक पक्षपातों से रहित हो रहे हैं। चाहे आप कृष्ण के प्लेट फार्म पर चलें, चाहे बौद्धों के, आपको पक्षपात-शून्यता ही दृष्टि आएगी। आज “सनातन धर्म सभा” भी पक्षपात नहीं करती। यदि कुछ करती है तो यह करती है कि किस प्रकार से बाल-विवाह रोका जाए, किस प्रकार से वृद्ध – विवाह रोका जाए। आज यही प्रश्न उठ रहा है कि किस प्रकार से लोगों के हृदय – मन्दिरों को वेद की ज्योति से जगमगा दें। इसी प्रकार राजनीति धर्म के अन्दर खद्दर के गीत गाए जाते हैं और महर्षि दयानन्द का गुणानुवाद होता है। जितने राजनैतिक धर्म हैं, सामाजिक धर्म हैं उन सभी के अन्दर आज महर्षि दयानन्द का काम दृष्टिगोचर हो रहा है। यूरोप के अन्दर जितनी सोसायटियाँ हैं, जितने कुरान के अर्थ लगाने वाले पंथ हैं उनके अन्दर आर्यसमाज की बुद्धि से काम लिया गया है। अभी संसार के अन्दर बड़ा अधर्म फैला हुआ है। 50 वर्षों से आर्यसमाज के स्थापित होने पर भी भारतवर्ष में आज करोड़ों आदमी भूखे मर रहे हैं। लाखों विधवाएँ विलाप कर रही हैं। बाल-विवाह का दुःख दूर नहीं हुआ। अभी तक हम आश्रमों का प्रचार नहीं कर सके। अभी हमारे हजारों भाई एक वर्ष में ही मर जाते हैं। उनमें से 2 करोड़ आदमी इस प्लेग में मर गए। भारत में 23 की औसत आय है। आपकी 82 फीसदी सन्तान दुर्बल हैं। आपके यहाँ इसका विचार तक भी नहीं है कि हमारी माताएँ और बहनें भूखी मर रही हैं। अभी लाखों, करोड़ों आदमियों की दवादारू का समुचित प्रबन्ध नहीं है। इस काम को कौन करेगा? आपके सिवा सेवा संघ खोलकर उनके दुःख को दूर करने वाला कौन है? वह है ” आर्यसमाज ” यदि उन्हें प्लेग, हैजा से बचाने वाली कोई शक्ति है तो आर्यसमाज है। इसीलिए महर्षि ने “सत्यार्थप्रकाश” के भीतर सबसे पहले जो सन्देश दिया है वह आर्य – संगठन है।
मित्र, इन्द्र, वरुण और अग्नि को अलग-अलग मानना गलत है। वे सब एक ही हैं। इस जगत् का सब कुछ ‘ओंकार’ के अन्दर आ जाता है। जैन, बौद्ध, सनातनी सब ही “ओ3म ” को मानते हैं। अतएव संसार की समस्त जातियों, मतों और पन्थों में ओ3म् है। आज ईसाई लोग भी कहते हैं कि यह जो गिरजा है, मिशन है, वह ओंकार का अपभ्रंश है। उसी ओंकार की सर्वत्र महिमा गाने के लिए यदि कोई धर्मोपदेश देता है तो वह “आर्यसमाज” है। “सत्यार्थप्रकाश” के प्रथम समुल्लास में लिखा है कि इस संगठन के लिए आपके अन्दर प्रेम उठता है। जब आपके अन्दर प्रेम हो जाएगा तब उस ब्रह्मानन्द से भी प्रेम हो जाएगा, जिस समय आप यह जान लेंगे कि इसी ब्रह्म का असर सारे हृदय में है, उस समय मृत्यु शोक नहीं होंगे।
यह गलत कहा जाता है कि आर्यसमाज मुसलमानों से विरोध करता है और इसीलिए यह शुद्धि करता है। मैं कहता हूँ कि आर्यसमाज का धर्म है प्रेम करना। यदि वह मुसलमानों और ईसाइयों को अपने अन्दर लेना चाहता है तो केवल इसलिए कि हमारा उनके साथ प्रेम है। यदि सत्य मार्ग पर लाने के लिए हम 8 करोड़ मुसलमान और ईसाइयों को मिलाने के लिए कहते हैं तो यह हमारा प्रेम है। अतः शुद्धि आन्दोलन गिराने का आन्दोलन नहीं है। महर्षि ने बतलाया है कि समस्त संसार एक ‘ओ3म्’ के झण्डे के नीचे है। आप लोग बड़े शक्तिशाली थे तब ही तो भगदत्त चीन में राज्य करता था। बर्मा, असम और जर्मनी में आपके ‘ओ3म्’ का झण्डा फहराता था।
यह दूसरा सन्देश महर्षि ने प्रीति और प्रेम का दिया है जिससे समस्त संसार में एक ‘ओ3`म्’ के झण्डे के नीचे एकता हो। उसने आप जहर का प्याला पीकर आत्म-बलिदान का उदाहरण दिया है। इसी वास्ते हमारे प्राचीन ऋषियों, सुर और असुरों में बराबर युद्ध चला आता है।
हमारे पूर्व पुरुषों ने भी आत्म – बलिदान किया है, हम इस बात को सोच नहीं सकते। जिस जमाने में राम रावण से लड़ता है, भगवान कृष्ण सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध करते हैं, हिरण्यकश्यप की आज्ञा न मानकर प्रहलाद चिता में खड़ा होता है, उस जमाने में दिशाएँ रक्तवर्ण हो जाती थीं। उस समय एक ओर राजपूत खड़े होते थे और दूसरी ओर मुसलमान आते थे। राजपूत केसरिया जामा पहनकर खड़े होते थे। उनका सिंहनाद सुनकर कायर पुरुष भी एक बार वीर हो जाते हैं। हा हन्त! आज उनकी ऐसी दशा ! क्षत्रियों की प्रार्थना थी, हे भगवान! हमें नीचों के सामने सिर नीचा न करना पड़े।” जिस समय चित्तौड़ के किले की मूर्तियाँ नष्ट हो गईं और स्त्रियाँ चिल्लाने लगीं, उस समय एक राजपूत, जयमल से कहता है, “क्षत्रियों के लिए खड़ा रहना अनुचित है। मेरे लिए रणभूमि स्वर्ग है।” वहाँ वह जयमल को कन्धे पर लेकर जाता है और रण में मर जाता है। आज तक मेवाड़ में उसका चित्र बना है जिससे जोश उत्पन्न होता है।
जसवन्तसिंह के सेनापति ने औरंगजेब को सलाम नहीं किया। अत: औरंगजेब ने उसे घोर दण्ड दिया। वह औरंगजेब के सन्मुख कहता है, “मेरा सिर तुम्हारे हाथ में नहीं है।” वह फिर कहता है, “जसवन्तसिंह के सन्मुख झुकने वाले सिर, तुम औरंगजेब के सामने मत झुको। तुम इसके सन्मुख झुककर मर्यादा को कम न करो।” मुकुन्ददास कहता है कि राजपूतों का यह धर्म नहीं है कि शत्रु को पीठ दिखा दें। अहा ! ऐसे-ऐसे वीर क्षत्रिय आपकी मर्यादा को स्थिर रखने वाले थे।
जिस समय गुरु गोविंदसिंह रण में जाने लगे, उस समय उनके किसी लड़के को प्यास लगी। गुरु गोविंदसिंह कहते हैं, “हे कायरो ! तुम जल पीने के लिए आते हो। वीरों की प्यास खून से बुझा करती है।” आप की आन और सभ्यता की रक्षा करने के लिए गुरु तेग बहादुर और अर्जुन कैसे-कैसे अनुकरणीय उदाहरण दिखला गए।
आर्य ब्राह्मणों में से मतिदास कैसे हुए। उनको आरे से चीरे जाने की आज्ञा हुई। परन्तु वह ब्राह्मण मतिदास ओ3म् ओ3म् कहता हुआ चीरा जाता है।
बल्लजी चम्पावत थोड़े-से लोगों को लेकर युद्ध में जाता है, उसकी धर्मपत्नी भी साथ है। सहस्रों मुसलमानी फौजों से सामना होता है। बल्लजी मारा जाता है और धर्मपत्नी पतिदेव से मिलने के लिए सती होकर स्वर्ग यात्रा करती है। वह वीर पत्नी यवन को अपने पति का शव नहीं छूने देती। किस प्रकार देवरदे अल्हारूदर को प्रोत्साहित करता है और रण में जाता है। जिस समय हाड़ा मारा गया और उसकी वृद्धा माता को सूचना दी गई, उस समय वह रोने नहीं लगी। वह पूछने लगी, “मेरा पुत्र मारकर मरा वा मार खाकर मरा है?” सिपाही ने उत्तर दिया, “माता जी! तुम्हारा पुत्र मारकर मरा है।” सिपाही के ये शब्द सुनकर वह बड़ी प्रसन्न हुई। कर्नल टाड साहिब लिखते हैं कि उसके स्तनों से दूध वह चला। उस समय माता कहती है, “बेटा जाओ! तुमने मेरे दूध को नहीं लजाया।”
जिस समय जसवन्तसिंह रणभूमि से लौट आए, उनकी स्त्री ने घर के सब दरवाजे बन्द कर दिए और कहने लगी, “मैं ऐसी नहीं हूँ कि भागे हुए पति का स्वागत करूँ। जब तक जिओ तब तक रणभूमि में पीठ न दिखाओ। जब मर जाओगे, तो मैं भी सती हो जाऊँगी।”
एक बात सुनकर वीर बिदुला अपने पुत्र को क्या उपदेश देती है?
जिस समय गोरक्षा से मुँह मोड़कर कुंवर लौटकर आ गया था, उस समय उसकी पत्नी ने घर का दरवाजा नहीं खोला। उसने कहा कि मरने से पहले अपनी प्राणप्यारी का मुख देख लूँ। तब उस पत्नी ने अपनी गर्दन काट थाली में रख दरवाजे पर रख दी। उसने अपने पति को रणभूमि से लौटता हुआ देखकर घर में नहीं आने दिया।
जब 12 वर्ष का बालक शलुमनराव जी युद्ध में जाने लगा तो लोगों ने उसे वहाँ जाने से रोका। लोगों ने कहा, “शलुमन ! तुम्हारी अवस्था कम है, तुम युद्ध में नहीं लड़ सकते। तुम युद्ध में मत जाओ।” इस पर उस वीर बालक ने कहा, “भले ही मैं 12 वर्ष का हूँ, परन्तु मेरी आत्मा तो 12 वर्ष की नहीं है।”
हम उस वाक्य को भूल गए जो वीर प्रताप ने कहा था। उसने कहा था, “आप लोग धर्म के लिए बलिदान हो जाओ। जिस जाति ने यह कहा था, (This world is not meant for beggar. It is for the conquerors.) “यह संसार भिखारियों के लिए नहीं है, वरन् विजयी पुरुषों के लिए है।” आज वही जाति पद-पद पर दुःखी हो रही है।
मैक्समूलर ने भी इस जाति की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। प्रिय भाइयो! यदि आपको यह अभिमान है कि हमारे प्राचीन लोग बड़े शूरवीर हुए तो महर्षि की शताब्दी को याद करो। आज आपका मुख मलीन और तन क्षीण हो रहा है।
आप लोगों का जगह-जगह पर धर्म नष्ट किया जा रहा है, आज हमने अपना राज्य खोया, अपना गौरव खोया। अब उस वैदिक धर्म की ज्योति को जगा दो। वैदिक उपदेश को मान लो और आपस में प्रेम बढ़ाओ। हम दयानन्द जन्म शताब्दी के उपलक्ष में धन नहीं माँगते। केवल प्रार्थना यही है कि इस वैदिक धर्म की ज्योति को जमाने की आप लोग चेष्टा करें। यह न समझ लें कि वकालत करके समय मिलेगा तो आर्यसमाज की सेवा करेंगे। ऋषि का उपदेश है कि जो कुछ हो भगवान को अपर्ण करो।
एक समय भगवान् बुद्ध ने एक भिक्षु को एक राजा के पास भेजा। राजा ने बहुत धन दिया, परन्तु भिक्षु ने कहा, “मैं इसका इच्छुक नहीं हूँ।” राजा के यहाँ उसने अन्न भी ग्रहण नहीं किया और बिना भिक्षा के चल दिया। एक बुढ़िया के फटे कपड़े को लेकर उसे हृदय से लगाया और बुद्ध जी के अर्पण कर दिया क्योंकि वह वस्त्र बुढ़िया का सर्वस्व था।
अतएव आप भी धर्म को (Surplus) उपयोग से अधिक न समझें। उत्तम से उत्तम वस्तु को धर्म के लिए देने को तैयार रहो। तब ही आपके धर्म की उन्नति होगी।
प्यारे भाइयो! मैं आपसे पूछता हूँ कि महाराज अश्वपति ने देश से क्या कहा था? “ऐसा राज्य स्थापित करो, स्वराज्य का ऐसा सरल मार्ग बनाओ कि इस संसार में कोई चोर न रहे, कोई दुर्बल न रहे, कोई ऐसा आदमी न रहे, जो अग्निहोत्री न हो।” उस वैदिक समय को लाने के लिए आज से हम कटिबद्ध हो जाएँ। यदि आप महर्षि की शताब्दी को सफल बनाना चाहते हैं तो अपने “आत्म- बलिदान” से उस महर्षि के सन्देश (Message) को पूरा करें।
बोलो महर्षि दयानन्द की जय !

