महर्षि दयानन्द रचित पुस्तकों में एक छोटी से पुस्तक ‘गोकरुणानिधि’ है। देखने में तो छोटी सी है, किन्तु महत्त्व में यह कम नहीं है। इसकी रचना स्वामी जी ने आगरा में की थी। पुस्तक के अन्त में स्वामी जी ने स्वयं लिखा है कि यह ग्रन्थ संवत् 1937 फाल्गुन कृष्णा दशमी गुरुवार के दिन बन कर पूर्ण हुआ। यह 15 दिन में ही छप कर तैयार हो गया और शीघ्र ही बिक कर समाप्त हो गया। एक वर्ष के अन्दर ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। स्वामी जी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद भी करवाया था।
गोकरुणानिधि तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में गाय आदि पशुओं की रक्षा के विषय में समीक्षा लिखी गयी है। यह समीक्षा भी दो प्रकरणों में है। प्रथम प्ररण में गाय आदि पशुओं की रक्षा का महत्त्व बताया गया है। दूसरे प्रकरण में हिंसक और रक्षक का संवाद है, जिसमें मांसभक्षण के पक्ष में जो भी बातें कहीं जा सकती हैं, वे सब एक-एक करके हिंसक के मुख से कहला कर रक्षक द्वारा उन सबका उत्तर दिलाया गया है। इससे अन्त में यह परिणाम निकलता है कि मांसभक्षण सर्वथा अनुचित है। यह संवाद बड़ा ही रोचक और शिक्षाप्रद है। शिक्षणालयों में एक छात्र को हिंसक तथा दूसरे को रक्षक बना कर इसका अभिनय किया जा सकता है। हिंसक और रक्षक के संवाद के बाद मद्यपान तथा भांग आदि के सेवन के दोष बताये गये हैं, क्योंकि मांसभक्षण से मद्यपान तथा भांग आदि नशीले पदार्थों के सेवन की आदत भी पड़ जाती है। पुस्तक के दूसरे भाग में गोकृष्यादिरक्षिणी सभाओं के नियम लिखे हैं तथा तीसरे भाग में उपनियम हैं।
भूमिका में ग्रन्थ का प्रयोजन बताते हुए महर्षि लिखते हैं- “यह ग्रन्थ इसी अभिप्राय से रचा गया है, जिससे गौ आदि पशु जहां तक सामर्थ्य हो बचायें जावें और उनके बचाने से दूध, घी और खेती के बढ़ने से सबको सुख बढ़ता है।”
गाय आदि पशुओं की रक्षा क्यों आवश्यक है यह समझाने के लिए महर्षि हिसाब लगाकर बताते हैं कि एक गाय की पीढ़ी रक्षा करने पर कितना लाभ पहुंचा सकती है, जबकि उसे काट कर उसका मांस खाने से उसकी तुलना में कुछ भी उपकार नहीं होता। वे लिखते हैं-
“जो एक गाय न्यून से न्यून दो सेर दूध देती हो और दूसरी बीस सेर, तो (औसत से) प्रत्येक गाय के ग्यारह सेर दूध होने में कोई शंका नहीं। इस हिसाब से एक मास में सवा आठ मन दूध होता है। एक गाय कम से कम 6 महीने और दूसरी अधिक से अधिक 18 महीने तक दूध देती है तो दोनों का मध्य भाग प्रत्येक गाय के दूध देने में 12 महीने होते हैं। इस हिसाब से 12 महीनों का दूध 99 मन होता है।”
“इतने दूध को औटाकर प्रति सेर में छटांक चावल और डेढ़ छटांक चीनी डाल कर खीर बना खावे, तो प्रत्येक पुरुष के लिए दो सेर दूध की खीर पुष्कल होती है, क्योंकि यह भी एक मध्यमान की गिनती है, अर्थात् कोई दो सेर दूध की खीर से अधिक खाएगा और कोई न्यून। इस हिसाब से एक प्रसूता गाय के दूध से एक हजार नौ सौ अस्सी मनुष्य एक बार तृप्त होते हैं। गाय न्यून से न्यून 8 और अधिक से अधिक 18 बार ब्याहती है, इसका मध्यभाग 13 आया। तो पच्चीस हजार सात सौ चालीस मनुष्य एक गाय के जन्मभर के दूध मात्र से एक बार तृप्त हो सकते हैं।”
“इस गाय की एक पीढ़ी में छ: बछिया और सात बछड़े हुए। इनमें से एक की मृत्यु रोगादि से होना सम्भव है, तो भी बारह रहे। उन छ: बछियाओं के दूध मात्र से उक्त प्रकार एक लाख चौवन हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन हो सकता है। अब रहे छ: बैल। उनमें एक जोड़ी से दोनों साख में दो सौ मन अन्न उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार तीन जोड़ी 60० मन अन्न उत्पन्न कर सकती हैं। और उनके कार्य का मध्यभाग आठ वर्ष है। इस हिसाब से चार हजार आठ सौ मन अन्न उत्पन्न करने की शक्ति एक जन्म में तीनों जोड़ी की है।”
“480० मन अन्न से प्रत्येक मनुष्य का तीन पाव अन्न भोजन में गिने, तो दो लाख छप्पन हजार मनुष्यों का एक बार भोजन होता है। दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि चार लाख दस हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। अब छः गाय की पीढ़ी पर-पीढ़ियों के हिसाब लगा कर देखा जावे तो असंख्य मनुष्यों का पालन हो सकता है। और इसके मांस से अनुमान है कि केवल 80 मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। देखो, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?”
