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भारत की उत्कृष्ट वैदिक संस्कृति एवं सभ्यता की लाखों वर्षों की गरिमामयी विरासत मध्यकाल के तमसाच्छन्न युग में लुप्तप्राय हो गई। सैंकड़ों वर्षों की राजनीतिक पराधीनता के कारण विचलित, निराश व हताश भारतीय जनमानस को महर्षि दयानंद सरस्वती ने आत्मबोध, आत्मगौरव, स्वाभिमान एवं स्वाधीनता का मंत्र प्रदान किया। स्वामी दयानंद 19वीं सदी के नवजागरण के सूर्य थे, जिन्होंने मध्ययुगीन अंधकार का नाश किया। महर्षि दयानंद के प्रादुर्भाव के समय भारत धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टि से अतिजर्जर और छिन्न-भिन्न हो गया था। ऐसे विकट समय में जन्म लेकर महर्षि ने देश के आत्मगौरव के पुनरुत्थान का अभूतपूर्व कार्य किया। लोक कल्याण के निमित्त अपने मोक्ष के आनंद को वरीयता न देकर जनजागरण करते हुए अंधविश्वासों का प्रखरता से खंडन किया। अज्ञान, अन्याय और अभाव से ग्रस्त लोगों का उद्धार करने हेतु वे जीवनपर्यंत संघर्ष करते रहे। महर्षि दयानंद ने सत्य की खोज के लिए अपने वैभवसंपन्न परिवार का त्याग किया।

1875 में स्वामी दयानंद ने बंबई (अब मुंबई) में आर्य समाज की स्थापना की। उन्होंने वेदों को समस्त ज्ञान एवं धर्म के मूल स्रोत और प्रमाण ग्रंथ के रूप में स्थापित किया। अनेक प्रचलित मिथ्या धारणाओं को तोड़ा और अनुचित पुरातन परंपराओं का खंडन किया। उस अंधकार के युग में महर्षि दयानंद ने सर्वप्रथम उद्घोष किया कि, वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढऩा-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। संपूर्ण भारतीय जनमानस को उन्होंने वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया। वेद के प्रति यह दृष्टि ही स्वामी दयानंद की विलक्षणता है। महर्षि दयानंद ने मनुष्य मात्र के लिए वेदों के अध्ययन के द्वार खोले थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का मार्ग प्रशस्त किया।

वेदों के प्रचार-प्रसार में महर्षि दयानंद के योगदान का भावपूर्ण वर्णन करते हुए देवेंद्रनाथ मुखोपाध्याय लिखते हैं कि, च्पांच हजार वर्षों में दयानंद सरस्वती के समान वेद ज्ञान का उद्धार करने वाले किसी भी मानव ने जन्म नहीं लिया।

दयानंद वेद ज्ञान के अद्वितीय प्रचारक थे, जिन्होंने भारतवर्ष के सुप्त पड़े हुए आध्यात्मिक स्वाभिमान व स्वावलंबन को पुन: जाग्रत किया। स्वामी दयानंद सबसे पहले ऐसे धर्माचार्य थे, जिन्होंने धार्मिक विषयों को केवल आस्था व श्रद्धा के आधार पर मानने से इनकार कर उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर कसने के उपरांत ही मानने का सिद्धांत दिया। उन्होंने मनुष्य को अपनी बुद्धि, विवेक शक्ति तथा चिंतन प्रणाली का उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने राष्ट्रवाद के सभी प्रमुख सोपानों जैसे कि स्वदेश, स्वराच्य, स्वधर्म और स्वभाषा इन सभी के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह स्वराच्य के सर्वप्रथम उद्घोषक और संदेशवाहक थे। अंग्रेजों की दासता में आकंठ डूबे देश में राष्ट्र गौरव, स्वाभिमान व स्वराच्य की भावना से युक्त राष्ट्रवादी विचारों की शुरुआत करने तथा उपदेश, लेखों और अपने कृत्यों से निरंतर राष्ट्रवादी विचारों को पोषित करने के कारण महर्षि दयानंद आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद के जनक थे।