पं० भगवद्दत्त B. A.

तदनन्तर साम, गान और फिर श्रीयुत पं० भगवद्दत्त जी रिसर्च स्कालर लाहौर का “संस्कार विधि में पठित संस्कारों” के ऊपर एक व्याख्यान हुआ। आपने बतलाया कि स्वामी जी ने संस्कार विधि में प्रायः गृह्यसूत्रों का प्रमाण उद्धृत किया है। प्रत्येक वेद के साथ कितने ही गृह्यसूत्र हैं परन्तु स्वामी जी ने अपने आपको प्रत्येक गृह्यसूत्र की प्रत्येक पंक्ति से बाध्य नहीं किया। जहाँ सिद्धान्त विरुद्ध कोई बात मिली आपने उसको छोड़ दिया। प्रक्षिप्त मान लिया। उन्होंने अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति से उस सच्चाई को देख लिया जो उस समय लुप्त हो गई थी। और इसी से निर्भयतापूर्वक उसका परित्याग किया था। स्वामी जी बिना भली भाँति सोचे-विचारे न कुछ लिखते थे और न कहते थे। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि यों ही इसको प्रक्षिप्त कर दिया। उनसे मुक्ति के विषय में बहुत बार प्रश्न हुए, किन्तु उन्होंने कहा, “इस विषय में मैं अपना मुँह अभी नहीं खोलूँगा। विचार करने के उपरान्त ही कुछ कहूँगा।” पन्द्रह वर्ष के विचार के बाद उन्होंने इस विचार पर अपने विचार प्रकट किए थे। उनकी कोई बात उस समय निरर्थक न होती थी। आज लोग सभी शब्दों को लेकर उनकी संगति लगाते चलते हैं। उनमें से वैदिक सिद्धान्त सिद्ध करते हैं। स्वामी जी ने कभी इसकी चेष्टा नहीं की। जो अनर्गल जान पड़ा उसे निर्भय होकर प्रक्षिप्त कर दिया एवं छोड़ दिया। आज लोग यह भी कहते हैं कि स्वामी जी के ग्रन्थों का संशोधन होना चाहिए। मैं कहता हूँ कि यह क्यों? आपको इतना भ्रम क्यों लगा है? यदि आप ऋषि के बतलाए हुए सिद्धान्तों और सूत्रों पर विचार करें तो आपको संशोधन की आवश्यकता न पड़ेगी। कहीं-कहीं स्वामी जी ने कुछ प्रमाणों का अनुवाद मात्र ही कर दिया है। उदाहरणार्थ कन्या के यज्ञोपवीत का विधान सप्रमाण नहीं है, वरन् गृह्यसूत्र का अनुवादमात्र है। आप इसे वहाँ देख सकते हैं। उन्होंने आपस्तम्ब गृह्यसूत्र अधिकता से उद्धृत किया है। विधवा विवाह के लिए उन्होंने मनु- प्रतिपादित अक्षत – योनि विधवा-विवाह की आज्ञा दी है, अन्य की नहीं ! अन्यथा करने वाले को शूद्र- कोटि में डाला है। परन्तु अब तो लोग मन – घड़न्त करने लगे हैं। कहीं-कहीं यज्ञ हवन के अन्त में “ओं वसोः पवित्रमसि शतधारम्, वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम…” इत्यादि के उच्चारण के अन्त में घृत छोड़ने की परिपाटी प्रचलित हो पड़ी है। इसका प्रमाण कहीं नहीं। ऋषि ने कहीं नहीं लिखा। यों ही मनमाना कर रखा है। तब इस प्रकार की परिपाटी डालकर संशोधन के प्रश्न को उठाना महाभूल है। ऋषि के सिद्धान्तों का मनन कीजिए। संस्कारों का महत्व समझिए।

पं० अयोध्याप्रसाद (कलकत्ता)

