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महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य के बाद सभी लोगों का वेदों के प्रति दृष्टिकोण बदल गया। मैक्समूलर जैसा व्यक्ति भी बाद में यह कहने पर विवश हुआ कि-‘‘हम तो वैदिक साहित्य की सामुद्रिक सतह पर ही फिरते हैं। अभी हमने उस समुद्र में गोता लगाकर रत्न नहीं निकाला। हमने तीस वर्ष के परिश्रम के बाद वेद का जो अनुवाद किया वह आज प्रमाणित नहीं है। शुद्ध और सम्पूर्ण अनुवाद के लिए एक शताब्दि और चाहिए। इस पर भी मुझे यह शंका है कि हम वेद का सत्य अनुवाद कर भी सकेंगे? यही नहीं ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के अध्ययन के बाद मैक्समूलर कहता है- ‘‘मेरा यह निश्चित मत है कि संसार में मनुष्य मात्र के स्वाध्याय के लिए वेद के अतिरिक्त अन्य कोई आवश्यक ग्रन्थ नहीं है।’’ तथा ‘‘मेरा विचार है कि आत्म ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा रखने वाले तथा अपने पूर्वजों, इतिहास और मस्तिष्क की उन्नति के लिए सचेत प्रत्येक व्यक्ति के लिए वेद का स्वाध्याय नितान्त आवश्यक है। महर्षि दयानन्द जी के भाष्य के बारे में यही मैक्समूलर लिखता है- ‘‘स्वामी दयानन्द के लिए वेद में लिखी प्रत्येक बात न केवल पूर्णतया सत्य है अपितु वह इससे भी एक पग आगे गए तथा वे वेद की व्याख्या से दूसरों को यह निश्चय कराने में सफल हुए हैं कि प्रत्येक जानने योग्य बात वेद में पाई जाती है अतः आधुनिक विज्ञान के आविष्कार भी वेद में वर्णित हैं।’’
महर्षि दयानन्द जी के भाष्य के बाद वेदों के प्रति सभी की दृष्टि साफ हो गई तथा अनेक भारतीय और पाश्चात्य लोगों ने उनकी भूरि-भूरि प्रसंशा की है। पिट्स ने कहा-‘‘पाश्चात्य विद्वानों का संस्कृत और वेदों का ज्ञान नहीं के बराबर है। हमें उनके कथन पर बिल्कुल विश्वास नहीं। हम केवल दयानन्द के भाष्य को ही प्रमाणित समझते हैं।’’
महात्मा टी॰एल॰ वासवानी के विचारानुसार-‘‘स्वामी दयानन्द सरस्वती वेदों के ज्ञान के प्रति भारतीयों का ज्ञान चक्षु खोलने वाला पहला व्यक्ति था। मुझे आधुनिक भारत में स्वामीजी के समान कोई भी विद्वान ज्ञात नहीं।’’
फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान लूई रेन का कथन है- ‘‘सनातन हिन्दू धर्म का एक स्पष्ट मान्यता सूत्र वेदों के प्रति एकान्त विश्वास है इसलिए हमें दयानन्द को वेदों के प्रति परम्परागत आदर भाव देख कर कोई आश्चर्य नहीं होता किन्तु सनातन हिन्दू धर्म में वेदों के प्रति इस प्रकार की आस्था दिखाना तो बहुत कुछ वैसा ही है जैसा कोई श्रद्धालु किसी रास्ते पर या चैराहे पर किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देता है, भावी जीवन में चाहे इस मूर्ति से उसका कोई वास्ता पड़े या नहीं, किन्तु दयानन्द के लिए यह बात नहीं थी। उन्होंने तो वेदों से सचमुच अपने कार्य की प्रेरणा ली थी। दयानन्द ने वेदों के साथ बिना शर्त जुड़ने की बात कही और कहा कि विशुद्ध तथा सामाजिक एवं नैतिक सुधार के मूल सूत्र वेदों में ही उपलब्ध हैं।’’
महर्षि दयानन्द जी के वेद भाष्य के बारे में योगी अरविन्द जी लिखते हैंः-‘‘ वैदिक व्याख्या के बारे में मेरा यह विश्वास हो चुका है कि वेदों की अन्तिम पूर्ण व्याख्या चाहे कुछ भी हो, दयानन्द प्रथम सत्य मार्ग दर्शक के रूप में सम्मानित किए जाएँगे। समय ने जिन द्वारों को बन्द कर दिया था, दयानन्द ने उनकी चाबियों को पा लिया और बन्द पड़े हुए स्रोतों की मुहरों को तोड़ कर परे फैंक दिया।’’
(शांतिधर्मी मासिक पत्रिका में प्रकाशित एक लेख का अंश)

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