सबसे पहले वर्ष 1876 में स्वामी दयानंद ने ही च्स्वराजच् का नारा दिया, जिसे बाल गंगाधर तिलक ने आगे बढ़ाया। वीर सावरकर ने इस महामानव के विषय में लिखा कि, च्स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम योद्धा निर्भीक संन्यासी स्वामी दयानंद ही थे। तत्कालीन बिखरे हुए भारतवर्ष को स्वामी दयानंद ने ही एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य किया था। गुजराती पृष्ठभूमि होने के बावजूद स्वामी दयानंद ने आर्य भाषा हिंदी को राष्ट्र की भाषा बनाने का प्रयास किया। संस्कृत के प्रकांड विद्वान होने पर भी उन्होंने अपने उपदेशों का माध्यम हिंदी भाषा को ही बनाया। स्वामी जी परम योगी, अद्वितीय ब्रह्मचारी, ओजस्वी वक्ता थे। वे जानते थे कि सशक्त भारत के निर्माण के लिए युवाओं को श्रेष्ठ शिक्षा पद्धति के माध्यम से ब्रह्मचर्य के तप में तपाकर ही राष्ट्र के स्वर्णिम स्वाभिमान और स्वाधीनता के मार्ग को प्रशस्त किया जा सकता है। इसके लिए स्वामी दयानंद ने गुरुकुल पद्धति का विधान किया, ताकि राष्ट्र का प्रत्येक युवा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों से परिपूर्ण होकर भारतीय वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए तत्पर हो। महर्षि दयानंद ने वेद के उपदेशों के माध्यम से भारतीय समाज को एक नया जीवन दिया। महर्षि ने बाल विवाह, पर्दा प्रथा, जाति प्रथा, छुआछूत जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जीवनपर्यंत संघर्ष किया। उन्होंने समाज में दलितों और शोषितों को समानता का अधिकार देकर सामाजिक एकता, समरसता व सद्भावना की नींव रखी। महान फ्रेंच लेखक रोम्या रोलां ने महर्षि दयानंद के अछूतोद्धारक कार्यों की प्रशंसा करते हुए लिखा कि, च्महर्षि दयानंद ने वेद के दरवाजे संपूर्ण मानव जाति के लिए खोले थे। उनके लिए संपूर्ण मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान हैं। दलितों, शोषितों और अछूतों के अधिकारों का स्वामी दयानंद जैसा प्रबल समर्थक कोई नहीं हुआ।च् उनका चिंतन था कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में मनुष्य को सर्वदा तैयार रहना चाहिए। उन्होंने तत्कालीन राजा, महाराजाओं एवं अंग्रेजी साम्राच्य के भय, लोभ, लालच की परवाह न करते हुए सत्य का उपदेश दिया। वेदों के स्वर्णिम चिंतन को महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कार विधि में प्रस्तुत किया।

उन्होंने भारतवर्ष के अतीत की गरिमा का पक्ष अत्यंत प्रबलता से प्रस्तुत किया, जिससे भारतवर्ष में स्वाभिमान एवं राष्ट्रीयता का समावेश हुआ। स्वामी जी स्वाधीनता और स्वराच्य के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने विदेशियों के आगे निर्भीकता से अपना पक्ष रखा। कोलकाता में 1873 में तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी नार्थ ब्रुक ने स्वामी दयानंद से कहा कि अंग्रेजी राच्य सदैव रहे, इसके लिए भी ईश्वर से प्रार्थना कीजिएगा। स्वामी दयानंद ने निर्भीकता के साथ उत्तर दिया कि स्वाधीनता और स्वराच्य मेरी आत्मा और भारतवर्ष की आवाज है और यही मुझे प्रिय है। मैं विदेशी साम्राच्य के लिए प्रार्थना कदापि नहीं कर सकता। स्वामी दयानंद कहा करते थे कि आर्यावर्त (भारत) ही वह भूमि है, जो रत्नों को उत्पन्न करती है।

वेद मंत्रों के प्रमाण देकर स्वामी दयानंद ने राष्ट्रीय स्वाभिमान से परिपूर्ण युवा शक्ति को तैयार किया। व्यक्ति, समाज, परिवार या राष्ट्र के विकास का मूलाधार उसकी स्वाधीनता है। ऋग्वेद का प्रमाण देते हुए स्वामी दयानंद स्वाधीनता के पथ की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, अर्चन् ननु स्वराज्यं अर्थात हम सदैव स्वराज्य की अर्चना करें। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, श्रद्धानंद, विनायक दामोदर, राम प्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, गोविंद रानाडे जैसे तमाम राष्ट्र चिंतकों ने स्वामी दयानंद के आध्यात्मिक स्वाभिमान, स्वाधीनता और स्वावलंबन के स्वर्णिम पथ का अनुसरण किया।

महर्षि अरविंद घोष ने स्वीकार किया था कि वैदिक ग्रंथों के उद्धार के कार्य के माध्यम से स्वामी जी ने भारतवर्ष के आध्यात्मिक स्वाभिमान को जाग्रत किया है। स्वामी जी ने बताया कि वेदों के उपदेशों से ही मनुष्य की व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है और भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होती है। महर्षि दयानंद का चिंतन था की आध्यात्मिकता एवं ज्ञान ही मनुष्य एवं राष्ट्र के स्वाभिमान एवं स्वाधीनता को सुदृढ़ता प्रदान करते हैं, इसलिए आर्य समाज की नियमावली में उन्होंने कहा कि अविद्या का नाश तथा सर्वदा विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। महर्षि दयानंद का स्वप्न था कि भारत ही नहीं, अपितु संसार का जनमानस श्रेष्ठता से परिपूर्ण हो च्कृण्वंतो विश्वमार्यम्च्।

महर्षि दयानंद का संपूर्ण जीवन वैदिक संस्कृति हेतु समर्पित रहा। एक बार ब्रह्म समाज के नेता केशव चंद्र सेन ने स्वामी दयानंद से कहा कि आप जैसा वेदों का विद्वान, संस्कृत का प्रकांड वेत्ता अंग्रेजी नहीं जानता, यह बड़े दुख की बात है। स्वामी दयानंद ने उत्तर दिया कि ब्रह्म समाज का शिरोमणि नेता देववाणी व वेदवाणी संस्कृत से अनभिज्ञ है, यह आपके लिए दुर्भाग्य की बात है। महर्षि का जीवन एक धार्मिक संत का था, उनकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषण की थी और दृष्टि वैज्ञानिक एवं प्रजातांत्रिक थी। इस निर्भीक संन्यासी के चिंतन ने ही पराधीन भारत की सुप्त पड़ी आध्यात्मिक स्वाभिमान एवं स्वराच्य की भावना को जाग्रत किया।