आर्य पुरुषो एवं आर्य देवियो !
हमारे वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं। कितनी ही पुस्तकें इलहामी (खुदाई) वा ईश्वरीय बतलाई जाती हैं परन्तु यह मिथ्या कल्पना अपने मत के फैलाने के लिए ही है। सच्चे ईश्वरीय ज्ञान के भण्डार हमारे वेद ही हैं।
जिस प्रकार दयालु परम पिता परमेश्वर ने हमारे लिए इस नानाभोग-विचित्रा धरित्री और विश्व का निर्माण किया है, जिस प्रकार जगदीश्वर ने इस भौतिक सृष्टि की रचना की है। उसी प्रकार उसने ज्ञान की भी रचना की है। यदि हमारे पास पीने के लिए पानी और खाने के लिए लिए अन्न न होता तो हम इतनी सृष्टि न कर पाते। इसी प्रकार यदि ज्ञान ईश्वरदत्त न हो तो हम ज्ञानी नहीं बन सकते थे। ज्ञान की निरवच्छिन्न धारा सर्वत्र बह रही है। प्रत्येक भूत के साथ ज्ञान उपस्थित है। सृष्टि में सर्वत्र ज्ञान विद्यमान है तथा वहीं परमेश्वरीय ज्ञान है। भौतिक जगत् को रचकर उसका ज्ञान रूप से अनुवाद स्वरूप ही तो हमारे वेद हैं। वेद कहते हैं और ज्ञान को। सारा विश्व प्लेटो (Plato) बार्कले (Barkley) ह्यूम (Hume) के मत से विचार ही रूप है। विचार न हो तो विश्व कहाँ है।
पदार्थों के गुणों का ज्ञान – भंडार ही हमारा ऋग्वेद है एवं उनसे कार्य सिद्ध करने के लिए कर्म का प्रतिपादक हमारा यजुर्वेद है। और फिर उस परमात्म-तत्व का गुणानुवाद जिसने विश्व बनाया, साम में किया गया है। ये तीनों संश्लेषणात्मक ज्ञान हैं सिन्थेटिक (Synthetic) ज्ञान हैं, तथा अथर्ववेद इन्हीं का विश्लेषणात्मक ज्ञान है, ऐनेलिटिक (Analytic) ज्ञान रूप है। इसीलिए ऋग्वेद का आरम्भिक मन्त्र ‘अग्नि मीले पुरोहितं….” अग्नि इत्यादि द्रव्यों का ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा करता हुआ अन्त में कर्म की याद दिलाता है। क्योंकि ज्ञान के पश्चात् कर्म आता है। इसी प्रकार यजुर्वेद “इषे त्वोऽर्जे त्वा…..” से, जो कर्मपरक है, आरम्भ करके, ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि’ में ही समाप्त होता है। इसी प्रकार सामवेद कर्मों में श्रेष्ठ उपासना रूप कर्म के लिए “अग्न आयाहि वीतये …..” से आरम्भ करता है। इस प्रकार देखने से इस सूक्त के आगे यही क्यों आया, अग्नि सूक्त के आगे वायु सूक्त ही क्यों आया, इसके भी कारण मिलेंगे। अतः इस प्रकार संश्लेषणात्मक वा सिन्थेटिक एनेलिटिक ज्ञान अथर्ववेद में वर्णित हैं। हमारे वेद ही ईश्वरीय – ज्ञान ग्रन्थमाला हैं इसमें कोई सन्देह नहीं कर सकता है।

प्रिं० बालकृष्ण

सज्जनो !
आज संसार में विकास चल रहा है। सब उन्नति कर रहे हैं। सब तरफ ‘आगे बढ़ो’ की ध्वनि गूँज रही है। परन्तु हमारी हिन्दू जाति मरती जा रही है। इसकी वृद्धि किसी प्रकार भी होती नहीं दीखती। यह हिसाब द्वारा मालूम किया जा सकता है कि जिस क्रम से यह पहले घट रही थी उससे 50० वर्ष में इसका पता न रह जाता। परन्तु अब जिस क्रम से घट रही है उसके हिसाब से तो यह और भी जल्द अपना नामोनिशान खो बैठेगी। 50 वा 60 वर्ष में ईसाई मत और इस्लाम की बढ़ती हुई आग में यह भस्म हो जाएगी। यह सब प्रकार घट रही है। कुछ लोग आपस के दुर्व्यवहार से जो अछूत हैं या समुद्र यात्रा कर चुके हैं, वे विरादरी और दूसरे पचड़ों से धर्म त्याग रहे हैं। कुछ विधवाएँ पड़ी हैं जो 1 वर्ष से लेकर 50 वर्ष की आयु तक की हैं। इसके अतिरिक्त कितने ही लाख साधु हैं। ये सब सन्तान उत्पन्न नहीं करते। इन सबका विवाह करके प्रजावृद्धि करनी चाहिए। 1 करोड़ वा 1 || करोड़ तो इनके विवाह से बढ़ सकते हैं। हमको चाहिए कि अपने अन्दर की कुरीतियों का परित्याग करके पुष्ट बनें और तब जीवित रहने वाली सन्तान उत्पन्न करें, क्योंकि आज दो में से एक बच्चा तो अवश्य ही मर जाता है। इसको रोकना चाहिए। साथ ही विधवाओं और साधुओं को- मेरा आशय तमाम से नहीं है, किन्तु बने हुओं से है- विवाह करने चाहिए। यह तो भीतरी वृद्धि रही। इसके अतिरिक्त बाहर से भी अपनी वृद्धि करनी पड़ेगी और उसका तरीका है शुद्धि।
शुद्धि सर्वदा शास्त्र-विहित है। 65 लाख विधवाएं, जो कनाडा की आबादी के बराबर हैं, और 25 लाख साधु एक ओर वृद्धि कर सकते हैं और दूसरी ओर शुद्धि कर सकते हैं। ‘सत्यार्थप्रकाश’ के दूसरे और तीसरे समुल्लास के अनुसार हमें शुद्धि करनी चाहिए। अर्थशास्त्र की दृष्टि से हमारे लिए यह परमावश्यक है कि हम साधुओं और विधवाओं की सुव्यवस्था करें। बाल-मृत्यु को यत्नपूर्वक रोकें और शुद्धि द्वारा गए हुओं को वापस लें और यदि दूसरे भी आना चाहें तो उन्हें भी लाने का यत्न करें।

डॉ० केशवदेव शास्त्री

देवियो एवं आर्य सज्जनो !
जो कार्य कोलम्बस ने अमेरिका की खोज करके पूर्ण किया था, वही वेद की खोज करके महर्षि दयानन्द ने किया है। वेद पहले विद्यमान थे, परन्तु उनके यथार्थ अर्थ लुप्तप्रायः हो चुके थे। उन्हें प्रगट करके ऋषि ने स्वाधीन “विकासवाद” का उज्ज्वल आदर्श हमारे सन्मुख रखा। ऋषि की धारणा थी कि आदित्य ब्रह्मचारी 40० वर्षपर्यन्त जीवित रह सकता है। डा० नेवर ने फिलाडेलफिया (Philadelphia) में व्याख्यान देते हुए कथा था कि समय आ रहा है जब लोग 10००० वर्ष तक जिएँगे। 1859 ई० में डार्विन ने विकासवाद चलाया था। 1915 ई० में पनामा की रेसवेटरिंग कांफ्रेंस में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए डा० लूथर ने, जो एक बड़ा आविष्कारक है, और जो बिना खेती के अन्न उत्पन्न करने वाला है, कहा था कि हम चार पुश्तों में मनुष्य को बदल सकते हैं। परन्तु ऋषि दयानन्द ने स्वरचित संस्कारविधि के 23 वें पृष्ठ के नोट में लिखा है कि संस्कारों से क्या प्रभाव पड़ता है। हमारी वैदिक सभ्यता इस विकास को बड़ी सुन्दर रीति से बतलाती है। योग दर्शन की फिलासफी में आयु की वृद्धि होती है इसके अनेकानेक प्रमाण पाए जाते हैं। जम्मू में चम्पाराज योगी 85 वर्ष की अवस्था का है परन्तु उसके शरीर की कान्ति से युवावस्था ही टपकती है। 40 वर्ष से लोगों ने उनको समान ( एकसा) ही देखा है। वैद्यक ग्रन्थों में लिखा है कि च्यवन ऋषि वृद्ध से युवा हुआ था, इससे आप स्वयं देख सकते हैं कि हमारा विकासवाद कितना आगे है।
ऋग्वेद में लिखा है कि प्रत्येक परमाणु को नवीन कर लो और शतायु बनो। एक वर्ष में सारा शरीर बदल जाता है यह भी वैद्यक का सिद्धान्त है।
15 वीं शताब्दी में कारनैरो जिसने वेनिस (Venice) की नहर बनाई थी, 42 वर्ष की अवस्था में बीमार हुआ। लोगों ने कहा इसके बचने की आशा नहीं, परन्तु उसने अपना जीवन नियमानुसार बनाया, खान-पान का संयम किया और उत्तरोत्तर उसकी दशा सुधर गई। 65 वर्ष की अवस्था में एक दिन 12 औंस नियत खुराक से 14 औंस कर दी। उसी दिन बीमार हुआ। तदनन्तर उसी संयम पर चला। 95 वर्ष की अवस्था में एक पुस्तक लिखी और 103 वर्ष तक जीता रहा। उसका कथन है कि मनुष्य की मृत्यु पके फल समान होनी चाहिए। कोई पीड़ा नहीं होनी चाहिए। बहुत-सी स्त्रियों को प्रसव वेदना अधिक होती है। इसका कारण उनके स्वास्थ्य का दोष तथा अजीर्ण है। नियमानुसार रहने वाली स्त्री को कभी कोई पीड़ा नहीं होती। न्यूयार्क में डा० कैरल तज़रबे (Experiment) कर रहे हैं। उनके यहाँ एक प्रकार के रस में रखा हुआ मुर्गी का दिल 12 वर्ष से गति कर रहा है। इसी प्रकार मनुष्य का मस्तिष्क 10 वर्ष से गतिशील है।
छोटी आंत वालों का जीवन अधिक होता है। जैसे तोता 150 वर्ष जीता है। डॉ॰ एण्डर्सन ने दिखाया है कि मन की प्रवृत्ति से शरीर का भार बढ़ जाता है। तराजू पर लिटा कर तजर्बा किया गया है कि मनोबल शिर की ओर होने से भारी हो जाता है। इस प्रकार मन की शक्ति की प्रधानता दिखाई गयी है जो हमारा प्राचीन वैदिक सिद्धान्त है और योग की जबरदस्त फिलासफी है।
इन वैज्ञानिक और विकास सम्बन्धी सिद्धान्तों को वेद की खोज से ऋषि ने हमारे सामने रखा है। इनसे आगे बढ़कर ऋषि ने हमें स्वतन्त्र विकासवाद का सिद्धान्त दिया है। कोलम्बस को जब स्पेन के राजदरबार में मान मिला था तो लोगों ने पूछा था कि तुमने क्या किया है? कोलम्बस ने उन्हें बड़ा अच्छा उत्तर दिया था। इसी प्रकार ऋषि ने वेदों से कोई नई बात तो नहीं निकाली परन्तु उन्हीं सिद्धान्तों को जो वहाँ थे परन्तु लुप्त से थे बताया और हमारी सभ्यता का सच्चा आदर्श हमारे सामने रखा।