इस प्रकार बकरी के लिए भी हिसाब लगा कर दिखाया है परन्तु महर्षि केवल गाय और बकरियों की ही रक्षार्थ सचेष्ट नहीं थे, प्रत्युत सभी उपयोगी पशुओं की रक्षा आवश्यक समझते थे, और किसी भी पशु का मांस खाने के सर्वथा विरुद्ध थे।
गाय आदि पशुओं की रक्षा के लिए महर्षि दयानन्द की आतुरता उनकी निम्नलिखित पंक्तियों से प्रकट हो रही है- “गौआदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का ही नाश होता है क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना घी दूध और बैल आदि पशु इस समय दशगुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते।”
“हे मांसाहारियों! तुम लोगों को जब कुछ काल पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं? हे परमेश्वर तू क्यों इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है? क्या इसके लिए तेरी न्यायसभा बन्द हो गई है?”
दयामय दयानन्द ने गाय आदि पशुओं की हत्या रुकवाने के लिए देशव्यापी हस्ताक्षर-अभियान चलाया था। उनका प्रयत्न था कि गौ हत्या रोकने विषयक प्रार्थनापत्र पर दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर करवा कर ब्रिटिशसम्राज्ञी विक्टोरिया को वह प्रार्थनापत्र भेजा जाए। इसके लिए उन्होंने राजा से रंक तक सभी को प्रेरित किया था। इस प्रार्थनापत्र पर उदयपुर के महाराजा श्री सज्जन सिंह, जोधपुर के महाराजा यशबन्तसिंह, शाहपुराधीश, नाहरसिंह, महाराजा बूंदी आदि ने भी हस्ताक्षर किये थे तथा अपनी प्रजा से भी कराये थे। महर्षि के असामयिक देहावसान के कारण यह कार्य बीच में ही रुक गया।
स्वामी दयानन्द गोकृष्यादिरक्षिणी सभा की स्थापना करना चाहते थे। इसे वे विश्वव्यापी बनाना चाहते थे। सब विश्व को विविध सुख पहुंचाना इस सभा का मुख्य उद्देश्य नियमों में वर्णित किया गया है तथा लिखा है कि जो मनुष्य इस परमहितकारी कार्य में तन-मन-धन से प्रयास और सहायता करेगा, वह इस सभा के प्रतिष्ठायोग्य होगा। यह भी लिखा है कि क्योंकि यह कार्य सर्वहितकारी है, इसलिए यह सभा भूगोलस्थ मनुष्यजाति से सहायता की पूरी आशा रखती है। जो सभा देशदेशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में परोपकार ही करना अभीष्ट रखती है, वह सभा की सहकारिणी समझी जायेगी। महर्षि के 12 जनवरी सन् 1882 ई० के पत्र से ज्ञात होता है कि उन्होंने आगरा में एक “गो-रक्षिणी सभा” स्थापित की थी और उसके नियमोपनियम भी बनाये थे। सम्भवतः वे ही नियमोपनियम गोकरुणानिधि में उन्होंने छपवाये होंगे।
गोकृष्यादिरक्षिणी सभा के नियमों में लिखा है कि जो सभा के उद्देश्य के अनुकूल आचरण करने को उद्यत हो तथा जिसकी आयु 18 वर्ष से न्यून न हो वह इस सभा में प्रविष्ट हो सकता है। जो इस सभा में सदाचारपूर्वक एक वर्ष रह चुका हो और अपनी आय का शतांश या अधिक देता रहा हो, वह ‘गौ रक्षक सभासद्’ हो जायेगा और उसे सम्मति देने का अधिकार प्राप्त हो जायेगा। वर्ष भर सभा में रहने के नियम को विशेष परिस्थितियों में अन्तरंग सभा शिथिल भी कर सकती है। राजा, सरदार, बड़े-बड़े साहूकार आदि को सभा के सभासद् बनने के लिए शतांश देना आवश्यक नहीं होगा। वे एक बार या मासिक या वार्षिक अपने उत्साह वा सामर्थ्य के अनुसार देकर सभासद् बन सकते हैं। अन्तरंग सभा किसी विशेष हेतु से चन्दा न देने वाले को भी गौ रक्षक सभासद् बना सकती है।