प्रिंसिपल दीवानचन्द

सज्जनो !
पिछले दिनों महात्मा गांधी ने अपने पत्र ‘यंग इण्डिया’ (Young India) में आर्यसमाज के प्रवर्त्तक के सम्बन्ध में कुछ लिखकर आर्यों की शक्ति को भली- भाँति जान लिया और तमाम भारतवर्ष ने भी प्रत्यक्ष रूप से यह जान लिया कि यह समाज भी कुछ मूल्य रखता है। महात्मा गांधी ने एक अन्य स्थान पर लिखा है, “आर्यसमाज की यह शक्ति स्वामी दयानन्द के सुन्दर आचार व्यवहार के कारण ही है।” इन्हीं दिनों ला० लाजपतराय जी ने भी एक लेख में इस बात का समर्थन किया था कि आर्यसमाज की शक्ति उस निष्काम त्याग और कष्ट सहन पर निर्भर है जो उसके अनुयायियों ने हिन्दू जाति और हिन्दुस्थान की सेवा में किए। इस समय हमारे सामने 3 प्रकार के प्रश्न हैं-
(1) क्या आर्यसमाज की शक्ति दयानन्द के व्यक्तिगत आचरण पर आश्रित है?
(2) क्या यह उनकी उच्चकोटि की शिक्षा और अटल सिद्धान्तों पर निर्भर है?
(3) क्या यह शक्ति उनके त्याग-भाव से की हुई सेवाओं पर अवलम्बित है?
आओ, हम इन प्रश्नों की विस्तृत परीक्षा करें और देखें कि ये कहाँ तक ठीक हैं। यही उत्तम शिक्षा थी जिसने स्वामी दयानन्द को एक साधारण मनुष्य से ऐसा महान् पुरुष बनाया। यह वैदिक शिक्षा ही थी। आज हरेक सच्चे आर्यसमाजी का हृदय इस वैदिक शिक्षा से जीता जा चुका है। स्वामी दयानन्द से पहले भी वेद मौजूद थे, परन्तु लोग उनकी प्रतिष्ठा नहीं करते थे। हाँ, संस्कृत का इतना मान करते थे कि नाविल (उपन्यास) जैसी निरर्थक पोथी भी पूँजी जाती थी। गुरु विरजानन्द ने इस अन्धकार को मिटाया जिसकी शिक्षा ने आगे चलकर हिन्दू जाति में जाग्रति उत्पन्न की और लोगों को सिखाया कि परमात्मा को छोड़ अन्य दूसरे के आगे सिर न झुकाओ।
पुराने तीर्थों में, कुम्भों के अवसर पर इस शताब्दी की अपेक्षा कई गुणा अधिक लोग इकट्ठे हो जाते हैं जहाँ पर एक समाज दूसरे समाज का साधारण विषयों पर गला काटने पर उतारू हो जाता है। स्वामी जी ने इन कुरीतियों को दूर किया और ईसाइयों की नरपूजा भी कोई कम नहीं। आर्यसमाज मनुष्यमात्र को एक दृष्टि से देखता और सब को समान अधिकार देता है।
फिर एक स्थान पर महात्मा गांधी ने कहा है, “आर्यसमाजियों में सहनशीलता नहीं और कभी-कभी स्वामी दयानन्द भी सहन न कर सकते थे।” यह बात किसी अंश तक ठीक है परन्तु इसकी तह में एक गहरी फिलासफी है। आर्यसमाजी और स्वामी दयानन्द अन्त को मनुष्य ही हैं पूर्ण तो नहीं हैं। असहिष्णुता के उदाहरण तो आर्यसमाज और हिन्दू जाति में खोजने पर भी नहीं मिलते। अलबत्ता मुल्तान, अमृतसर, कोहाट और अफगानिस्तान के उदाहरणों को याद कीजिए। इन स्थानों पर स्वतन्त्रता और वीरता के पवित्र भावों को एक ओर भुलाकर सहिष्णुता के नाम पर धब्बा लगाया गया। आरम्भ में मुसलमानों ने वे निर्दयतापूर्ण अत्याचार किए कि उनका वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। इटली (Italy) के बादशाहों ने ईसाइयों का वह खून पिया कि उसको ईश्वर ही जानता है। भारतीय इतिहास में कहीं एक तो ऐसा उदाहरण उपस्थित कीजिए !
स्वामी जी की असहिष्णुता वास्तविक और यथार्थ थी। वे लोगों से क्रुद्ध नहीं होते थे वरन् उनके आचरणों पर होते थे। इसी प्रकार आर्यसमाज भी अन्य मतों पर आपत्ति नहीं करता किन्तु उनके आन्तरिक दुर्व्यवहारों पर करता है।
अब महात्मा गांधी के कथन को लीजिए। स्वामी दयानन्द के जीवन (चाल- चलन) में वे बहुमूल्य बातें थी जिन्हें आपको अपने जीवन में घटाना चाहिए। शिवरात्रि में उनके हृदय में शंका उत्पन्न होती है जब तक निर्णय नहीं होता आत्मसन्तुष्टि नहीं होती। मूर्ति एक जड़ पदार्थ है और चूहा एक चैतन्य जीव। इस सच्चाई की खोज में स्वामी जी आत्मत्याग के लिए तैयार हो गए और अपना सारा जीवन वेदों की शिक्षा के उपार्जन तथा प्रचार में लगा दिया। यह एक गुण था।
स्वामी जी अपने गुरु का वह सम्मान करते थे जिसका कि हम स्वप्न में भी ध्यान नहीं ला सकते। एक दिन गुरु विरजानन्द के बहुत पीटने पर अपने गुरु के दुर्बल शरीर और क्रोधी स्वभाव पर दया कर, हाथ जोड़ निवेदन किया, “स्वामिन्! आप जब मुझसे नाराज हुआ करें तब किसी से मुझे पीटने के लिए कह दिया करें, मुझे पीटते हुए आपके कोमल हाथों में कष्ट होता होगा।
तीसरी बात जो हम उनके जीवन में देखते हैं “निर्भयता” है। आप कुम्भ के मेले पर जाते हैं। करोड़ों यात्री पहले स्नान करने के लिए लड़ रहे हैं। आप एक कोने में जाकर अपनी ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ गाड़ देते हैं। क्या इससे अधिक निर्भयता कोई हो सकती है? उनके जीवन में सैकड़ों ऐसी मिसालें मिलती हैं
जिनको पढ़कर हम दंग हो जाते हैं कि ऐसे समय में भी भारतमाता ऐसे सुपुत्र उत्पन्न कर सकती है।
एक बात और थी कि सच्ची बात कहने तथा धर्म के प्रचार करने में वे किसी “आप पुराणों राजा तक से भी न डरते थे। आप जयपुर गए। वहाँ के राजा ने कहा, के विरुद्ध न बोलें।” स्वामी जी ने कहा, मैं आपके राज्य को तो छोड़कर दो दिन में बाहर हो जाऊँगा परन्तु परमेश्वर के राज्य से किस प्रकार बाहर हो सकता हूँ।”
जोधपुर के राजा भी एक बाजारी औरत के हाथ में थे। आपने एक दिन यह बात देखी और डाँटकर बोले, “क्या शेर राजा इन कुतियों से सिंह पैदा कर सकते हैं?” यदि आज दयानन्द होते तो भारतीय राजाओं का अपमान इस प्रकार न होता जैसा कि अब हो रहा है।
इन्हीं बातों पर आर्यसमाज की शक्ति स्थिर है। कल एक भाई ने कहा, “समय पर समाजियों में जोश तो अवश्य आ जाता है, पर अच्छा हो कि यह उत्साह सदा बना रहे।” इस समय तक आर्यसमाज ब्राह्मणों का काम करती रही है। अब वह काम समाप्त हो गया। अब क्षत्रियों के काम की बारी आई है। क्षत्रिय बनो और क्षत्रिय पैदा करो। अपनी तथा अपने देश की रक्षा करो। वेदों में शस्त्र- विद्या वर्णित है। इस दृष्टि से तो यूरोप वाले ही अधिक वैदिक धर्मी हैं। आप नहीं हैं। यह सेवा आपके सुपुर्द है। खेद की बात है कि ऐसे देश के रहने वाले जिसके चारों ओर रूस, चीन, जापान और अफगानिस्तान जैसी शक्तियाँ विद्यमान हों समुद्र का मार्ग खुला हो, अपनी भी रक्षा न कर सकें।
आर्यवीरो आओ! हथियार उठाओ ! यदि आज आप क्षत्रिय होते तो मुल्तान, मलाबार और कोहाट की, हृदय विदारक घटनाएँ न होतीं। खलीफाओं का समय गया। कमालपाशाओं का समय आ पहुँचा है। यदि आप वीर न बनोगे तो अन्य कौमों की खुराक बन जाओगे। अपनी स्त्रियों की रक्षा करो। (Self-defence) आत्मरक्षा पहला कर्त्तव्य है। सिक्खों में यह वर्तमान है और आज दुनिया में उनका बहादुरी का डंका बज रहा है।
वे आपकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं। आपके हाथों में कमजोर कलम है। उनके हाथों में तलवार की शक्ति है। अतः मैं आपसे यही निवेदन करना चाहता हूँ कि आप हिन्दू जाति की रक्षा करना चाहते हैं तो आप हिन्दू जाति को बहुत जल्द वीर बनाइए।

भाई परमानन्द

भाइयो और बहनो!
बहुत दिनों से मेरी व्याख्यान देने की श्रद्धा नहीं बढ़ी मैं सोचता था कि मुझे आपके सामने खड़ा होना चाहिए या नहीं। मगर मेरी आत्मा के ऊपर एक बोझ था जिसको उतारना आवश्यक था। अगर मैं न बोलता तो पाप का भागी बनता। जितने भाई और बहन इस उत्सव में सम्मिलित हुए हैं वह विविध उद्देश्यों से आए हैं। कोई खेल के लिए, कोई सैर के लिए, कोई व्याख्यान सुनने के लिए। परन्तु आए हम सब उसी ऋषि की शताब्दी मनाने के लिए हैं, अब हम धर्म पर कुछ विचार करेंगे। प्राचीन काल के इतिहास को देखिए, जब देश का अध: पतन आरम्भ हुआ तब सब वेद के मानने वाले थे। फिर यज्ञ का युग प्रारम्भ हुआ। लोगों की यज्ञ में श्रद्धा बढ़ी उसका बहुत प्रभाव बढ़ा। इसके बाद बौद्ध मत का बहुत दौर- दौरा हुआ। महात्मा बुद्ध ने एक प्रकार से यज्ञों के विरुद्ध युद्ध किया और लोगों को शुभ कर्मों के साधनों से भी मुक्ति दिलाई। महात्मा बुद्ध ने अपने प्रचार के लिए संघ स्थापित किए। ये भिक्षुक बनकर जंगल में बसते और धर्म प्रचार करते थे। बौद्ध धर्म के पश्चात् दार्शनिकता पर धर्म की स्थापना की और बौद्ध धर्म को निकालने की कोशिश की फिर तलवार का जोर हुआ और मुसलमान बनाने के लिए तलवारें चलीं। इन दिनों बहुत से आदमी निकले। तुकाराम, भक्त तुलसीदास आदि ने हिन्दू धर्म की जड़ों को सुदृढ़ बनाया। उन दिनों हज़ारों हिन्दू मारे जाते परन्तु इस्लाम स्वीकार न करते। अन्त में एक ऐसी लहर उठी जिसने हवा और सूर्य के झगड़े की तरह काम किया। हवा कुछ न कर सकी और सूर्य ने धीरे-धीरे सब कुछ कराया, अर्थात् इस्लाम जिस हिन्दू जाति को दूर न कर सका उसे ईसाइयों ने पश्चिमी सभ्यता से दूर करना प्रारम्भ किया। जनेऊ टूट गए, चोटियाँ कट गयीं। स्वामी दयानन्द ने इनका इलाज किया। बहुत- से इलाजों में से एक इलाज यह था कि आर्यसमाज की स्थापना की, इन सब प्रयत्नों के अन्तर्गत एक भाव था, वह यह कि देश – धर्म का उद्धार कैसे हो? उन्होंने संस्कार और तर्क पर जोर दिया। इस समय मेरे हृदय में एक विशेष बात है जिसे निवेदन करता हूँ। कोहाट में आर्य, सनातनी आदि सब रहते थे। हिन्दुओं की चार – पाँच हज़ार की आबादी थी। वह सब आज अपने शहर को छोड़कर दूसरे शहर में हैं। इस समस्या की पूर्ति करनी है और सोचना है कि हम देश-धर्म को कैसे स्थिर रख सकते हैं। महात्मा गांधी अभी इस घटना के सम्बन्ध में रावलपिंडी गए थे। वहाँ के मुसलमानों को भी निमन्त्रित किया था। मगर वह मुसलमान जो सरकार के साथ बातचीत करते थे न आए, परन्तु जो उपद्रव के कारण समझे जाते थे, वे आए। महात्मा जी के साथ बातचीत करने से मालूमहुआ कि लड़ाई का मूल कारण ‘कृष्णासन्देश’ नामक पुस्तक न थी -अपितु यह बात थी कि मुसलमान हुए लोगों को वापस लेने के लिए उन्हें शुद्ध करते हैं। वहाँ पर उन्होंने बतलाया कि डेढ़ सौ नर-नारी प्रतिवर्ष मुसलमान बनते थे। महात्मा जी ने पूछा कि स्त्रियों को किस प्रकार मुसलमान बनाया जाता है। उत्तर मिला कि जो विवाहिता होती हैं, मुसलमान होने के बाद उनकी पहली शादी मंसूख हो जाती है। महात्मा जी ने रात-भर सोचकर बतलाया कि इस बातचीत से उनकी आत्मा में एक परिवर्तन पैदा हो गया है। उपद्रव के पूर्व मुसलमानों ने हिन्दुओं का इसी कारण बहिष्कार कर दिया था। मैं कहता हूँ कि मेल-मिलाप हो, स्वराज्य हो, अवश्य हो। परन्तु मैं देखता हूँ कि एक बात मुसलमानों के हृदय में काम करती है कि सबको मुसलमान बना लें। लाहौर में कई मुहल्ले ऐसे हैं जहाँ कि कई बार मुसलमानों ने हिन्दू स्त्रियों को छिपाए रखा। एक जगह पता लगा तो दूसरी जगह ले गए। आर्यसमाज का गौरव तभी बढ़ सकता है जब वह हिन्दू जाति की रक्षा का भार अपने ऊपर लें। आर्यसमाज हिन्दू जाति की रक्षा के लिए बना है। स्वामी दयानन्द ने इसी डूबती नैया को बचाया था। इस बात के लिए उन्होंने सब कुछ बलिदान कर दिया। अगर आर्यसमाजी ऐसा करेंगे तो इससे स्वामी दयानन्द और स्वामी विरजानन्द जी की आत्मा का मिशन पूरा होगा। आप इससे सहमत न हों परन्तु मैंने अपने हृदय का भाव आपके सम्मुख रख दिया है। अगर कप्तान अच्छा हो तो वह जहाज को तूफान से निकाल लेगा। अगर न निकल सकेगा तो जहाज के दूसरे यात्रियों के साथ वह भी डूब जाएगा। यही हाल आर्यसमाज का है। ऋषि दयानन्द का मिशन तब पूरा होगा जब कि सच्चे क्षत्रिय, सच्चे ब्राह्मण और सच्चे देशभक्त पैदा होंगे। कोहाट के उपद्रव में कई आदमियों ने सच्चे क्षत्रियों की भाँति काम किया। एक काहनसिंह ने चार पाँच घंटे अकेले सारे मुहल्ले को बचाए रखा। बाद को पकड़ कर मार दिया गया। एक स्त्री ने अपने घायल पति की रक्षा की और तब तक जाने से इन्कार किया जब तक उसे लाया न जा सका। इसी तरह आज हमारा प्रधान कर्त्तव्य आत्म-रक्षा होगा। अगर आर्यसमाज कर्त्तव्य सिखलाएगा तो वह हिन्दू जाति का प्रधान अंग बन जाएगा। शताब्दी के पवित्र अवसर पर धर्म को बचाओ। धर्म को बचाइए, वह आपकी रक्षा करेगा। अन्त में भाई जी ने स्त्रियों से प्रार्थना की कि वे अपने आपको और अपनी पुत्रियों को इस काम के लिए तैयार करें।