उपनियमों में अंकित है कि सभा के समस्त कार्यप्रबन्ध के लिए एक अन्तरंग सभा नियत की जायेगी और उसके तीन प्रकार के सभासद होंगे एक प्रतिनिधि दूसरे प्रतिष्ठित और तीसरे अधिकारी। प्रत्येक दो सप्ताह बाद अन्तरंग सभा अवश्य हुआ करेगी और मन्त्री तथा प्रधान भी आज्ञा से या जब अन्तरंग सभा के पांच सदस्य मन्त्री को पत्र लिखें तब भी हो सकती है।
गोकृष्यादिरक्षिणी सभा का कार्य क्या होगा एतदर्थ लिखा है कि संप्रति इस सभा के धन का व्यय गौ आदि पशु लेने, उनका पालन करने, जंगल और घास के क्रय करने, उनकी रक्षा के लिए भृत्य वह अधिकारी रखने, तालाब, कूप, बावड़ी अथवा बाड़ा बनाने के निमित्त किया जायेगा। पुनः अत्युन्नत होने पर सर्वहित कार्य में भी व्यय किया जा सकेगा। यह भी निर्देश है कि इस सभा के जो पशु प्रसूत होंगे, उनका दूध एक मास तक उनके बछड़े को पिलाना चाहिए और अधिक होने पर उसी पशु को अन्न के साथ खिला देना चाहिए। दूसरे मास से तीन स्तनों का दूध बछड़े को देना चाहिए और एक स्तन का स्वयं लेना चाहिए। तीसरे मास के आरम्भ से आधा दूध लेना और आधा बछड़े को तब तक देते रहना चाहिए जब तक गाय दूध देती है। सभा जब किसी को स्वरक्षित पशु देवें, तब यह व्यवस्था कर ले कि जब वह पशु असमर्थ हो जायेगा, उसके काम का न रहेगा, तब वह पुनः उसे सभा के अधीन कर देगा।
स्वामी दयानन्द का अभिप्राय था कि गाय-बैलों की रक्षा होगी तो घी-दूध, अन्न प्रचुर मात्रा में मिलेगा, कृषि उन्नत होगी, देशवासी बलवान् तथा बुद्धिमान बनेंगे और इस प्रकार प्रत्येक देश के समुन्नत होने पर यह धरती गरिमामयी बन सकेगी।
ग्रन्थ को समाप्त करते हुए महर्षि ने एक बड़ा ही मार्मिक श्लोक लिखा है-
धेनुः परा दया पूर्वा यस्यानन्दाद् विराजते।
आख्यायां निर्मितस्तेन ग्रन्थो गोकरुणानिधि:।।
अर्थात् जिसके नाम में आनन्द शब्द के बाद ‘धेनु’ विराजमान है और आनन्द शब्द से पूर्व ‘दया’ है, उस ‘दयानन्द सरस्वती’ ने यह गोकरुणानिधि नामक ग्रन्थ निर्मित किया है। सरस्वती के अनेक अर्थों में एक अर्थ धेनु (गाय) भी होता है, इस दृष्टि से आनन्द शब्द के बाद धेनु का होना लिखा है। इससे यह सूचित होता है कि मेरे नाम का ही यह अर्थ है कि ‘धेनुओं पर करुणा करके आनन्द मानने वाला’ अतः मेरा ‘गोकरुणानिधि’ ग्रन्थ लिखना स्वाभाविक ही है।
गो-रक्षा और पशु-रक्षा का प्रश्न जैसा महर्षि दयानन्द सरस्वती के समय था, वैसा ही आज भी है और उनके द्वारा किये गये गौ आदि पशुओं की रक्षा के प्रयास आज हमें भी अपने कर्त्तव्य का बोध करा रहे हैं।
[साभार- आर्य मर्यादा]