महात्मा हंसराज

देवियो तथा प्यारे भाइयो!
आज का दिन बड़ा शुभ है। आज जो प्रसन्नता मुझे हो रही है उसे मैं छिपा नहीं सकता। यद्यपि यह बड़ा कठिन काम है तथापि हमारा कर्त्तव्य है कि हम आर्यसमाज के आन्दोलनों को देखें। उन पर विचार करें और भविष्य के कार्यक्रम के विषय में अपने विचार स्थिर करें।
आर्यसमाज की आधारशिला एक बड़े व्यक्ति पर रखी गई है। मुझसे कहा गया था कि मैं समाचार-पत्रों द्वारा स्वामी जी विषयक अपने विचारों को जनता के समक्ष रखूँ, परन्तु यह सम्भव न था, अतः, न हो सका। लोग अब तक स्वामी जी तथा उनके मिशन को नहीं समझे। बहुत-से तो कहेंगे कि स्वामी जी में कोई चमत्कार नहीं था अतः वे बड़े आदमी नहीं थे। परन्तु आर्यसमाज तो स्वयं उनकी मानवता से ऊपर अवतारादि कुछ नहीं मानता, न उन्हें किसी धर्म का प्रवर्तक समझता है। वह तो उस महान् पुरुष को वैदिक धर्म का एक सच्चा उपदेशक समझता है और समझता रहेगा। उन्होंने वेदों का पठन-पाठन किया और निश्चय किया कि वे ईश्वरीय ज्ञान के भण्डार हैं। उनके अर्थ लोगों के सामने रखे। लोगों पूछा, “ऋषियों में आपका कौन-सा स्थान होना चाहिए?” वे इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि ऋषिकाल में तो शायद कोई मुझे ऋषि भी न कहता ! आर्यसमाज ऋषि को रसूल वा पैगम्बर नहीं मानता, न यह कि उनके द्वारा मुक्ति मिलेगी। यह भाव तो केवल हमारे मुसलमान और ईसाई भाइयों में है।
दयानन्द हमारे धर्म के सच्चे रक्षक थे। उन्होंने धर्म को बचाया। उनके नाम की जय बोलने और समाज का सभासद बनने से ही कार्य सिद्ध न होगा। इसके लिए स्वयं सदाचारी और संयमी बनना पड़ेगा। हमें स्वार्थ त्याग, देश-सेवा, समाज-सेवा और जाति-सेवा के भावों का अपने में समावेश करना पड़ेगा जैसे कि ऋषि ने किया। गद्दी पर लात मारी, धन की परवाह न की, वेद का प्रचार किया, ईंटें खाईं, गाली खाई परन्तु दृढ़ रहे। उन्होंने जाति-सुधार, देश-सुधार, धर्मोद्धार और आप सब के लिए ही सब कुछ किया। स्वामी जी से उनके कुल कुटुम्ब का नाम पूछा गया परन्तु उन्होंने केवल रियासत का ही नाम बतलाया। उन्हें इसका भय था कि मेरी मृत्यु के बाद घरवाले मठधारी न बन जाए और पूजा न होने लगे। उन्होंने मान-मर्यादा की बलि चढ़ा दी और इन्हीं त्यागों का फल आज आपके सामने है। रावराजा तेजसिंह जी के कथनानुसार उन्होंने प्राचीन ग्रन्थों का प्रचार और मान किया।
उन में अपूर्व शक्ति थी। वे बड़े बलवान् थे। उनका यह विचार नहीं था कि योगी को पतला दुबला और निकम्मा होना चाहिए और साधुओं की नाई उनकी यह धारणा नहीं थी कि परमात्मा के मार्ग में लगे हुए योगी का संसार से कोई सम्बन्ध नहीं। वे समझते थे कि योगी का देश, जाति और संसार के हित के लिए, सत्पथ का उपदेश करना परम कर्त्तव्य है।
सज्जनो! आर्यसमाज की तह में उसी का व्यक्तित्व है। उसके आदेशानुसार चलने से आर्यसमाज सदा फलता-फूलता रहेगा। उसी व्यक्ति के महत्त्व के कारण आर्यसमाज में और कई विशेषताएँ हैं। सब से बड़ी विशेषता यह है कि वह अपना आदर्श बुद्धिवाद पर रखता है। उसने बतलाया कि परमात्मा ने वेद और संसार को रचा है। वैदिक ज्ञान परमेश्वरीय ज्ञान है। उस ज्ञान और सृष्टि – क्रम में कोई भेद नहीं है और यही धर्म की बड़ी कसौटी है। इस्लाम और ईसाई धर्म इस कसौटी पर ठीक नहीं उतरते। मजहब के नाम पर उन्होंने बड़े-बड़े अत्याचार किए। उन्होंने पृथ्वी को गोल और सूर्य को परिक्रमा करने वाली बताने वालों पर जुल्म किए। उन्हें जेलखाने भेजा। इस्लाम का यकीदा है कि मजहब में अक्ल को दखल नहीं। वह मौअज्जजे आदि मानता है। चन्द्रमा के अँगुली से टुकड़े-टुकड़े हो सकने पर उसे विश्वास है। यह बात विज्ञान से सर्वथा असम्भव है। परन्तु वेद के सृष्टि-क्रम और विज्ञान में कोई भेद नहीं है।
आर्यसमाज का जहाँ धर्म प्रचार और वेद – प्रचार कार्य है वहाँ विज्ञान को भले प्रकार समझना, सृष्टि-क्रम का जानना और विद्या-प्रचार भी उसका मुख्य कर्त्तव्य है। हमारा सिद्धान्त है कि विद्या का प्रचार और अविद्या का नाश करना चाहिए। इसी सिद्धान्त पर स्कूल, कॉलिज, पाठशालाएँ और गुरुकुल भी खोले गए हैं। इनमें अकेला पंजाब 35 हजार छात्रों को शिक्षा दे रहा है। यदि आप “सत्यार्थप्रकाश” पढ़ेंगे तो इन सब विषयों को विशद रूप से जान लेंगे।
गीता में लिखा है कि क्षत्रिय युद्ध से न भागे परन्तु स्वामी जी ने बतलाया कि क्षत्रिय का धर्म युद्ध से न भागना है परन्तु यदि भागे बिना प्राण-रक्षा सम्भव न हो तो भागकर प्राण संरक्षरण भी क्षत्रिय – धर्म है। ऋषि प्रत्येक बात को शास्त्रोक्त प्रमाणों से सिद्ध करके मानते थे। उन्हें अधूरी बात पर विश्वास न था। उनका सच्चा विचार बुद्धिवाद पर अवलम्बित होकर सार्वभौम भी था। उन्होंने कहा कि प्रत्येक प्राणी को उचित है कि अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न होकर सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझें। इसके लिए उन्होंने जनता को बलिदान का उपदेश दिया और फलतः स्वयंसेवक के रूप में आर्यसमाज काँगड़े के भूचाल में और मालाबार में पीड़ितों की सहायता करने के लिए गया और जान को जोखिम में डालकर काम किया। जिस समय मालाबार में मुसलमान हिन्दुओं के सिर काट कर कुओं में डालते थे उस समय म० खुशहाल चन्द्र जी ने तथा अन्य पुरुषों ने कैसा आश्चर्यपूर्ण कार्य किया। पीड़ितों को भोजन पहुँचाया। एक हजार मुसलमान हुए हिंदुओं को फिर से वापस लिया। काँगड़े में कॉलिज के विद्यार्थियों ने दबी हुई स्त्रियों को निकाला। कोहाट में की हुई सहायता भी किसी से छिपी हुई नहीं है। इन चालीस वर्षों में अभी एक कार्य नहीं हुआ और वह है कोढ़ीखाना खोलना। वह भी आपके त्याग से होना चाहिए। ऋषि ने प्राणीमात्र को वेद पाठ का अधिकार दिया। समाज को उच्च और विशाल बनाया। वेद प्रचार का भार आपको सौंपा गया। आपका धर्म है कि आप उसके आदर्श को पूरा करें।

पं० चमूपति एम. ए.

देवियो और भद्र पुरुषो!
मैं तो मथुरा नगरी में शिष्य रूप से आया था न कि इस वेदी पर खड़ा होकर व्याख्यान देने के लिए। मैं तो यह विचार मन में रखकर आया था कि अब गुरु की नगरी में चलता हूँ। वहाँ पद – पद पर शिक्षा ग्रहण करूँगा और उन शिक्षाओं को अपने जीवन का आधार बनाकर घर को लौटूंगा। परंतु अब यह कार्य सौंपा गया है कि इस वेदी पर खड़ा होऊँ। मैं लिखने का प्रयत्न कर अपने को उपदेशक नहीं बना सकता। मेरे हृदय का इस समय वही भाव है जो इधर-उधर प्रचार करके अपने माता-पिता के घर पर पहुँचने वाले व्यक्ति का होता है। मैं लाखों बार उपदेशक बनने का विचार करता हूँ परन्तु बन नहीं पाता। यह वही स्थान है जहाँ मैंने उपदेश ग्रहण किया और हमारे गुरु ने उपदेश दिया था। यह स्थान कृष्ण का समझा जाता है। जब यहाँ कंस राजा था तब यहाँ की प्रजा दुःखी थी और प्रजा के कष्ट निवारणार्थ एक तंग कोठरी में कृष्ण ने जन्म लिया था। वे ब्रजपाल थे। लोगों के ऊपर होने वाले बलात्कारों और अत्याचारों को दूर करने के लिए उनका जन्म हुआ था। मुरली द्वारा स्वाधीनता के सन्देश की सुमधुर ध्वनि में गुंजायमान करने के लिए उनका जन्म हुआ था। वह ध्वनि कुरुक्षेत्र में गूँजी थी। उसने रुद्ररूप धारण किया और पापों का नाश किया। कृष्ण को ब्रजपाल कहा जाता है और इसलिए कह जाता है कि उन्होंने मथुरा में जन्म लिया था। आज का समय इसलिए नहीं है कि कृष्ण पर कुछ विचार किया जाए क्योंकि यह पुराना स्वप्न हो गया और इसे कई प्रकार से लांछित किया चुका है। लोगों ने प्यार करते-करते अपने प्यारे को प्यार के योग्य नहीं रखा।
श्रीकृष्ण ने पहला जन्म लिया तो स्वामी दयानन्द ने दूसरा जन्म लिया और संसार में दूसरा जन्म असली जन्म है। कृष्ण ने अपनी माता के गर्भ से जन्म लिया तो स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु से जन्म लिया। शास्त्र में लिखा है कि जब लड़का गुरुकुल में प्रवेश करता है अब आचार्य उस को उसी प्रकार लेता है जिस प्रकार माता अपनी गोद में लेती है। यदि श्रीकृष्ण ने जेल में जन्म लिया तो स्वामी दयानन्द छोटी-सी कोठरी में पैदा हुए। अँधेरे से रोशनी का जन्म होता है। रात में से दिन का उदय होता है। उसी प्रकार तंग कोठरी से प्रकाश होता है। वेद में लिखा है कि आत्मशक्ति का जन्म आग की भट्टी में से होता है।
जब स्वामी जी पाठशाला में थे तब उन्हें झाड़ू देने का काम सौंपा गया था। उन्होंने गुरु की कोठरी में झाड़ दी और संसार को शिक्षा दी कि वह भी झाड़ दे। विरजानन्द समझते थे कि वही झाड़ू संसार की कुरीतियों को बुहार देगी। यह वही स्थान है जहाँ ऋषि दयानन्द पानी भरकर लाते थे और गुरु को स्नान कराते थे। आज उनकी बहाई हुई यमुना में समस्त संसार स्नान करता हुआ दिख पड़ता है। आज हम को यह दिखाना है कि यह स्थान एक समुद्र है और लोग इसमें बहे चले जाते हैं। कृष्ण ने अपना जीवन लीला में बिताया था। ऋषि दयानन्द ने अपना समय भट्टी में बिताया था।
स्वामी दयानन्द के आने के पूर्व सब ऋषियों ने समझा था कि हमें काम नहीं करना है। स्वामी दयानन्द ने कहा कि वेद में लिखा है कि आत्मा कर्म करने लिए है और वह कर्म करते-करते जाएगा। स्वामी दयानन्द के जीवन से यदि कोई शिक्षा मिलती है तो वह यह है कि आत्मा कर्म करते-करते जाता है। स्वामी दयानन्द का जीवन कर्ममय जीवन है।
प्रोफेसर मैक्समूलर एक स्थान पर धर्मों व मतों का विभाग करते हुए कहते हैं धर्म के दो रूप हैं एक प्रचारक धर्म और दूसरा अप्रचारक। मिशनरी का धर्म प्रचारक धर्म है? संसार में जो फिर जन्म लेता है वह समझता है कि संसार पर अपने धर्म की ज्योति डाल दे। अप्रचारक धर्म वह है जिसके अनुयायी यह चाहें कि हमारे धर्म का संसार में प्रचार न हो। प्रोफेसर मैक्समूलर लिखता है ‘ईसाई और इस्लाम ही प्रचारक धर्म हैं। बौद्ध और हिन्दू धर्म अप्रचारक धर्म हैं। वैदिक धर्म भी अप्रचारक है।
यदि स्वामी दयानन्द के उपदेशों को हम छोड़ देते तो सचमुच हमारा धर्म अपचारक धर्म था। हम कहते थे, हम दया करते हैं, परन्तु दया का स्वरूप नहीं जानते थे। आज आर्यजाति का बच्चा-बच्चा जानता है कि जो हिन्दू मुसलमान हो गया हो उसे हम अपनी जाति में पुनः ले सकते हैं। बात यह है कि लोगों ने धर्म के स्वरूप को शुद्धि के स्वरूप में नहीं पहचाना इसका स्वरूप समझा है मौलाना मुहम्मद अली ने। कोकनाडा काँग्रेस में उन्होंने कहा था कि हिन्दू और मुसलमानों में केवल इतना ही भेद है कि “मुसलमान एक हण्डिया पकाते हैं।” वे बड़े से आदमी को इसमें से खिलाना चाहते हैं। वे सब इस विषय में एक हैं। विपरीत इसके हिन्दू समझता है कि उसने एक बड़ा चौका तैयार कर लिया है और उसके भोजन पर हरेक की दृष्टि नहीं पड़ सकती है।” हम यह समझते हैं कि मुसलमान को मुसलमान रहने दें। ईसाई को ईसाई रहने दें। असल में हम आलसी थे। हम ऐल्त में आने से डरते थे। स्वामी दयानन्द आया। उसने अपने नाम को सार्थक किया। दया को क्रिया का रूप दिया।
बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ राजकुमार चीन में गया था, बर्मा में गया था, परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज बौद्ध धर्म को भी अप्रचारक धर्म कहा जाता है। स्वामी दयानन्द आए और उन्होंने वेद के शब्दों में नाद बजाया और कहा कि हमें सबको आर्य बनाना है। ऐसे नहीं जैसे कि मौ० ख्वाजा हसन निज़ामी चाहते हैं। आज स्वामी दयानन्द का नाम लेते हैं तो उनके जीवन की क्रिया मालूम हो जाती है कि किस प्रकार उन्होंने अपने मत को फैलाया था।
जिस दिन मैं लाहौर से रावलपिंडी आया उस दिन लोगों ने मुझसे कहा, कि यह वही स्थान है जहाँ स्वामी दयानन्द भटकता था और लोग उसे बैठने नहीं देते थे। यह वही स्थान है जहाँ पर लोगों ने ईंट-पत्थरों से स्वामी का स्वागत किया था। अब लोग उसे खोजते हैं परन्तु वह नहीं मिलता है। आज वह दिन है कि जिस दिन संसार बदला है। जमीन आसमान बन गई है और आसमान जमीन बन गया है। आज लोग कहते हैं, “स्वामी दयानन्द ! आओ और अपने चरणों से हमारी आँखो को तृप्त करो। ” लाहौर में जगह नहीं मिलती थी। एक मुसलमान भाई ने जगह दी थी। जिस समय मैं लाहौर के मुसलमानों का विचार करता हूँ तो सबसे पहले रहनुमाखाँ का ध्यान आता है। सब लोग कहते हैं कि यह वही मुसलमान है जिसने स्वामी जी से अपने मकान के पास ठहराने को कहा था। उस समय मैं मुहम्मद अली का नजारा भूल जाता हूँ। मैं उसका बड़ा कृतज्ञ हूँ। स्वामी दयानन्द उस मुसलमान के कोठे पर जा उतरे। रात्रि में लैक्चर होना है, विषय है “कुरान का खंडन”। आवाज उठती है “विचित्र प्रकार का आदमी है।” पौराणिक अपने घर में स्थान नहीं देते हैं, ब्रह्मसमाजियों ने उसे अपनी वेदी से नीचे उतार दिया है, बड़ी कृपा से रहनुमा ने स्थान दिया है पर उस उपकार का बदला यह है कि स्वामी कुरान का खंडन करता है। स्वामी दयानन्द कहता है, “इसमें सन्देह नहीं कि जब मुझे कहीं स्थान न मिला तब रहनुमाखाँ ने अपने घर में बसाया और सहायता के लिए आसन बिछाया। मैं भी उसे मानता हूँ। परन्तु मैंने तो घरबार छोड़ दिया है, आकाश की छत के नीचे बसेरा करता हूँ, समस्त पृथ्वी मेरा घर है। कुछ दे नहीं सकता हूँ। रुपया नहीं, मान नहीं, राज्य नहीं। मैं क्या दे सकता हूँ? एक चीज है जिसके लिए माता की तपश्चर्या को पीछे छोड़ा। पिता के प्रेम को छोड़ आया हूँ। मित्रों की मित्रता को त्याग आया हूँ। अनाथ हो गया हूँ। अकिंचन हो गया हूँ। जंगलों में फिरता हूँ। पहाड़ों में फिरता हूँ। झाड़ियों के अन्दर काँटों को लाँघ कर फिरता हूँ। किस लिए? एक सत्य की खोज के लिए। किसी ऋषि के विषय में सुनता हूँ कि जंगलों में रहते हैं और वहीं पहुँचता हूँ। ”
एक स्थान पर एक पादरी स्वामी जी का भक्त बन गया है। वह गिरजा में उनकी प्रार्थना किया करता है। एक ईसाई पादरी स्वामी दयानन्द के चरणों में गिरता है और उसका नाम पड़ता है भक्त स्कौट। वह प्रति दिन आता है। एक दिन स्कौट भक्त नहीं आया। क्यों नहीं आया? आज रविवार है। एक दिन ऋषि दयानन्द गिरजा में जाता है और वहाँ उपदेश बन्द हो जाता है। स्वामी जी को उपदेश देने के लिए खड़ा किया जाता है। वह उपदेश देते हैं। वह उपदेश क्या है? वेद कहता है कि सारे संसार को आर्य बनाओ।
दूसरे धर्मों ने अपना-अपना प्रचार किया। किसी ने तलवार से और किसी ने धन से। स्वामी दयानन्द ने धर्म के मार्ग से किया। वह अधर्म के मार्ग से नहीं कर सकते थे! यह क्रियात्मक उपदेश है। आज तो राजनैतिक क्षेत्र में उपदेश दिया जाता है कि यदि धर्मोपदेश होगा तो मतभेद उत्पन्न होगा। आप विचार करें कि इतना झगड़ा बढ़ गया है, अतः हमें उदार बनना आवश्यक है। स्वामी दयानन्द के आने से पहले आर्यों की आँखें नीची थीं। स्वामी जी ने उन्हें ऊँचा कर दिया।
हम आज मथुरा नगरी में शिष्यभाव से आए हुए हैं। अतः यह विचार लेकर जाएँ कि ऋषि सारे संसार के लिए था। हम भी समस्त संसार के हो जाएँ। भारत के लिए ही नहीं, एशिया के लिए ही नहीं।
एण्ड्रयूज लिखता है कि फिजी, मॉरीशस और इंग्लैण्डादि द्वीपों में स्वामी का नाम रोशन है। इससे मैं समझता हूँ कि उसका नाम सार्वभौम होने वाला है। अब आर्यों का यह कर्त्तव्य हो गया है कि वे अपने जीवन को प्रचार के अर्पण कर दें और जियें तो इस लिए जियें कि वेदों के सन्देह का प्रचार करना है। जब मुसलमान मेरी आँखों के सामने आते हैं तब मुझे उनके अगुआ रहनुमाखाँ की याद आती है और जब ईसाई सामने आते हैं तब भक्त स्कौट की याद आती है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि लोग इसी प्रकार लोगों का उपकार करते हुए ईश्वर के भक्त बनें।

डॉ० दमयन्ती देवी

पूज्य माताओ एवं पूज्य भाइयो!
इस समय आवश्यक न था कि मैं खड़ी होकर आपके सन्मुख अपने विचारों को प्रकट करूँ। मेरे एक भाई ने अभी आप लोगों से आज के खेल-तमाशों के स्थगित होने के विषय में कहा है तथा साथ-ही-साथ स्त्रियों से प्रार्थना की गई है कि वे भी आज कुछ काम करें। अतः मैंने भी आपके कानों तक कुछ शब्द पहुँचाने का साहस किया है। मेरा तात्पर्य मेरी माताओं से है। आप जानते हैं कि जब संसार में कोई राष्ट्र उन्नति करने लिए लालायित होता है उस समय वह अपनी कमजोरियों पर विचार किया करता है। उस समय विचार उत्पन्न होता है कि हमारे पतन का क्या कारण है? बैद्यक शास्त्र में किसी व्यक्ति के रुग्ण हो जाने पर रोग का निदान ही प्रधान माना जाता है। आजकल लोग निदान किए बिना ही चिकित्सा करना आरम्भ कर देते हैं जिसके फलस्वरूप रोग – वृद्धि हो जाती है और अन्त में जिस समय वे डॉक्टरों के पास पहुँचते हैं उस समय डाक्टर लिख देते हैं Remove the cause कारण को दूर करो। आप लोग व्याकुल न हों, मैं डॉक्टरी के विषय में व्याख्यान देने नहीं खड़ी हुई हूँ। जब मनुष्य – रक्षा के लिए एवं शरीर को सुख देने के कारण खोजना परमावश्यक है, तब क्या उस देश की रक्षा के लिए जो चिरकाल से रुग्ण है, उसके रोग का निदान जानकर उपाय सोचना आवश्यक नहीं है? यदि इसके रोग ग्रसित हो जाने पर कोई योग्य डॉक्टर इसके रोग का कारण ढूँढने के लिए तन, मन और धन से कटिबद्ध हो जाता और उसके दूर ‘करने में अपनी बलि दे देता, तो आज इसकी ऐसी बुरी अवस्था न होती और हम लोग इस पाखंड नगरी मथुरा में न आते।
हमारी हिन्दू जाति का नाम मिट रहा था। उस समय ऐसा डॉक्टर आता है जो हमारी नाड़ी देखकर हमारे मुर्दा पड़े रहने का कारण जान लेता है। वह आते ही दवाई देने का प्रयत्न नहीं करता है। बहुत-से डॉक्टर रोग को न जानकर दवाई देने में मूर्खता करते हैं। सच्चा डॉक्टर महर्षि दयानन्द था। उन्होंने रोग का कारण ढूँढा और उसे हमारे सामने रख दिया। उन्होंने अपने आत्मिकबल द्वारा रोग के समस्त कारणों को ढूँढकर हमारा इलाज किया और हमारे दुःखों को दूर कर दिया। परन्तु हमारे दुर्भाग्य से वे अधिक काल तक यहाँ न रह सके।
हमने अछूतों के साथ दुर्व्यवहार किया और हमारे इस प्रकार के दुर्व्यवहार ने भारत का विनाश किया। हम लोग वैदिक धर्मावलम्बी होते हुए दुःखी है। देवतास्वरूप भाई परमानन्द जी के हृदयवेधी व्याख्यान को सुनकर आप लोगों को ज्ञात हो गया होगा कि हिन्दू जाति पर कितने अत्याचार किए जा रहे हैं। मैं आपकी सेवा में निवेदन करती हूँ कि हमें कारण ज्ञात है परन्तु हम उसका उपाय नहीं कर सकते। इसमें हमारे पूज्य गुरुजनों, माताओं एवं भाइयों का दोष नहीं हो सकता, इसमें तो हमारा ही दोष है हमारी कुरीतियाँ ही हमारे दोष हैं। सबसे भयंकर कुरीति बाल-विवाह है। हमारी इच्छा है कि हमारी पुत्रियाँ और बहिनें मिशनरी स्त्रियों के समान हों। मैंने देखा है कि पिता की इच्छा होती है कि हमारा पुत्र देश और जाति की सेवा करे, परन्तु माता सभा सोसाइटियों में न जाने के कारण उसे शिक्षा नहीं दे सकती। अतः पिता की इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती। अब संसार बदल गया। हमारे यहाँ के दुर्गुणों के कारण हमारे दिमाग कमजोर हैं। लोग कहते हैं कि भाइयों तुम बड़ों का कहना क्यों मानते हो? आप एक हजार वर्ष पहले के बूढ़ों की आज्ञाओं पर ध्यान दें।
मैं पंजाबी भाइयों और बहिनों का इस विषय पर विशेष ध्यान आकर्षण करना चाहती हूँ। यहाँ पर बड़ी-बड़ी काँग्रेसें और क्रॉन्फ्रेंसें हुई और जनता को अछूतों को मिलाने के लिए उपाय बतलाए गए। क्या आपने उन उपायों पर अमल किया? पंजाब में स्यापा की बड़ी बुरी प्रथा वर्तमान है। इसमें बड़े दोष हैं। बदन को उघाड़ कर बाजारों में रोते हुए फिरना कहाँ की सभ्यता है। हाय-हाय कर नाचना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। ये दैविक नियम का उल्लंघन करती हैं। वेद की शिक्षा है जो ईश्वर ने किया है उसी पर सन्तुष्ट रहो। मैं अपनी पंजाबी माताओं और बहिनों से निवेदन करती हूँ कि वे इस कुप्रथा का परित्याग कर दें, नहीं तो सी०पी० और यू०पी० की स्त्रियाँ हम पर हँसेंगी।

राजाधिराज नाहरसिंह वर्मा (शाहपुरा)

(आर्यकुमार सम्मेलन में भाषण)
“आज दिन तक जितने अवतार, जितने आचार्य, जितने वीर,जितने सम्राट्व लाट हुए हैं उन सबों ने अपने जीवन काल की भावी उन्नति के साधनों को में प्राप्त किया है अतएव सभी अवस्थाओं में यह कुमारावस्था ही कुमारावस्था सर्वोत्तम है। कुमारगण ही देश, जाति वा धर्म के संरक्षक हैं। जिस देश व जाति के कुमार सदाचारी, विद्यानुरागी और सकुर्मानुयायी होते हैं वह देश तथा जाति उन्न होती है और इसके विपरीत बिगड़ जाती है। महर्षिवर श्री दयानन्द सरस्वती जी जब मुझ पर कृपा करके शाहपुर पधारे थे तो उन्होंने मुझे यह बतलाया कि आर्यधर्म जो शिथिल हो चला है और देश दीनावस्था को पहुँच रहा है इसका मुख्य कारण एतद्देशीय कुमारों की दीनता है। इस देश में अब तक ब्रह्मचर्य-व्रत- पालन-परिपाटी, स्वाध्याय और सदाचार के नियम नहीं पाले जाते जिससे हमारा देश निर्बल, मूर्ख और धर्महीन होता जा रहा है इसलिए देश, धर्म और जाति के कल्याणकारी आप कुमार ही हैं। वर्तमान काल में जो आपके वृद्ध नेता कर रहे हैं वे इस आशा पर कर रहे हैं कि हमारा कुमार – समूह तैयार हो रहा है, वह हमारे मस्तक का भार उतार लेगा। मैं आशा करता हूँ कि यह परिषद् उनकी आशा पूर्ण करेगी।
आर्यकुमार परिषद् क्या है? मेरी समझ में वह सच्चा आर्य बनने का साँचा है। इस परिषद् के द्वारा ही हम “कृणवन्तो विश्वमार्यम्” का सिद्धान्त पालन कर सकेंगे या यों समझिए कि यह वह नर्सरी है कि जिसमें आर्य कल्पतरु के पौधे पाले जाते हैं। मैं कुमार परिषद् के कुमारों से अनुरोध करता हूँ कि वे अपने पर बड़ी भारी जिम्मेदारी का काम उठा चुके हैं। उस कार्य को सिद्ध करने के लिए वेद भगवान् की आज्ञाओं का पालन कर ब्रह्मचर्य आदि महाव्रतों का पालन परमावश्यक है, क्योंकि कुमारवृन्द देश के भाग्य – निर्माण की सामग्री हैं। ब्रह्मचर्य से ही धर्म कमाया जाता है। आयुर्वेद की नीति से सिद्ध है कि बिना ब्रह्मचर्य के शारीरिक दिव्य शक्ति प्राप्त नहीं होती और शारीरिक शक्ति के बिना धर्म का साधन नहीं होता। कहा भी है “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” यह शरीर धर्म, अर्थ, काम, मोक्षादि फलचतुष्टय के लिए होता है। इसलिए अखण्ड सुख प्राप्ति के लिए पहला सोपान ब्रह्मचर्या श्रम ही है।
“कुमारगण! आर्य संसार टकटकी लगाकर आपकी ओर देख रहा है। क्योंकि फूल मुरझाने वाले होते हैं और बीज में फलों की आशा रहती है। आप लोगों पर ही देश व धर्म के उद्धार का भार है। इसलिए आप लोग वीर बनें, सच्चे धर्मात्मा बनें, ब्रह्मचारी बनें, परोपकारी बनें और आपकी भावी सन्तानें भारत का मुख उज्ज्वल करने वाली हों। उनके द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार हो और विश्वमात्र का उपकार हो।”